Move to Jagran APP

जुगाड़ चंद की आत्मकथा

परीक्षा हो या चुनाव, नौकरी हो या व्यापार.. भारत में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां जुगाड़ न चलता हो। अगर भारत को जुगाड़ प्रधान देश कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जुगाड़ की इस प्रधानता पर एक नजर।

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 11:30 AM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 11:30 AM (IST)
जुगाड़ चंद की आत्मकथा

मेरा नाम जुगाड चंद है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैंने जन्म से पहले ईश्वर के यहां कोई न कोई अमोघ जुगाड जरूर लगाया होगा, तभी उसने मुझे भारत जैसे जुगाड-प्रधान देश में अवतार धारण करने का सुअवसर प्रदान किया।

loksabha election banner

मुझे पता है कि कुछ देशभक्त टाइप मित्रों को मेरा अपने देश को जुगाड-प्रधान कहना रुचेगा-पचेगा नहीं, परंतु मेरा कथन अक्षरश: सत्य है।

वस्तुत: जुगाड शब्द अत्यंत भ्रामक बन गया है। अपने संकीर्ण अर्थ में यह नकारात्मक ध्वनि देता है, जबकि अपने व्यापक अर्थ में यह असीम संभावनाओं के दर्शन कराता है।

भिन्न-भिन्न महापुरुषों ने माया-मोह के सघन पंक में निमज्जित प्राणियों को इस दलदल से निकलने के जो भिन्न-भिन्न मुक्ति मार्ग सुझाए हैं, वे वास्तव में मुक्ति-एक्सप्रेस हेतु तत्काल टिकट कटाने के भिन्न-भिन्न जुगाड ही तो हैं। पारलौकिक ही नहीं, समस्त इहलौकिक क्रिया-कलाप का एक्सीलरेटर भी जुगाड ही है। जिसे परिश्रम, धैर्य, संयम आदि कहा जाता है, वह असल में और कुछ नहीं, जुगाड का परिवर्धित, संशोधित, परिष्कृत एवं उदात्त रूप ही है।

विज्ञान के सभी आविष्कार भी सही अर्थो में जुगाड ही हैं। मनुष्य की मेधा ने आज तक अपनी सुख-सुविधा की वृद्धि लिए जितने जुगाड भिडाए हैं, वही आविष्कार कहलाते हैं। यहां तक कि पश्चिमी जगत वाले अपने श्रेष्ठतम जुगाडों को नोबल पुरस्कार से सम्मानित भी करते हैं।

पिताजी कहा करते थे कि मैं जन्मजात जुगाडी था। उन्हें इस पूत के जुगाड पालने में ही दिखने लगे थे। इसी लिए उन्होंने मेरा नाम रखा- जुगाड चंद। पिता जी बताया करते थे कि अन्य सांसारिक बालक पहले रोते हैं, फिर मां उन्हें दूध देती है, किंतु मैं ऐसा दिव्य शिशु था जो दूध पीकर रोता था ताकि मां यह सोचकर कि यह अभी भूखा है, मुझे दुग्धपान कराती रहे। और तो और.. जैसे बाल गोपाल ग्वाल बालों की सहायता से दही-मक्खन चुराकर खाया करते थे, उसी प्रकार मैं कुर्सी, मेज, मोढा, स्टूल आदि की मदद से घर में आई या बनी.. हर वस्तु.. यथा.. फल, मिठाइयां, बिस्कुट, रोटी, जैम, आइसक्रीम आदि-आदि निरंतर उदरस्थ करता रहता था। जिसके फलस्वरूप, मैं अपने सखाओं के मुकाबले बहुत जल्दी और बहुत अधिक हृष्ट-पुष्ट हो गया।

मेरी यह जुगाड-साधना विद्यालय में पहुंचकर और विकसित होकर अगले चरण में प्रवेश कर गई। यहां मैंने स्तुति मंत्र की रचना की। पठन-पाठन आदि व्यर्थ कार्यो में ऊर्जा विनष्ट के स्थान पर मैंने स्तुति मंत्र की गहन साधना की। मैं अपना सारा क्लास वर्क प्रशंसा की गोली खिलाकर सहपाठियों से और सारा होमवर्क थकावट का अभिनय करके माता-पिता से करवा लिया करता था। आज जो कॉन्वेंट स्कूलों के बच्चों का होमवर्क उनके पेरेंट्स या टयूटर कर के देते हैं, इस सुप्रथा का आरंभकर्ता मैं ही हूं।

आठवीं कक्षा तक किसी को भी फेल न करने के सरकारी जुगाड के चलते, मैं बिना किसी हील-हुज्जत सीधे नवीं क्लास में जा पहुंचा। नवीं से बारहवीं तक के चार वर्षो में मैंने पुर्जी निर्माण विधियों पर न सिर्फ गहन शोधकार्य किया, बल्कि उनकी प्रायोगिक उपादेयता का अत्यंत सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया। फोर्टी पर्सेट नामक पुर्जी, जिसमें गाइड के दोनों पन्नों को दो-तीन बार रिड्यूस करके इतना छोटा बना दिया जाता है कि उसे कफ, कॉलर, बेल्ट, जूते कहीं भी छुपाना अत्यंत आसान होता है, का आविष्कार भी मैंने ही किया था।

