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बहू की मां

कहानी के बारे में : सास-बहू के रिश्ते को ज्य़ादा बुरा बना दिया गया है जबकि सच्चाई यह है कि इस रिश्ते में नोक-झोंक भले ही होती हो, प्यार भी कम नहीं होता।

By Edited By: Published: Mon, 05 Sep 2016 12:16 PM (IST)Updated: Mon, 05 Sep 2016 12:16 PM (IST)
बहू की मां
जीजाजी मैं सोनी को अपने घर खाने पर बुलाना चाह रही थी। उसकी शादी को आठ महीने बीत चुके हैं पर अब तक उसका व हेमंत का भोज नहीं कर पाई हूं...', मीनाक्षी, वीरेंद्र जी से फोन पर कह रही थीं। 'इसमें तुम्हारी तरफ से कमी नहीं है मीनाक्षी, वे दोनों ही व्यस्त थे। उनके ससुराल में ही इतने लोग हैं कि मायके वालों की बारी नहीं आ पा रही है...।' सोनिया की मां जल्दी ही दुनिया को अलविदा कह गई थीं। वीरेंद्र जी ने अकेले ही उसका पालन-पोषण किया था। मीनाक्षी मौसी शहर में थीं तो चिंता नहीं थी। सोनिया से जो भी मिलता, यही कहता कि बेटी हो तो सोनिया जैसी। पढाई में अव्वल रहने वाली सोनिया एक यूनिवर्सिटी में प्रवक्ता बनी ही थी कि रिश्ता पक्का हो गया और चट मंगनी पट ब्याह हो गया। लाडली भांजी के लिए मीनाक्षी ने उसकी पसंद का खाना बनवाया। कढी-चावल, भरवां बैंगन, मावे वाली सेवईं....और भी बहुत कुछ। 'अरे हेमंत बेटा, आपकी मम्मी नहीं आईं? मैंने तो उन्हें भी बुलाया था...', सोनिया और हेमंत को अकेले देख मीनाक्षी बोलीं। 'बस यूं ही', हेमंत का संक्षिप्त-सा उत्तर सुनकर मीनाक्षी चुप रह गईं। शादी से पहले हेमंत मिलता तो खूब हंसी-मजाक करता लेकिन आज वह चुप था। सोनिया भी उदास थी। उसकी खिलखिलाती हंसी व चुलबुलापन मानो खो सा गया था। शादी से पहले अपने पसंदीदा पकवान देखने पर सोनिया की ललचाती नजर को रोक पाना मुश्किल हो जाता था। वही आज खाने की टेबल पर चुपचाप बैठी थी। मीनाक्षी ही आगे बढ कर खाना परोसती रहीं। सोनिया को देख कर ऐसा लग रहा था मानो तितली के पंख उसके बदन से चिपक गए हैं और वह उडऩे में असमर्थ है। कहां वह हर बात पर खिलखिलाने वाली सोनिया, जिसके ठहाकों से घर गुलजार रहा करता था और कहां ये सोनिया, जो मौसी के ही घर में सकुचाई सी बैठी थी। मीनाक्षी ने चुप्पी तोडी, 'तो सोनी, तुम कॉलेज कब से जॉइन कर रही हो? अब तो काफी समय हो गया छुट्टी पर?' सवाल पूरा हो पाता, इससे पहले ही सोनिया ने आंख के इशारे से उन्हें चुप करा दिया। खाना खाकर जल्दी ही दोनों चले गए। मीनाक्षी इस मुलाकात से संतुष्ट नहीं थीं। उन्हें सोनिया से अकेले बात करनी थी ताकि शंका दूर हो सके। सोनिया को फोन करतीं तो कोई न कोई उसके आसपास रहता था। जब भी फोन करो, सोनिया दो-चार वाक्य बोलकर तुरंत सास को फोन थमा देती, यह कहते हुए कि मौसी...लो मम्मी जी से बात कर लो। मीनाक्षी ने एक बार फिर प्रयास किया। इस बार सोनिया ने बताया कि उसकी सास मंदिर गई हुई हैं। मीनाक्षी की हिचक खुली तो खुलकर पूछ बैठीं, 'सोनी, उस दिन लंच पर तुम इतनी अनमनी क्यों थीं? कॉलेज का नाम लेते ही तुमने मुझे चुप करा दिया। सच-सच बताओ बेटा, मुझे चिंता हो रही है...।' 