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झाड़ू चिंतन

ऐसे तो झाड़ू-बुहारू का काम बहुत छोटा सा समझा जाता है, जिसके लिए किसी प्रशिक्षण की कोई जरूरत भी नहीं समझी जाती। लेकिन, अगर करना पड़ जाए तो अच्छे-अच्छे विशेषज्ञों को इतने में ही दुनिया का सारा दर्शन सूझने लगे। इस नाचीज से काम पर एक विशेषज्ञ का विशेष चिंतन।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:28 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:28 PM (IST)
झाड़ू चिंतन

दूसरे की क्या कहूं, अपनी कहूंगा और खुश रहूंगा। दूसरे के बारे में कहने के लिए जिगरा चाहिए। छुट्टी का दिन था। हम पैदल चलते हुए ज्यादा दूर निकल गए। बाजार  की ओर। वहां उन्होंने जिद  पकड ली। कहने लगीं, हमारी कॉलोनी का दुकानदार लुटेरा है। दोगुने दाम पर सामान बेचता है। इसलिए घर के जरूरी  सामान यहां  के थोक विक्रेताओं से खरीद लेने चाहिए। मैंने लुटेरा शब्द के प्रयोग पर आपत्ति जताई। क्योंकि मैंने उन्हें उस दुकानदार के समक्ष उसकी तारीफ करते सुना था। इस दोहरे बर्ताव से मैं आश्चर्यचकित था। यद्यपि मैं उनके द्वारा थोक विक्रेताओं  से सामान की खरीदारी के परामर्श से सहमत हुआ।

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कई जरूरी सामान खरीद लिए गए। ध्यान ही नहीं रहा कि हम भ्रमण के लिए पैदल निकले थे। खरीदी गई सामग्री में दो लंबे-लंबे झाडू भी थे। मैंने सरकारी फाइलों में लिखी जाने वाली टीप की भाषा में सुझाया, चूंकि झाडू ले जाने में असुविधा होगी, अत: इनकी खरीदारी का मामला अभी लंबित रखा जाए। लेकिन उन्होंने किसी बडे सरकारी अधिकारी की मानिंद मेरे प्रस्ताव को खारिज कर दिया और झाडू मेरे हाथों में थमा दिए गए। ऐसा करने में उनका फायदा था। बचत के साथ-साथ उनके घर तक ट्रांस्पोर्टेशन भी फ्री। हमें लगा बीच बाजार ये झाडू हमारी इज्जत ले लेंगे। जमाना क्या सोचेगा? एक अदद पति भरे बाजार झाडू लिए घूम रहा है।

मध्यवर्गीय भारतीय इज्जत के लिए मरता है। उस दिन लगा, झाडू मेरी इज्जत का फालूदा करके रहेगा। कहीं कोई पहचान वाला सामने से नमस्ते न ठोंक दे, किसी द्वारा टोके जाने पर क्या जवाब देना है.. हाथ में झाडू थामे इस आपातकालीन क्विज की तैयारी पूरे रास्ते करता रहा। झाडू के दाम, उसकी गुणवत्ता, प्रकार, बनावट एवं महत्व पर गंभीर चिंतन करता रहा। फूल झाडू, खर्राटा झाडू, मकडी का जाला निकालने वाला झाडू, सींक झाडू आदि-आदि। चिंतन इतना गंभीर हो चला कि 40  साल पूर्व दादाजी द्वारा पूछी गई एक पहेली याद हो आई - इधर-उधर गई और कोने में बैठ गई, बोलो क्या? मैं ताली पीटकर जवाब देता - झाडू। फिर बडी शान से समझाता, बुहारने के समय यह इधर-उधर घूमता है और सफाई के बाद घर के किसी कोने में बैठ जाता है। अपनी प्रतिष्ठा का मामला था। अत:  किसी देशभक्त की तरह विचार किया, झाडू अनेकता में एकता का प्रतीक है। एक-एक सींक जब जुडती है, तब जाकर एक मजबूत झाडू का निर्माण होता है। फिर यह कचरे, गंदगी जैसी बुराइयों को बुहार कर दूर करने में सक्षम हो जाता है। यह मायने नहीं रखता कि झाडू किसके हाथ में है। यह जिसके भी हाथ में होता है, उसका सम्मान बढा देता है। तब से लेकर आज तक चिंता में हूं।

यद्यपि मैं अच्छी तरह जानता हूं कि चिंता चिता समान है, पर चिंता है कि जाती ही नहीं है। जब भी मिटने को होती है, घर में जमी धूल से मेरी चिंता के कीटाणु बिलबिलाने लगते हैं। बिगडी चिंता से मन: स्थिति यूं बन आई है कि चहुंओर झाडू दिखने लगा है। बस झाडू, झाडू और झाडू। कहीं लगाते हुए, कहीं भगाते हुए और कहीं दौडाते हुए। कभी लगता है, मैं हाथ में झाडू थामे घर के कोने बुहार रहा हूं।  पडोसियों से छिपता-छिपाता मारे शर्म के धूल के गुबार में छुपने का कोना तलाश रहा हूं। कभी स्थिति यों कि बेशर्म झाडू मेरे सीने और सिर को थपथपा रहा है। जैसे कोई तांत्रिक आंखें  मिलमिलाता  हुआ अटपटे मंत्र उच्चार रहा हो। वह झाडू लहरा-लहराकर भूत भगाने में जुटा है। वह झाडू कभी मेरे सिर पर और कभी सीने पर मार रहा है। कुल मिलाकर मेरी हालत ठीक नहीं। आम आदमी की ऐसी स्थिति विचित्र नहीं तो क्या है भला?

