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झूठ बोले कौआ चूमे

सदैव सत्य बोलना चाहिए, लेकिन ऐसा सत्य जो प्रिय भी हो। मुश्किल यह है कि ऐसा सच लाएं कहां से इससे तो बेहतर है कि झूठ की ही सेवाएं सहर्ष स्वीकार की जाएं!

By Edited By: Published: Sat, 01 Feb 2014 02:19 PM (IST)Updated: Sat, 01 Feb 2014 02:19 PM (IST)
झूठ बोले कौआ चूमे

झूठ बेचारा तो बस यूं ही बदनाम है। वैसे झूठ इतना भी बुरा नहीं है, जितना उसके बारे में अफवाहें उडा दी गई हैं। कहते हैं बद अच्छा बदनाम बुरा। यही बात झूठ के मामले में भी है। बेचारा झूठ बदनाम जरूर है, मगर बद रत्ती भर भी नहीं।

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झूठ की सबसे पहली खासियत  तो यह है कि वह कडवा नहीं होता, जबकि सच हमेशा कडवा होता है। और मीठा किसे पसंद नहीं? हम सारा जीवन मिठास के पीछे मारे-मारे फिरते हैं। वाणी चाहिए तो मीठी.. व्यवहार चाहिए तो मधुर.. स्वभाव चाहिए तो मीठा..। और तो और, हमारी मिठास-प्रिय संस्कृति में मधुरता को इतना महत्व प्रदान किया गया है कि डायबिटीज जैसी नामुराद बीमारी का भी क्या मधुर नाम रखा गया है- मधुमेह। ऐसा लगता है जैसे किसी चंद्रबदन  सुंदरी का नाम हो।

इसलिए कडवा सच किसी को नहीं सुहाता। सभी मीठे झूठ पर जान-ओ-दिल से फिदा होते रहते हैं। किसी के सामने सच-सच कहकर देखिए.. अगला हाथ धोकर क्या, बल्कि नहा-धोकर पीछे पड जाता है। वहीं दूसरी ओर शुद्ध झूठ का तडका लगाकर तारीफ परोसिए.. अगला आपको हथेलियों पर लिए घूमेगा।

वास्तव में झूठ बोलना भी एक कला है। यह ऐसे ही नहीं आती। इसके लिए पहले योग्य गुरु की तलाश करनी पडती है। फिर गुरु के साथ नित्य लगनपूर्वक रियाज करना पडता है। तब कहीं जाकर इसकी स्वर लहरियों को साधने में कुशल हुआ जा सकता है। सच बोलने में तो कोई जोर ही नहीं लगता। जो जैसा है.. ज्यों का त्यों कह दो.. बस हो गया सच..। असली कारीगरी तो तब है, जब राई का पहाड और पहाड की राई बना दी जाए। मनुष्य की कल्पना, अभिव्यक्ति, स्मृति एवं संप्रेषणीयता आदि क्षमताओं की असली परीक्षा तो झूठ बोलते समय ही होती है। सैकडों बहाने ढूंढने पडते हैं, हजारों बातें बनानी पडती हैं, लाखों चीजें याद रखनी पडती हैं और सामने वाले को कायल भी करना पडता है। सच का क्या है.. एक बार बोला.. बस फिनिश..। मगर एक झूठ के लिए हजार झूठ और बोलने पडते हैं। हैं किसी और कला में इतनी असीम संभावनाएं..?

झूठ जब अत्यंत उत्कृष्ठ  कलात्मकता के साथ बोला जाता है, तो वह कविता कहलाता है। काव्यात्मक अभिव्यक्तियां  अधिकांशत या झूठ के उच्च कोटि के उदाहरण ही प्रस्तुत करती हैं। इनकी चरम परिणति नायिका सौंदर्य वर्णन में उपस्थित होती है। नायिका के नखशिख  वर्णन के लिए जितनी उपमाएं, जितने रूपक और जितनी उत्प्रेक्षाएं  जुटाई जाती हैं, झूठी प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं होतीं। मुख को कमल, बालों को मेघ, भवों  को धनुष, नाक को सुग्गे  की चोंच, होंठों को बिम्ब फल, दांतों को मोतियों की लडी, गर्दन को शंख, बांहों को लता, नखों  को कुंदकली, चरणों को पल्लव आदि कहना असत्य कथन की पराकाष्ठा नहीं है तो और है क्या? इनसे तो ऐसा लगता है कि नायिका बेचारी नायिका न हुई, बल्कि फलों, फूलों, रत्नों और तरह-तरह के उपकरणों आदि से भरी हुई टोकरी हो गई। कविता में अतिशयोक्ति अलंकार झूठ का सर्वाधिक संपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। अतिशयोक्ति का अर्थ ही है-अतिशय उक्ति अर्थात बढा-चढाकर कहना। महाकवि जायसी पद्मावती  की केश राशि का चित्रण करते हुए कहते हैं कि जब वह अपनी वेणी को खोलकर बालों को झाडती है तो स्वर्ग-पाताल सभी जगह अंधेरा छा जाता है-

बेनी खोल झारु  जौ बारा।

सरग-पतार होहि  अंधियारा।।

अब आप ही बताइए.. घने से घने केशों वाली सुंदरी अगर अपने बाल फैला दे तो कमरे तक तो में अंधेरा घिरता नहीं, यहां स्वर्ग-पाताल तक को अंधेरे में डूबते दिखाया जा रहा है। यह 24  कैरेट का प्योर  झूठ नहीं तो और क्या है?

