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कोपभवन का वास्तु

सुख सभी चाहते हैं, लेकिन दुख को जीवन से पूरी तरह निर्वासित तो किया नहीं जा सकता। ठीक इसी तरह चाहते तो सभी प्रेम ही हैं, लेकिन क्रोध से बचने का कोई उपाय तो है नहीं। अब जब क्रोध आ जाए और यह जताना भी जरूरी हो तो क्या किया जाए? पुराने जमाने में तो कोप भवन होते थे, अब लोगों को खुले मैदान में जाकर बैठना पड़ता है। क्या ही बेहतर हो कि एक बड़ा कोप भवन बनाने के लिए उसके वास्तुविधान पर विचार किया जाए!

By Edited By: Published: Fri, 06 Jun 2014 02:12 PM (IST)Updated: Fri, 06 Jun 2014 02:12 PM (IST)
कोपभवन का वास्तु

कुछ निष्कर्षवादी विद्वानों ने न जाने किस आधार पर धारणा बना दी कि भगवान राम के वनवास और उसके बाद के घटनाक्रम के लिए महाराज दशरथ के राजमहल का वास्तु जिम्मेदार था। उनकी मानें तो महल में न तो कोपभवन होता और न ही भगवान राम को वनवास होता। नतीजा यह हुआ कि उसके बाद फ्लैटों की तो बात ही छोड दें, बडे-बडे बंगलों, कोठियों तथा महलों से भी कोपभवन की अवधारणा समाप्त हो गई। सच तो यह है कि राम के साथ कोपभवन को भी वनवास मिल गया - सदा के लिए। समस्या यह है कि कोपभवन तो खत्म हो गए, पर कोप बढता गया। नतीजे सारा देश भुगत रहा है। कोप प्रदर्शन के लिए लोगों को घर छोड बाहर आना पड रहा है। धरना देने के लिए बंगले में कोपभवन नहीं मिलता तो सडकों पर बैठ जाते हैं।

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यदि मैं पौराणिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के सूक्ष्म तथ्यों को जान कर बडा विद्वान बन पाया होता तो महाराज दशरथ के महल के वास्तुकार को नाम लेकर प्रणाम करता। आज यह कमी चुभ रही है। फिर भी, उस अज्ञात सिविल इंजीनियर वास्त्वाचार्य के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित किए बिना नहीं रह पा रहा हूं। ऐसे भवन की परिकल्पना बाद की किसी भी पीढी और सभ्यता में नहीं मिलती। मिस्त्र के पिरामिड और आइफेल टॉवर खडा कर देने वाले अभियंता तथा वास्तु व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध मोहनजोदडो की सभ्यता को विकसित करने वाले भी कोप के लिए एक कमरा तक नहीं बना सके। हालांकि इतने परहेज के बाद भी नष्ट होने से बच न सके। राजमहल के जिस वास्तु पर गहरा शोध होना चाहिए था, उस पर विहगावलोकन की भी जहमत किसी ने नहीं उठाई। तथ्यों की तो बात ही क्या, उस वास्तुकार के विषय में किंवदंतियां भी नहीं छोडी गई। गौर करने की बात है, महल चक्रवर्ती सम्राट दशरथ का था तो वास्तुकार भी छोटा तो रहा नहीं होगा। अजा-प्रजा चाहे कुछ भी कहे, महाराज दशरथ ने उस महान वास्तुकार को एक भी अपशब्द नहीं कहा। उन्होंने तो उसका नाम तक नहीं लिया। प्रजा तो होती ही ऐसी है। राजा-महाराजाओं, अफसरों और मंत्रियों को हर छोटी-बडी बात के लिए जिम्मेदार ठहराए बिना उसे चैन ही नहीं पडता। निस्संदेह, कोपभवन रामायण काल तक के वास्तु विज्ञान का महत्वपूर्ण अंग था। हालांकि श्रुति परंपरा होने के कारण इस पर लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। कोपभवन महल के किस कोने में होता था, कितना बडा होता था, इसका दरवाजा किस मुंह खुलता था, ये सभी तथ्य अज्ञात हैं। अपने यहां इतिहास होते हुए भी इतिहास के लेखन की कोई परंपरा नहीं रही। जिन्होंने अपना कोई इतिहास न होते हुए भी इतिहास लिखा, वे भी कोपभवन के वास्तु के विषय में चुप्पी लगा गए। और तो और, दुनिया भर का इतिहास लिखने वाले अंगे्रजों ने भी इस पर कुछ लिखना ठीक नहीं समझा। अत: इसके वास्तु पर रामकथा के आधार पर कुछ अनुमान लगा लेना ही एकमात्र उपाय है। वर्तमान वास्तुज्ञान के आधार पर महाराज दशरथ के कोपभवन का वास्तु कुछ इस प्रकार बनता है।