'अरे नहीं मौसी, ऐसी कोई बात नहीं थी', सोनिया बात टालना चाह रही थी मगर मीनाक्षी के बहुत कुरेदने पर बोली, 'मौसी, मैं कॉलेज जाने लगी थी मगर पहले ही दिन जब कॉलेज से लौटी तो घर का माहौल बिगडा हुआ मिला। मम्मी जी इसलिए नाराज थीं कि मैंने उनसे क्यों नहीं पूछा। उन्होंने कहा कि वह नहीं चाहतीं कि नई बहू नौकरी करने बाहर निकले। वह जिम्मेदारियां निभाते-निभाते थक चुकी हैं और चाहती हैं कि बहू घर संभाले...। मम्मी की बात पर हेमंत ने मुझे सख्ती से कहा कि कॉलेज जाना बंद कर दूं क्योंकि वह मां को उदास नहीं देखना चाहते थे...।' सोनिया की आवाज में गुस्सा, क्षोभ, हताशा थी। मीनाक्षी ने तुरंत वीरेंद्र जी को फोन किया, 'जीजाजी, जरा सोनी का हाल-चाल ले लीजिए, बच्ची कुछ उदास सी लगी। चाहें तो हेमंत को समझा सकते हैं। ' 'देखो मीनाक्षी, मैं हेमंत को सीधे-सीधे कुछ नहीं कह सकता। कुछ कहूं भी तो उससे अपनी बात नहीं मनवा सकता। आखिर वह दामाद है हमारा...,' वीरेंद्र जी बोले। अगले हफ्ते सोनिया अचानक घर आ गई। सब अवाक रह गए। आते ही वह फूट-फूट कर रोने लगी। लग रहा था, जैसे शादी ने मायके के साथ मन हलका करने की आजादी भी उससे छीन ली थी। 'पापा, लगता है कहीं न कहीं मुझमें ही कोई कमी रह गई। आज तक मैं इस बात पर गर्व अनुभव करती थी कि मां के न होते हुए भी पापा ने मुझे अच्छे संस्कार दिए हैं लेकिन शादी के बाद लगने लगा है कि आप और मैं फेल हो गए...', सुबकते हुए सोनिया बोली। उसका मन चाह रहा था कि घडी को उल्टा घुमा दे, जिंदगी को रिवाइंड कर वापस घर लौट आए, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। शादी महज एक सपना थी। नींद खुलने पर फिर से वह पापा के साथ थी। पापा का बरगद-सा साया, जिसमें वह हमेशा सुरक्षित महसूस करती थी और उनका प्रोत्साहन...जो हमेशा आगे बढऩे को प्रेरित करता था। सोनिया को हताश देख वीरेंद्र जी हतप्रभ थे। उनकी संस्कारी, प्रतिभाशाली, आत्मविश्वास से भरपूर बेटी इतनी निराशा भरी बातें कर रही थी कि वह कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे। शादी के तुरंत बाद सोनिया की सास ने उससे परिपक्व गृहिणी की अपेक्षा शुरू कर दी। हर नई लडकी को गृहस्थी जमाने में वक्त लगता है। मायके की देहरी लांघते ही अनुभवों की पोटली तो हाथ लगती नहीं मगर सोनिया की सास को सब्र ही नहीं था। वह चाहती थीं कि सोनिया सारे काम कुशलता से वैसे ही संभाल ले, जिस तरह वह संभालती हैं। वह अकसर ताने देतीं, 'सास वह, जो सांस न आने दे...। हमारे जमाने में तो बहुएं सासों को जमीन पर पांव तक नहीं धरने देती थीं और आजकल की लडकियां...।' सोनिया इस दबाव में घर के सारे काम खुद पर नहीं ओढऩा चाहती थी। वह पढी-लिखी व काबिल लडकी थी, आत्मनिर्भर थी। कभी न कभी उसे नौकरी करनी होगी इसलिए वह चाहती थी कि घर के कामकाज के लिए एक हेल्पर रख ले ताकि सास को परेशानी न हो। लेकिन उसकी सास तैयार ही नहीं होतीं। डोमेस्टिक हेल्प की बात सुनते ही नाक-भौं सिकोडऩे लगतीं। सोनिया रोते हुए पापा को बता रही थी, '....मैं नहीं जानती थी पापा कि बात इतनी आगे तक जाएगी। मुझे नहीं पता था,मम्मी हेमंत से क्या कहती हैं लेकिन हेमंत ने मेरे हाथों से खाना तक लेना बंद कर दिया है। डाइनिंग टेबल पर मम्मी के परोसने पर खाते हैं या खुद खाना ले लेते हैं। घर में मुझसे कोई बात नहीं करता। मैं कमरे में होती हूं तो वे उठ कर दूसरे कमरे में चले जाते हैं। हेमंत से बात करना चाहूं तो वह कहते हैं कि उन्हें न्यूज देखनी है। एक दिन मैंने गुस्से में उनसे कहा कि क्या मेरी बात का कोई महत्व नहीं है? उन्होंने सीधा जवाब दिया-नहीं। मैं कोई सामान खरीद कर लाऊं, शादी में मिले तोहफे इस्तेमाल कर लूं या घर की सेटिंग चेंज करने की कोशिश करूं, मम्मी मुंह फुला लेती हैं। पहले