अपने फिल्मों वाले भी इस प्रकार के असत्य संभाषण से अछूते नहीं रहे हैं। पिछली शताब्दी के एक प्राचीन चलचित्र कश्मीर की कली में स्वर्गीय श्री शम्मी  जी कपूर श्रीनगर की डल झील में डावांडोल  होती किश्ती में हिचकोले खाते हुए शर्मिला जी टैगोर  के सौंदर्य की स्तुति में गाते हैं- यह चांद सा रोशन चेहरा, जुल्फों का रंग सुनहरा, यह झील सी नीली आंखें, कोई राज है इनमें गहरा.. तारीफ करूं क्या इसकी जिसने तुम्हें बनाया.. और उधर दूसरी तरफ किश्ती में काले बालों और भूरी आंखों वाली शर्मिला जी शर्मा-शर्मा कर इस सफेद झूठ पर गद-गद होती जा रही हैं।

झूठ की दुनिया का एक खास मानदंड है। वह यह कि झूठ जितना सफेद होता है, उसे उतना ही उच्च श्रेणी का माना जाता है। आप तो जानते ही हैं कि केवल हमारे ही यहां नहीं, कई दूसरे देशों में भी सफेद रंग को शांति, स्वच्छता, बुद्धिमानी, वरिष्ठता एवं गरिमा का प्रतीक माना जाता है, तो फिर सफेद झूठ क्यों न वंदनीय, आदरणीय, पूजनीय हो?

सच तो यह है कि दुनिया के किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का आधारभूत तत्व भी झूठ ही है। व्यापार-कारोबार आदि इसके बिना चल ही नहीं सकते। क्या कभी कोई व्यापारी आपको बताता है कि उसके द्वारा आपको बेची जा रही वस्तु का वास्तविक लागत मूल्य क्या है और वह आपसे कितना मुनाफा ऐंठ रहा है?

और यह जो दिन-रात आपके मन-मस्तिष्क को जादू की झप्पी मिल रही है.. वह भी झूठ का एक प्यार भरा रूप ही है। कोई अपनी क्रीम से रंग बदल देने की बात कर रहा है तो कोई कह रहा है कि हमारे साबुन से नहाइए.। यह चेहरे ही नहीं सारे शरीर को निखार देगा। बडी-बडी सुंदरियां सौंदर्य प्रसाधनों को अपनी सुंदरता का राज बता रही हैं तो बडे-बडे खिलाडी अपनी श्रेष्ठता का श्रेय अभ्यास के बजाय टॉनिकों-टैब्लेटों को दे रहे हैं। कोई बिना व्यायाम मोटापा घटा रहा है तो कोई बालों को स्टील के तारों जितना मजबूत बनाए दे रहा है। किसी को ब्रह्मांड के चप्पे-चप्पे में कीटाणु ही कीटाणु नजर आ रहे हैं तो कोई दांतों को लोहे के चने चबाने लायक बना देने के दावे कर रहा है।

राजनीति की गाडी तो तब तक चलने किसी तरह लायक ही नहीं होती, जब तक उसके टायरों में झूठ की हवा न भरी जाए। राजनेता बडी-बडी घोषणाएं और बडे-बडे वायदे करते समय झूठ की सेवाएं सहर्ष स्वीकार ही नहीं करते, उसे बाकायदा निमंत्रण देकर बुला लाते हैं। चुनाव से पहले किए गए सौ दावों में से अट्ठानवे झूठे साबित होते हैं, परंतु इन सब्जबागों  की हरियाली ज्यादातर  उनके आंगन में ही बहार लेकर आती है।

झूठ की महिमा पर वैसे तो अनेक व्यर्थशास्त्र, और अनर्थ शास्त्र लिखे जा सकते हैं, परंतु विवशता है कि यहां स्थान एवं समय की कमी है। अत: थोडा कहा-बहुत समझना की तर्ज पर अब यह असत्य स्तुति समाप्त करने का समय आ गया है।

वैसे अब तो आप मान ही गए होंगे कि सत्य की श्रेष्ठता सिद्ध करके जो महान कहलाए वे वास्तव में सत्य के कारण नहीं, बल्कि इस असत्य के कारण महान बने हैं कि सत्य श्रेष्ठ है।

डॉ. राजेंद्र साहिल


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