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जीवन में फेसबुकिया लफड़े

आप असल जिंदगी में सोशल हों या न हों, पर वर्चुअल व‌र्ल्ड में सोशल नेटवर्क पर आपकी मौजूदगी बहुत जरूरी है। ऐसी स्थिति में आप सिर्फ आउटडेटेड ही नहीं समझे जाएंगे, बल्कि इंसानियत के बदलते तेवरों से भी परिचित नहीं हो पाएंगे।

By Edited By: Published: Sat, 02 Aug 2014 11:36 AM (IST)Updated: Sat, 02 Aug 2014 11:36 AM (IST)
जीवन में फेसबुकिया लफड़े

कई बार दिल में तमन्ना होती है जुकरबर्ग से मिलने की, पर जानता हूं अपन जैसे प्राणी से इंडियन आइटी एक्सपर्ट ही मिल ले तो बडी बात है। उसे भला कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल के अलावा किसी और से क्या मतलब! हम भारतीय कुछ मामलों में बडे सेंटिमेंटल और क्रिएटिव हैं। जैसे देश में प्रधानमंत्री एक बनता है और जो बनता है वह कई साल चलता है, पर हर विद्यार्थी यह निबंध जरूर लिखता है कि यदि वह देश का प्रधानमंत्री होता तो क्या करता।

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आप सोच और कल्पना के पॉजिटिव थिंकिंग की ऊंचाई इस उदाहरण में देख सकते हैं। इसी तरह जुकरबर्ग से मिलने की हसरत भी अपने आपमें पॉजिटिव थिंकिंग का एक नायाब नमूना है। इसका कारण जल्दी बता देने में वह मजा नहीं रहेगा जो इसे कोल्ड ड्रिंक की तरह सिप करते हुए एक-एक बूंद पीने में मिलेगा। खैर साहब जुकरबर्ग जी से भले ही हम न मिल सकें, पर उन्होंने दुनिया को मिलने-जुलने का एक नायाब और नया तरीका जरूर दे दिया है। अगर मुझे दुनिया देखनी हो तो मैं इसे फेसबुकिया अंदाज में बांट दूंगा। एक वह जो फेसबुक से पहले थी और एक वह जो फेसबुक के बाद है। एक वह जिनकी फेसबुक आइडी है और दूसरे वे जिन्हें इसका कुछ पता ही नहीं है। वैसे मैं जुकरबर्ग भाई साहब से बस यह पूछना चाहता हूं कि फेसबुक बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, तूने काहे को सोशल साइट बनाई। सीधे शब्दों में कहूं तो पूछूंगा - दोस्त तुमने सोशल लाइफ को सोशल साइट में क्यों बदल दिया? आज आलम यह है कि बंदा वर्षो घर में नजर न आए, फेसबुक पर हर पल उपलब्ध है। मां-बाप को बेटे का शिड्यूल नहीं पता, पर साइट पर अपडेट है कि जनाब सुबह मुंबई में थे और शाम को गोवा में बैठे हैं। किसकी लाइफ में क्या चल रहा है, यह देखने के लिए उसे घर में नहीं सोशल साइट पर फॉलो करना पडता है।

तमाशा तब खडा होता है जब मजाक का लेवल हाई क्लास हो और दो तीन स्मार्ट टाइप के लोग किसी कमेंट पर कमेंट कर रहे हों। दोस्त भी जाना पहचाना हो और बात का ओर-छोर न मिल रहा हो। साथ में खडा कोई प्राचीन टाइप (तकनीक से अनभिज्ञ) का दोस्त कभी इसका मुंह देखे तो कभी उसका और बाद में पता लगे कि सबके सामने उसका ही बकरा बन रहा है। कोई ज्ञानी टाइप का बच्चा मिल जाए तो उसे बता सकता है अंकल ये लोग फेसबुक पर लगी दोस्त के साथ आपकी पुरानी फोटो पर आए कमेंट्स का कार्टून खींच रहे हैं। सच पूछिए तो आजकल पब्लिक में हुई बेइज्जती लोगों के लिए उतना मायने नहीं रखती, जितना साइट पर हुई खिंचाई। मुझे याद है, पहले लोग मिलते-जुलते थे और आपस में किसी के बीच कहासुनी हो जाए तो टेंशन में आ जाते थे। आजकल तो मेल मिलाप सब नेट पर ही हो जाता है। अर्थ यह कि रीअल व‌र्ल्ड का पता ही नहीं और वर्चुअल में बंदा दुनिया में न जाने किस किससे जुडा है। रीअल लाइफ में देखें तो दोस्तों का पता नहीं और साइट खोलते ही लोगों के पास फ्रेंड रिक्वेस्ट की भरमार है। अब किसी के मूड का सेट और अपसेट होना देखना है तो उसकी प्रोफाइल और टाइमलाइन देख डालिए, पता चल जाएगा। मुझे हंसी तब आती है, जब साइट पर्सनल है और लाइफ के सारे पासवर्ड किसी मेल सेवा सर्विस प्रोवाइडर के पास हैं। जिस खिडकी में आपके अपने करीबी नहीं झांक सकते, उस दरवाजे की दीवार (वाल) तोड कर दुनिया आपकी हर एक्टिविटी देख रही है। वर्चुअल व‌र्ल्ड में आज हर एक फ्रेंड जरूरी होता है तो रीअल व‌र्ल्ड के लिए फ्रेंड की नई डेफिनिशन यंग जेनरेशन की मूवी ने हर एक फ्रेंड कमीना होता है कह कर दे डाली है। मैं लेखक होकर करूंगा क्या? समाज में जो साहित्य वर्जित है, फेसबुक पर सुसच्जित है। नतीजा यह कि लाइफ में ओरिजिनल लफडे हों न हों, फेसबुकिया लफडे खूब हैं। ताजा वाकया मेहरा जी का है। जाने क्या सूझी, दोस्तों के बहकावे में आकर फेसबुक पर प्रोफाइल बना डाली। शांत चल रही जिंदगी में देखते-देखते तूफान आ गया। अब हाल यह है कि अपनी जिंदगी के लफडे सुलझाने में झाड-फूंक आजमा रहे हैं। वर्चुअल व‌र्ल्ड का आलम यह है कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम। जनाब घर के रहे न घाट के। पता नहीं कहां कहां से फ्रेंड रिक्वेस्ट आ गई और कॉमन फे्रंड की भरमार में वे खुद खो गए। इस लफडे में अभी मुझे एक नया ज्ञान मिला, किसी ने लिखा - भाई साहब कोई भी आदमी इतना बदसूरत नहीं होता जितना वह वोटर आइडी कार्ड में दिखता है और न ही इतना खूबसूरत जितना फेसबुक प्रोफाइल में। मैंने कहा - दोस्त अपनी बात का अर्थ गहराई से बताओ। क्योंकि सोशल साइट का फंडा मेरी उम्र और समझ से बाहर की चीज है। मुझे तो ये इंटरनेट-मोबाइल सब बच्चों के खेल लगते हैं, जैसे हम बचपन में लूडो या सांप-सीढी खेलते थे।