मैं हेमंत के ऑफिस से लौटने तक सारे काम निपटा लेती थी ताकि हम साथ में समय बिता सकें लेकिन तभी मम्मी पास आकर बैठ जातीं और मैं हेमंत से बात नहीं कर पाती थी। मम्मी जान-बूझकर हेमंत के आते समय कोई काम शुरू कर देतीं और वह नाराज होकर कहने लगते कि क्या मैं उनकी हेल्प नहीं करती? उन्हें लगता था कि मैं जान-बूझकर मम्मी को परेशान करती हूं और काम नहीं करना चाहती...।' सोनिया के सब्र का बांध टूट चुका था और उसके आंसुओं का गुबार थम ही नहीं रहा था। 'मम्मी का कहना है कि मेरी मां होती तो मुझे संस्कार मिले होते, वह मुझे ससुराल में निभाना सिखातीं। बिन मां की बहू लाकर उन्होंने जीवन की सबसे बडी भूल कर दी..।' मीनाक्षी और वीरेंद्र बडी दुविधा में थे। ज्य़ादा दिन तक मायके में ठहरना भी रिश्ते के लिए अच्छा नहीं था लेकिन वे इस हाल में सोनिया को ससुराल नहीं भेज सकते थे। 'हमें तभी समझ आ जाना चाहिए था जीजा जी, जब हम सोनी के घर गए और हेमंत हमारे साथ बैठा भी नहीं। याद है, कैसे वह किसी के घर जाने की बात कह कर उठ गया था?' मीनाक्षी ने याद दिलाया। 'हम्म...। मैंने सोनी से बात की है मीनाक्षी। वह अपना घर नहीं तोडऩा चाहती, इसलिए सब कुछ बर्दाश्त कर रही है...।' वीरेंद्र जी ने कहा तो मीनाक्षी बोली, 'ये तो मैं जानती हूं कि सोनी में कोई बुराई नहीं है लेकिन जब कोई जान-बूझ कर बुरा खोजने लगे तो क्या किया जाए...। हमारी बच्ची का स्वाभिमान ही तोड दिया है उन लोगों ने। सोनी विनम्र है लेकिन स्वाभिमानी भी है। कभी किसी की ऊंची आवाज, गलत व्यवहार या एटिट्यूड वह बर्दाश्त नहीं करती थी मगर शादी निभाने के लिए अब कितना कुछ सहन कर रही है। एक वे लोग हैं, जो उसकी स्थिति नहीं समझ रहे हैं...', मीनाक्षी के स्वर में रोष था। 'रिश्ता बनाया है तो निभाना भी चाहिए। मुझे गर्व है अपनी बेटी पर लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह सबकी नाजायज बातें भी सहन करती जाए। वैसे इसका इलाज मेरी समझ में आ रहा है...', वीरेंद्र जी किसी नतीजे पर पहुंच गए थे। ....आज सोनिया अपनी बेटी का दूसरा जन्मदिन मना रही है। सभी खुश हैं। हेमंत, सासू मां, ससुर, पापा और मौसी...। पार्टी चल रही है। पार्टी के बाद पापा और मौसी को विदा कर सोनिया घर में बिखरा सामान समेटती हुई अतीत की यादें भी समेटने लगी। कितनी समझदारी से पापा ने उसकी गृहस्थी संभाल दी थी। उसे याद दिलाया था, 'बेटा, मैं हर तरह से तुम्हारे साथ हूं लेकिन एक बात तुम्हें भी समझनी होगी कि अकसर मांओं को बेटे की शादी करते ही असुरक्षा की भावना घेर लेती है। उन्हें यह चिंता सताने लगती है कि कहीं उनका बेटा उनसे दूर न हो जाए। पापा की बात सुन कर सोनिया को याद आ गई वह पहली शाम, जब हेमंत उसे मायके मिलवाने ले गए थे। दोनों पहली बार घर से बाहर अकेले निकले थे, सो घर लौटते समय हेमंत उसे अपने पसंदीदा आइसक्रीम पार्लर में ले गया। नई शादी का उत्साह....घर लौटते हुए थोडी देर हो गई। उस दिन तो सास का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया था। सुनाने में कोई कसर न छोडी, 'बीवी को घुमाने-फिराने में मां को भी भूल गए हेमंत? तुमको ये भी याद नहीं रहा कि तुम्हारी मां तुम्हारे बिना खाना तक नहीं खाती?' उस दिन के बाद हेमंत ने देर रात के कार्यक्रम कभी नहीं बनाए। सोनिया को तो समझ ही नहीं आया कि मां जरा सी बात पर इतनी नाराज क्यों हो रही हैं। पापा ने ही समझाया, 'देखो बेटा, जिस