निश्चित रूप से कोपभवन महल का एक अलग खंड रहा होगा। संभवत: यह महल के दक्षिणी या पश्चिमी कोने पर रहा होगा और इसका दरवाजा भी दक्षिण दिशा में ही खुलता होगा। इसमें कोई खिडकी-रोशनदान नहीं रहा होगा। क्योंकि इससे कुपित व्यक्ति के बाहर से दिख जाने का खतरा होता। वातानुकूलन की कोई व्यवस्था रही हो तो कहा नहीं जा सकता। इसमें प्रकाश का न होना आवश्यक रहा होगा। इसमें प्रवेश के भी कुछ नियम रहे होंगे। इसमें जाने वाले/वाली के फटे-पुराने कपडे तथा बालों का अस्त-व्यस्त होना भी एक जरूरी शर्त रही होगी।

वैसे ये सारे अनुमान गलत भी हो सकते हैं, पर अनुमान के अलावा कोई और चारा तो है नहीं। हालांकि अब वास्तु के बढते महत्व को देखकर आस जगी कि क्या पता कोपभवन के दिन फिर बहुरें! आखिर ज्ञानी लोग वास्तु से तकदीरें बदल रहे हैं। देशी वास्तुशास्त्र से लेकर चीनी फेंगशुई तक के नुसखे आजमाए जा रहे हैं और जिंदगियां बदली जा रही हैं। चीनी खिलौने और फेंगशुई देश की जनता का समय सहज ही काट रहे हैं और महंगी सफलता अफोर्डेबल कीमत पर दिला रहे हैं। अगर नींद ज्यादा आए तो बेड का सिरहाना इस कोने होना चाहिए और कम आ रही है तो उस कोने। रात में बार-बार उठना पडता है तो घर के इस कोने में वास्तुदोष है और अगर उठना ही नहीं पडता तो उस कोने में। यह सब उपाय बडे मनोयोग से किए जा रहे हैं, परंतु कोपभवन का कहीं कोई जिक्र नहीं है। पति महोदय हरी मिर्ची लाना भूल गए और पत्नी को क्रोध आए, तो कहां जाए? दाल में नमक कम पडा हो और गुस्सा दबाया न जा सके तो बेचारा पति कहां जाकर सिर पटके? इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं। जबकि ये समस्याएं कोई वार्षिक या द्विवार्षिक नहीं, दैनिक हैं।

यह भी संभव है कि कोपभवन होने से घर में क्रोध जैसी स्थिति आती ही न रही हो। उसका अपना अलग वास्तुगत प्रभाव रहा हो। माता कैकेयी की बात छोड दें तो महाराज दशरथ के महल में किसी और के क्रोध का प्रमाण नहीं मिलता। जबकि उनकी तीन रानियां थीं। आज जब किसी के घर में कोपभवन नहीं है और पत्नी भी एक ही है, तब भी हुंकार-फुंकार के उदाहरण दिनचर्या में शामिल हैं।

दरअसल, कोपभवन को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखना चाहिए। जैसे हमें बोलने-बतियाने, गाने-बजाने, रोने-हंसने, नाटक और राजनीति करने की स्वतंत्रता प्राप्त है, वैसे ही क्रोध करने की स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए। यह तो प्राणिमात्र का जन्मजात गुण है और प्रकृति प्रदत्त है। क्रोध को प्रकट न करना या प्रकट करने का अवसर न देना प्रकृति का अपमान है, मानवीय स्वभाव का अपमान है।

