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कविता पुस्तक समीक्षा

जन्म और शिक्षा-दीक्षा देहरादून (उत्तराखंड ) में। आईआईटी रुड़की से एम.फिल (गणित) किया। हिंदी कविता में शुरू से दिलचस्पी, कई कवि सम्मेलनों में कविता प्रस्तुत करने का मौका मिला ।

By Edited By: Published: Fri, 19 Aug 2016 10:30 AM (IST)Updated: Fri, 19 Aug 2016 10:30 AM (IST)
कविता पुस्तक समीक्षा
अमीश त्रिपाठी अपनी किताब 'शिवा ट्राइलॉजी' से इतने मशहूर हुए कि उनकी अगली किताब का पाठकों को हमेशा इंतजार रहता है। शिव के बाद उन्होंने पौराणिक पात्र पुरुषोत्तम राजा रामचंद्र पर लिखने का विचार किया। 'सायन ऑफ इक्ष्वाकु' रामचंद्र शृंखला की पहली किताब है। हाल में इसका हिंदी अनुवाद 'इक्ष्वाकु के वंशज' के रूप में पाठकों के सामने आया है। इसका अनुवाद उर्मिला गुप्त ने किया है। अगर अनुवाद बढिय़ा हो तो पाठकों का किताब पढऩे का मजा दुगना हो जाता है। इस पर उर्मिला सौ प्रतिशत खरी उतरी हैं। इस किताब से पहले भी वे रश्मि बंसल, शरद दूबे, चंदन देशमुख जैसे लेखकों की किताबों का अनुवाद कर चुकी हैं। 'इक्ष्वाकु के वंशज' की कहानी यह है कि युद्ध और अलगाव का दंश झेल रहा राज्य अयोध्या कमजोर हो चुका है। इधर लंका के राजा रावण का आतंक चहुं ओर व्याप्त है। वह न सिर्फ पराजित हो चुके राज्यों पर अपना शासन लागू करता है बल्कि वहां के सारे धन को भी लूट लेता है। संपूर्ण व्यापार को अपने कब्जे में कर वह उस राज्य को खोखला कर देता है। इससे सप्तसिंधु की प्रजा न सिर्फ दुख और अवसाद से घिर गई, बल्कि दुराचरण में भी लिप्त हो गई। जब अराजकता फैलती है, तो उसे खत्म करने के लिए देश और समाज को हमेशा एक नायक की जरूरत पडती है। प्रजा राम को अपने नायक के रूप में देखना चाहती है पर क्या राम नायकत्व को प्राप्त कर पाएंगे? क्या वे संघर्ष कर रही पत्नी सीता की मदद कर उनका विश्वास जीत पाएंगे? किस तरह राम बन पाए मर्यादा पुरुषोत्तम? इन्हीं सभी प्रश्नों के इर्द-गिर्द अमीश ने मजेदार ढंग से पूरी कहानी को बुना है। आज जब युवा पीढी पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण कर रही है, अमीश ने पौराणिक पात्र राम की रोचक कहानी बता कर उन्हें भारतीय सभ्यता व संस्कृति से परिचित करने का सुंदर प्रयास किया है। इस कार्य में वे पूरी तरह सफल साबित हुए हैं। हंसते ही मुझे नहीं मालूम कैसे मगर हंसते ही फूल खिल जाते हैं दिल मिल जाते हैं गम के स्तंभ हिल जाते हैं रंग छा जाते हैं ढंग भा जाते हैं दंभ के व्यंग्य सकुचाते हैं राग बज जाते हैं भाग जग जाते हैं हर्ष के पल मिल जाते हैं पर्दे उठ जाते हैं अंतर घट जाते हैं छल के बल घट जाते हैं बंधन खुल जाते हैं रस्ते मिल जाते हैं दर्द के दंश घुल जाते हैं मुझे नहीं मालूम कैसे पर हंसते ही तत्व अमरत्व के पास आते हैं और अम्ल आसुरी मुड जाते हैं...। रिश्तों के पुल आंखों के समंदर में विश्वास की गहराई से बन जाते हैं रिश्तों के पुल दिलों का आवागमन जज्बातों का आदान-प्रदान कराते हैं रिश्तों के पुल दायरे होते हैं इनके बंधनों की रेलिंगें लगाते हैं रिश्तों के पुल वारंटी दिखती नहीं पर प्यार का भार जन्म भर उठाते हैं रिश्तों के पुल चेतावनी भी नहीं मिलती अहं की हल्की सी ठोकर से कांच से चटक जाते हैं रिश्तों के पुल...। रीढ एक ही बीज में रहते थे पल्लव और जड कुछ ही दिन का पोषण था उनके पास मगर... कुछ मजबूरी-कुछ जिज्ञासा दोनों की थी अंतर-सहमति से तोडा उन्होंने सुरक्षा कवच जड जड गई धरती में संभाला धरातल रंग-बिरंगी दुनिया देखने बाहर आया पल्लव एक मूक अनुबंध से जुडा उनका जीवन तना और पत्ते जब तक देते रहेंगे हवा, धूप, पानी जड देती रहेगी खाद वृक्ष खडा रहेगा सीधी रीढ के साथ...। स्मिता

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