मां ने बेटे को इतने साल पाला-पोसा, उसे बहू के आने से थोडी असुरक्षा तो होती है। उसे लगता है कि बहू के आने से उसका महत्व कम हो जाएगा और बेटा बहू के आसपास घूमेगा। सास यह तो चाहती है कि बहू आते ही सारी जिम्मेदारी संभाल ले, ताकि उसे थोडा आराम मिले, लेकिन डरती भी है कि रसोईघर पर बहू का ही अधिकार न हो जाए क्योंकि जिंदगी भर रसोई पर उनका अधिकार रहा है। अब यदि हेमंत तुम्हारी प्रशंसा करेगा या तुम्हारे हाथ के बने खाने की तारीफ करेगा तो उनकी असुरक्षा-भावना बढ जाएगी। जाने-अनजाने वह तुम्हारे खिलाफ बोलने लगेंगी।' 'तो क्या सब ऐसे ही चलता रहेगा पापा?' सोनिया ने निराश होते हुए पूछा। 'बिलकुल नहीं बेटा, तुम आज के जमाने की समझदार और पढी-लिखी लडकी हो। पुरानी सीख है- यदि शांति चाहते हो तो कभी दूसरों को बदलने की अपेक्षा मत रखो, खुद को बदलो। जैसे कंकड से पैर घायल न हो, इसके लिए हम जूते पहनते हैं, पूरी धरती पर कार्पेट नहीं बिछाते। उसी तरह तुम्हें भी अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा। एक सरल लेकिन धैर्य वाला उपाय है मेरे पास। धैर्य वह औजार है, जो सामने वाले पर वार किए बिना ही हमें जीत की ओर बढा ले जाता है। धैर्य व प्रयास से हम जीवन की हर परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकते हैं...,' कहते हुए वीरेंद्र जी ने सोनिया के हाथ में एक कागज थमाया, जिसमें हरिवंश राय 'बच्चन' जी की कविता की कुछ पंक्तियां लिखी थीं, 'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती...।' वाकई, पापा के सिखाए पाठ ने सोनिया के जीवन पर बहुत असर डाला। अगले दिन वीरेंद्र जी सोनिया को लेकर उसकी ससुराल पहुंचे थे। सास का मूड खराब था, लिहाजा वीरेंद्र जी ने बात शुरू की, 'देखिए, प्लीज अपना गुस्सा थूक दीजिए। सोनिया बिन मां की बच्ची है, दुनियादारी नहीं जानती। आप जैसे उसे समझाएंगी, वह समझेगी। जो भी कहेंगी, वह मानेगी। आप जैसे चाहें, उसे रखें...अब यह आपकी बेटी है।' 'अरे नहीं भाई साहब, शायद हमसे ही कोई गलती हो गई, जो सोनिया नई गृहस्थी छोड कर मायके चली गई। आखिर किस चीज की कमी है उसे यहां? अब क्या हम आपकी लडकी के मूड के हिसाब से जीने लगेंगे?'सास समझौते के पक्ष में नहीं लग रही थीं। 'मुझे माफ कर दीजिए मम्मी..', सोनिया ने आगे बढ कर उनके पैर छू लिए, '...आगे से ऐसा कभी नहीं होगा। आप जो भी कहेंगी, मैं उसे मानूंगी।' वीरेंद्र जी ने फिर बात संभालने की कोशिश की, 'मेरी विनती है आपसे....। हो सकता है मुझसे परवरिश में कोई कमी रह गई हो, मैं उसे अच्छे संस्कार न दे सका। मां होती तो...ज्य़ादा बेहतर सिखा पाती, मगर अब मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आइंदा वह कोई गलती नहीं करेगी।' पापा की समझदारी भरी बातें काम कर गईं। सास का अहं तुष्ट हुआ और उन्हें उनकी जिम्मेदारी समझा कर पापा ने उनका आधा डर खत्म कर दिया। वह थोडा पिघलीं। ...सोनिया ने सास की बातें माननी शुरू कर दीं। कोई भी अच्छी बात होती, वह सास को श्रेय देती। बुरा लगता तो हंस कर टाल देती। धीरे-धीरे धैर्य रंग लाया और स्थितियां बदलने लगीं। तीन साल बीत गए, आलम यह है कि सास ही नहीं, हेमंत भी हर काम सोनिया से पूछ कर करते हैं। बिन मांगे ही पूरी गृहस्थी सोनिया के हाथों में आ गई है। यही नहीं, वह यूनिवर्सिटी में पढाने भी लगी है...। प्राची भारद्वाज

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