घर में कोपभवन न होने से लोग इन प्रवृत्तियों के प्रदर्शन के लिए विकल्पों की तलाश करने लगे हैं। परिणाम यह हुआ है कि राजपथ, जनपथ और जंतर-मंतर कोपभवन में तब्दील होने लगे और अब तो ये पूर्णकालिक रूप से कोपभवन की भूमिका में हैं। जिसे भी नियम-कानून, घटना-दुर्घटना, सरकार की नीतियों-रीतियों से नाराजगी या कोई स्वार्थ सिद्ध न होने की हताशा होती है, वही जंतर मंतर या बोट क्लब जैसी जगह को कोपभवन बना लेता है। सच कहें तो जंतर मंतर देश का केंद्रीय सामूहिक कोपभवन है। जिन लोगों की पहुंच यहां तक नहीं होती, वे अपने आसपास की सडक या रेल पटरी को ही कोपभवन बना लेते हैं। यह बात अलग है कि कोपभवन में बैठे लोगों को मनाने अब राजा नहीं जाते। वे अपने मंत्रियों तक को नहीं भेजते। मनाने जाओ तो कोप करने वालों का मान बढता है। पानी नाक से ऊपर गुजरने लगे तो पुलिस जरूर भेज देते हैं। वह संभाल लेती है। उसे तो ऐसे लोगों से निपटने का प्रशिक्षण नौकरी लगते ही दे दिया जाता है। पुलिस को देखते ही सारी नाराजगी दूर हो जाती है। नहीं दूर होती तो इलाज के लिए अस्पताल अपनी गाडी से भिजवा देती है।

सार्वजनिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में तो कोपभवन का होना परमावश्यक है। राजनैतिक जीवन में कोपोत्पन्नता की स्थिति बार-बार आती है। खासकर आम चुनावों के समय तो कोपभवन की आवश्यकता और महत्ता बहुत ही बढ जाती है। अपनी ही पार्टी से मनोवांछित टिकट न मिलने पर नेताओं को नाराज होना पडता है। पार्टी कार्यालयों में कोपभवन न होने से कुछ दिन वहीं रुककर कोप दिखाने का स्कोप ही नहीं बनता। लिहाजा ऐसे टिकटहीन नेता दूसरी पार्टी का रुख करते हैं, जिससे दल-बदल जैसी समस्या उत्पन्न होती है। पार्टियों को चाहिए कि कोपभवन के वास्तुप्रभाव का ट्रायल करें, दल-बदल की समस्या से मुक्ति मिलेगी।

कोपभवन की कमी निजी जीवन में कितनी खल रही है, इस पर मैं चिंता की हद तक सोचे जा रहा था। परंतु, सौभाग्य से मेरे एक बौद्धिक मित्र संकट की उस घडी में तारनहार बनकर प्रकट हुए। जब उनके सामने प्रश्न रखा गया तो उन्होंने सदा की भांति गंभीरता की चादर ओढी और बोले, भाई, प्रश्न आपका नया और महत्वपूर्ण है। परिस्थिति बदली है। जिस कोपभवन की बात आप कर रहे हैं, वह त्रेता युग की बात है। तब कोपभवन वास्तु का एक हिस्सा हुआ करता था और उसमें मनुष्य अपना क्रोध प्रकट कर लेता था। बाहरी कोपभवन से काम चल जाता था। अब कोपभवन बाहर से अंदर आ गया है। हर आदमी के अंदर एक नहीं, अनेक कोपभवन बन चुके हैं। माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, देश, समाज, धन-संपत्ति और व्यवस्था को लेकर वह हमेशा कोपभवन में घुसा पडा है। उसका अधिकांश समय अपने अंदरूनी कोपभवन में ही बीतता है। तब माता कैकेयी को एक भरत के लिए राज्य चाहिए था और एक राम को वनवास। अब तो उनके बहुत सारे भरत हैं और सबके लिए राज्य चाहिए। भरत मना करें तो उनके विरुद्ध भी कोपभवन चाहिए। राम को हमेशा के लिए वन भेजकर ही मानना है। दूसरे, आज के महाराज दशरथ मनाने आते नहीं। अत: कोपभवन में प्रवेश का द्वार तो दिखता है, निकास का नहीं। आपको नहीं दिखता कि सभी अपने-अपने अंदरूनी कोपभवन में पडे हैं? बाहरी कोपभवन तो वही बनवाएगा जो अंदरूनी कोपभवन से बाहर निकलेगा। सच यह है कि कोपभवन का अस्तित्व नहीं समाप्त हुआ है, केवल उसका वास्तु बदला है। मुझे लगा कि मैं खुद अपने बनाए कोपभवन में प्रवेश करता जा रहा हूं।

हरिशंकर राढी


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