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कवितायें

बह रही यह नदी बह रही, बहती रहेगी यह नदी देखती तट की सभी नेकी बदी।

By Edited By: Published: Fri, 27 Mar 2015 03:35 PM (IST)Updated: Fri, 27 Mar 2015 03:35 PM (IST)
कवितायें
बह रही यह नदी

बह रही, बहती रहेगी

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यह नदी

देखती तट की

सभी नेकी बदी।

जब कभी गिरते कगूरे पास के

तरु-विटप या क्षेत्रफल ले घास के

हो रही आवाज 'छप' से या नहीं

बढ गए कंपन निजी एहसास के,

इस करुण अनुभूति के

आंसू पिए,

बह रही है दर्द

लेकर सरहदी।

पांव छूकर अर्चना करके घुसे

अंजुली का अघ्र्य दे पूरब दिशे

डुबकियां लें और निकलें घट भरे

पूजते थे देवि-सा हर पल जिसे

दिन सुहाने वे पुराने याद कर

झुर्रियों में फिर उठी

कुछ गुदगुदी।

हर कदम बंधन बंधे कब तक जिएं

कब तलक ये नील कंठी विष पिएं

धमनियां दूषित शिराएं बन गईं

ये विषम हालात किसने हैं दिए

बुदबुदाती

खदबदाती सोचती

बह रही है झेलती

यह त्रासदी।

एक एक क्षण जी लेने दो

एक-एक क्षण

जी लेने दो,

जीवन में थोडा मधुरस है

बूंद-बूंद कर पी लेने दो।

मधु का छत्ता सदा ऊंचाई

ललचाए पर कठिन चढाई,

डंक चुभे कांटों का खतरा

खतरे में है सिद्ध लडाई,

लडऩे में कुछ कटे-फटे तो

फटे दर्द को सी लेने दो।

उडऩा है तो उड भी लेंगे

मधु छत्ते को छू भी लेंगे,

बादल सा लहराकर नभ में

वापस आकर जुड भी लेंगे,

ऊंचे सधे लक्ष्य, रनवे को

पहले एक जमीं लेने दो।

दुनिया क्षणभंगुर नश्वर है

फिर भी पल प्रति-पल भास्वर है

सुख-दु:ख के इस रेत-वारि से

बना हुआ जीवन सागर है

मूंगे मोती अंकुराने को

अपनी जमीं नमी लेने दो।

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में जन्मे ओम धीरज के अब तक दो गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जबकि एक प्रकाशानाधीन है। आलोचना कर्म के अलावा कतिपय पत्रिकाओं का संपादन। कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त।

ग्रामीण पुस्तकालय की स्थापना के अलावा कई सामाजिक कार्य।

संप्रति : अपर जिला अधिकारी (प्रोटोकॉल), वाराणसी

ओम धीरज

ध्रुव सत्य

दूर गगन में देख सितारा

मत होना तुम विचलित

बन कर एक सितारा क्या पाओगे

कहीं गगन में एक जगह

स्थिर रह जाओगे।

बनना है तो बनो पवन तुम

जन-जन की सांसों में बस जाओगे

कोई तुमसे छल न करेगा

न मिलने पर आंहें भरेगा

न कोई तुम पर वार करेगा

हरदम तुमको प्यार करेगा।

सारी दुनिया को अपनाओगे

ध्रुव सत्य तुम कहलाओगे।

चांद का दर्द

रात छत पे चांद से मुलाकात हुई

कुछ उसकी कुछ अपनी बात हुई

चांद खामोश था चांद मायूस था

अपनी सूरत को लेकर गमदोज था

मैंने पूछा जो उससे हंसी क्यों खो गई

खूबसूरत हो तुम पर कमी क्या हुई

चांद कहते हैं सब पर मुझे भाता नहीं

लाख कर लूं जतन पर दा्रग जाता नहीं

मैंने कहा चांद से यूं घबराते नहीं

तम मिटाने वाले के दाग देखे जाते नहीं

गोरखपुर में जन्मे अजय कुमार ने अर्थशास्त्र विषय से परास्नातक किया। कई रचनाएं प्रकाशित, दूरदर्शन और आकाशवाणी से नाटक एवं कहानियों का नियमित प्रसारण, टेलीफिल्म 'काश को सम्मान व प्रशस्ति पत्र प्राप्त। कई धारावाहिकों व टेलीफिल्मों के लिए शीर्षक गीतों की रचना।

संप्रति: इंदिरा नगर लखनऊ में कार्यरत

अजय कुमार मिश्र 'अजयश्री'


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