ऐसी बिगडी मानसिकता में बीता शादी का मौसम और दुखी कर गया। रानी का ब्याह हो गया और वह ससुराल चली गई। रानी हमारी आन, बान और शान थी। पडोसियों की जलन का कारण थी। उसके आने से आस-पडोस का पर्यावरण खुशनुमा हो उठता। आधी सफेद हो चुकी खिचडी दाढी पर शेविंग क्रीम लगाते शर्मा जी बाथरूम छोड बैलकनी पर आ जाते। उधर एक दूसरे पडोसी बाहर निकलकर अपने पुराने स्कूटर पर कपडा मारने लगते। मोहन जी का नौजवान छोरा बाहर निकलकर ज्यों ही मुस्कुराता, वे उसे अंदर जाने को कहते और खुद बाहर बिचरने लगते। जाने क्यों रानी को हमारे घर से अगाध प्रेम था। उसके रहने से घर जगमग रहता। जब वह नहीं होती तो हम दिक्कत में आ जाते।

रानी हमारे घर काम करने वाली नौकरानी का नाम है। वह घर के सारे काम करती- कपडे धोना, झाडू-बुहारा, पोछा  लगाना और बर्तन साफ करना। कभी-कभी श्रीमती जी की व्यस्तता को हल्का करते हुए कहती, मेम साब अपने मरद को खाली पेट बाहर नहीं भेजना चाहिए। फिर मेरे लिए गरमा-गरम परांठे  सेंक देती। शायद उसे यह उक्ति मालूम थी- पुरुष  के प्यार का रास्ता पेट से होकर जाता है। रानी की विदाई के साथ हम पुरानी फिल्मों की जुदाई का दर्द झेलने लगे। उसके विदा होते ही आपदा मेरे सिर पर टूटी। मेरे हाथ में झाडू थमा दिया गया। पत्नी जी का कहना था, घर के कुछ काम मर्दो को भी करने चाहिए। अत: प्रतिदिन सुबह हम झाडू थामे घर में विचरने लगते। पत्नी जी दीगर कामों में व्यस्त हो जातीं और मैं चिंतन में डूब जाता.. घर में इतने कोने क्यों हैं? मकडी, मच्छर, काक्रोच और छिपकलियों से रू-ब-रू  होना पडता। हम विवशता में उन पर झाडू पटकते तो पत्नी जी नाराज हो जातीं और झाडू टूट जाने की दुहाई देतीं। मंहगाई  के इस जमाने में झाडू भी सस्ता नहीं रहा, मंहगाई डायन खाए जात है..। यह सब सोचकर अपने आप पर गुस्सा आता। मन होता झाडू अपने ही सिर पर दे मारूं। हाय रानी! तुम कैसे करती थी यह सब? मेरी दुआएं लेती जा..। आज लगता है कि झाडू लगाना किसी कला से कम नहीं। रानी झाडू लगाने की कला में पारंगत थी।

माफ करिएगा, मेरा चिंतन झाडू से हटता ही नहीं, वहीं अटक कर अजीबो-गरीब  दृश्य उपस्थित कर रहा है। मेरे दिमाग में बचपन से जादुई  झाडू की छवि रही है। ऐसा झाडू जिस पर सवार होकर जादूगरनी  बुढिया उडा करती है। मौका मिलते ही बच्चों को उठा ले जाती है। यह बुढिया कई बार किताब से निकलकर मुझे रात में डराती थी। सुबह उठकर देखता कि झाडू तो यथावत कोने में टिका है। बुढिया का कहीं पता नहीं। कुछ बडा हुआ तो झाडू से पडोसी को पिटते देखा। आंटी जी ने अंकल जी को बुरी तरह धो डाला। मालूम न था क्यों? झाड-फूंक में झाडू प्रयोग से ही अच्छे-अच्छे भूत भाग निकलते हैं।

मैं ठहरा गृहस्थ और गृहस्थी  पत्नी की। घर का पानी तो मैं शुरू से भरता रहा हूं।  अपने घर में काहे की शर्म?  फिर भी पडोसी देख न लें, अत: यह काम दरवाजे बंद करके करना पडता। हालांकि  मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। पत्नी जी को कोई ताना न दे कि पत्नी के होते हुए  मरद  पानी भर रहा है, इसलिए ऐसा करना पडता।

वैसे झाडू पूज्य है। कुछ क्षेत्रों में इसे दीवाली के अवसर पर पूजा जाता है। शहर में सफाई व्यवस्था की अलख जगाने के लिए शहर के नेता हाथ में झाडू पकडकर शान से फोटो खिंचवाते हैं। दूसरे दिन जब समाचार पत्रों में छपता है तो चर्चे बन पडते हैं। वे सिरमौर की जगह सिर झाडू  से सम्मानित होते हैं।

आज उम्र के इस पडाव पर मेरे हाथ में झाडू आ गया है। इसलिए मैं भी सम्मानित महसूस कर रहा हूं। वरना कितने साहित्यकार केवल राजनीति और राजनीतिक समाचारों को लपेटकर व्यंग्य का झाडू चलाकर नाम कमा रहे हैं। समाज को व्यंग्य का तमाचा मारकर सुधारने का अर्थ अब नहीं रहा। सब भ्रष्ट राजनीति को झाड-बुहारकर पालने-पोसने और चमकाने में लगे हैं। राजनीति सम्मान जो दिलाती है। साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य का घालमेल मुझे दुखी कर जाता है। इस महादुख में झाडू ही एकमात्र सहारा है। हाय मेरा झाडू और उससे जन्मा यह चिंतन तुम्हें कोटिश:  नमन।

राकेश सोहम्


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