शेष कार्य मेरे गुरुजनों के प्रति श्रद्धाभाव ने पूरा कर दिया। मैं गुरुवरों की स्तुति एवं सेवा में सदैव तत्पर रहा। मेरा स्तुतिमंत्र सुनने वाले को मुग्ध कर देता। मेरे द्वारा स्थापित की गई इस स्तुति-मंत्र की परंपरा से आज तक विभिन्न विश्वविद्यालयों में सभी विषयों के मेधावी शोध-छात्र अत्यंत लाभान्वित हो रहे हैं। गुरु के प्रति उनकी सेवा उन्हें सहज ही पी-एच. डी. उपाधि रूपी मेवा दिलवा देती है।

अपनी इस विकट प्रतिभा के बल पर मैंने इंटर भी पास किया और ऐसे अनेक घनिष्ठ मित्र भी बनाए जिनके दबदबे के चलते बाद में मुझे नगर अधिकारी के कार्यालय में क्लर्क जैसी उच्च मलाईदार नौकरी भी हासिल हुई। अपने स्तुति-मंत्र की अटूट-अनथक साधना के चलते अगले पांच-छह वर्ष में, जहां मैं आते-जाते नगराधिकारियों का दायां हाथ बन गया, वहीं मेरे होशियार सहपाठी बी.ए., बी.एड. करके बेरोजगारी से त्रस्त, सडकों पर धरने लगाते और लाठियां खाते फिर रहे थे। जो किसी तरह मास्टर बन भी गए, वे चुनाव सर्वेक्षणों, जनगणना आदि ड्यूटियों के मारे मेरे इर्द-गिर्द मंडराते थे।

मेरे स्तुति-मंत्र के प्रभाव के कारण नगराधिकारी अपने से ज्यादा मेरी बातों पर विश्वास करते थे। मैं जो चाहता था, वह कहता था और मैं जो कहता नगराधिकारी वही करते थे।

अपनी आठ हजार मासिक वेतन वाली मलाईदार नौकरी पर से मैंने आठ-दस साल में इतनी मलाई उतारी कि उसके बिलोए मक्खन से 500 गज की शानदार कोठी, विद चार-चार एसी, दो कारें, चार प्लॉट.. आदि-आदि खडे कर लिए।

इतनी अल्पायु में इतनी समाजार्थिक सफलता अर्जित करने के बावजूद मेरे हृदय में, कहीं न कहीं, महत्वाकांक्षा का कीडा निरंतर कुलबुलाता रहता था। एक दिन मुझे अति गहनता-गंभीरता से अनुभव हुआ कि जिस नगराधिकारी के इर्द-गिर्द मैं, सर-सर.. करके सरसराता फिरता हूं, वह राजनेताओं के सामने सर-सर.. करके सर पटकता फिरता है। मुझे अंतरात्मा ने चिल्लाकर कहा, जुगाड चंद तुझे लिपिक नहीं, राजनेता होना चाहिए। जिन मित्रों की नैया, नवीं से बारहवीं तक, मेरे आविष्कारों की पतवार से पार हुई थी, मेरे वे सभी शुभचिंतक राजनीति में ही थे। अत: उनकी सहायता से मैं सत्ताधारी दल की यूथ बिग्रेड में भर्ती हो गया और शीघ्र ही छुटभैये स्तर का नेता बन गया।

पहले नगराधिकारी के आ धमकने पर मुझे खडे हो जाना पडता था, अब मेरे आगमन पर वह करबद्ध दंडवत करते खडा हो जाता था। मैंने अगले अनेक वर्ष निर्वाचित नियुक्त पदों पर सुशोभित होकर जनता की तन-मन से सेवा की और खूब धन कमाया। मेरा स्तुति मंत्र यहां भी सफल रहा और मैं बडभैये राजनेताओं का दायां हाथ बना रहा।

मैं नेतागण के साथ धर्म-गुरुओं के यहां भी जाया करता था। धर्म-गुरुओं की कृपा से उनके भक्तगण हमारे वोटरगण बन जाते थे। नेतागण को धर्म-गुरुओं के चरणों में जा बिराजते देखकर मेरे मस्तिष्क में एक नया जुगाड कौंधा। मुझे स्वयं प्रज्ञ ज्ञान हुआ कि अब मुझे धर्म गुरु बन जाना चाहिए। मैंने बड भैयों से प्रार्थना की कि मुझे धर्म गुरु बना दो.. ताकि मैं निरंतर अपने भक्त-बैंक को आपके वोट-बैंक में बदलता रहूं। सभी मेरे मशविरे से अत्यंत प्रसन्न हुए।

सो मैंने संन्यास की घोषणा कर दी। संपत्ति का ट्रस्ट बनाकर.. उस पर धर्मगुरु बन बैठा। तीस वर्षो तक मैंने अखंड साधना की। आज मेरे लाखों भक्त हैं.. करोडों का चढावा है.. और अरबों-खरबों की संपत्ति है।

अब मैं अस्सी वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हूं और फिलहाल ईश्वर पर अपने स्तुति-मंत्र का प्रयोग कर रहा हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी मेरा यह जुगाड पूरी तरह सफल रहेगा और ईश्वर प्रसन्न होकर मेरी मुझे जीवनलीला पूरी करने के बाद भी किसी न किसी छोटे-मोटे लोक का आधिपत्य अवश्य प्रदान करेंगे।

मेरी आत्मकथा से प्रेरित होकर यदि एक भी प्राणी मेरी तरह अपना जीवन सफल कर ले तो मैं अपने इस आत्मकथा-लेखन के जुगाड को धन्य मानूंगा..।

डॉ. राजेंद्र साहिल


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.