वह बोला, फेसबुकिया कमेंट्स की गहराई समझना चाहो तो मैं दो शब्द कह सकता हूं। रही बात सोशल मीडिया को खेल समझने की तो यह गुस्ताखी तुम कर सकते हो, मैं नहीं। इतना सुनते ही मैं सकते में आ गया। मैंने सोचा इस युग में नेटवर्किग रिलेटेड जो ज्ञान मुफ्त मिल जाए, समेट लो। वर्ना आज के जमाने में कोई कुछ बताना कहां चाहता है। वह दिन दूर नहीं जब नेविगेटर के बिना किसी का घर ढूंढना नामुमकिन होगा, भले आप ठीक उसके फ्लैट के नीचे खडे हों। मेरे चेहरे पर अज्ञानता व जिज्ञासा के भाव ताडते ही वह बोला, दोस्त आजकल फेसबुक पर शादी के किस्से आम हो गए हैं। छोरा हरियाणा का और छोरी उज्बेकिस्तान की, जिसने जिंदगी में कभी हिंदी बोली न सुनी हो। अचानक गांव में घूंघट डाले बहू बनी घूमती फिरती है। ठेठ हरियाणवी में सासू मां की पैलगी करके। वैसे ही घर वाले बेटे की पीठ थपथपाते घूमते फिरते हैं कि कैसे कहीं गए बिना वह विलायती बहू ले आया।

ठीक ऐसे ही ढेरों तलाक देखने को मिल रहे हैं, फेसबुकिया शादी के साइड इफेक्ट्स में। पता चला जिस फोटो को लडके ने लाइक करके दुलहनिया को पसंद कर शादी का प्रपोजल भेजा वह ओरिजिनल थी ही नहीं। अब छोरा हर ऐंगल से फोटो लेकर फेसबुक वाले फोटो से मैच कर रहा है और सदमे में घिरता जा रहा है। अचानक पता चला लडके ने फ्रॉड का केस फाइल कर दिया है। वहीं जागरूक लडकियां भी लडकों को परखने के लिए इसे टूल बना कर यूज कर रही हैं। घर वाले जिस लडके को संस्कारी समझ कर दामाद बनाने को आतुर हैं, बेटी उसकी फेसबुकिया जन्मपत्री निकाल कर बता देती है - पापा इसके तो दसियों अफेयर झटके खा रहे हैं, यह शादी क्या निभाएगा?

यह सोशल मीडिया किसी घनचक्कर और भानमती के पिटारे से कम नहीं है। इसमें बातों के जाल जितने मोहक हैं हकीकत की दुनिया उसके ठीक उलट। सच कहूं तो फेसबुकिया शराफत मिनट भर में दम तोड देती है। यदि आपको लगता है कि नेट यूजर बडे सुसंस्कृत होते हैं तो आप गलतफहमी में जी रहे हैं। उनके कमेंट्स और व्यंग्य वाण अपनी पकड से ऊपर होते हैं। फ्रस्ट्रेशन भी दादा-दादी के जमाने से कहीं बडा है। कुछ तो नेटवर्किग साइट्स को फोर्टी प्लस की बीमारी बताते हैं। जो अपने बीसियों साल से कभी न मिले कॉलेज फ्रेंड्स के साथ नॉस्टैल्जिया में जीते हैं, अपनी असली खूबसूरत जिंदगी छोडकर। आलम यह है कि जो सामने है, उसे बुरा कहते हैं और जिसे देखा ही नहीं उसे खुदा कहते हैं।

जब रोमानियत का हकीकत से सामना होता है तो होश फाख्ता होते देर नहीं लगती। पर करें तो क्या करें, अपने ही दिल के हाथों मजबूर टाइप के लोग हैं ये। बहुत से लोग सोशल मीडिया को वैश्विक चौपाल बताते हैं, बगैर यह जाने और समझे हुए कि इस सागर में सीप जैसी हर आत्मा प्यासी और अतृप्त है। जो स्वच्छ जल नहीं मायावी दुनिया के नशे में जीवन के सुख ढूंढ रही है। खैर किसी को सलाह देने से पहले आईना अपने आगे रखना बेहतर होता है। सो एक शेर अर्ज है- हमको मालूम है जन्नत (फेसबुक) की हकीकत लेकिन दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है बाकी जीवन में फेसबुकिया लफडों में उलझे लोगों के साथ मेरी पूरी सहानुभूति है।

मुरली मनोहर श्रीवास्तव


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