आराम हराम है
देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने नारा दिया था, आराम हराम है। इसे अपनाया तो सबने, पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसके अर्थ भिन्न हैं। अलग-अलग संदर्भो में ये भिन्न अर्थ।
नेहरू जी सिर्फ स्वप्न-दृष्टा ही नहीं, देश की वास्तविकता से भी जुडे हुए महापुरुष हैं। तभी तो उन्होंने आराम हराम है की गुहार लगाई। संभव है, उनका आशय मुल्क के रचनात्मक विकास में जुडे अफसर-इंजीनियरों से रहा हो। पर कोई भी युगपुरुष जो सोचता है, वह पूरे देश पर लागू होता है। हम इसके भुक्तभोगी हैं। दफ्तर में कूलर है, कैंटीन है। वहां का माहौल कूल है। हमारी कर्तव्यनिष्ठा इतनी प्रबल है कि हम घर जाने से कतराते हैं। कार्य की हमारी इस लगन से दफ्तर में हडकंप है। श्रेष्ठ कर्मचारी का इनाम हमें कई बार मिल चुका है। कैंटीन का मैनेजर हमारी स्थायी उपस्थिति का ऐसा मुरीद है कि उसने पूरी एक टेबल हमारे लिए आवंटित कर दी है। कुछ साथी इससे खिन्न हैं। उनकी शिकायत है कि कहां-कहां आरक्षण होगा? आज कैंटीन में है, कल क्या कार की बारी है?
भारत इसीलिए महान और सफल लोकतंत्र है क्योंकि यहां हर छोटे-बडे विषय पर विवाद सिर्फ संभावना ही नहीं, जमीनी सच भी है। कैंटीन में हमारी मेज नियत होने के पक्षधर भी हैं। उनका तर्क है कि आरक्षण योग्यता को प्रश्रय देने का कारगर साधन है। जो इंसान कैंटीन के पर्याय बनने की पदवी पा चुका है, उसके लिए वहां स्थाई स्थान न होना हद दर्जे की नाइंसाफी है। कई बार अधिकारियों से हमारे पक्ष-विपक्ष में साथी फरियाद कर चुके हैं। विपक्षियों का दावा है कि यह कर्मचारी कार्यालय में कम कैंटीन में ज्यादा पाया जाता है। अधिकारी बहुधा उनसे पूछते हैं कि दफ्तर से वह कब विदा होते हैं? अधिकतर का उत्तर है कि दफ्तर बंद होने पर पलायन उनकी विवशता है। यदि चार्टर्ड बस छूट गई तो बस-स्टैंड पर टंगे रह जाएंगे। वह कभी दिल पर हाथ रखें तो पाएं कि उनका आधा दिन दफ्तर के बाहर बीतता है। कभी सामाजिक संपर्क निभाने, तो कभी घर की खरीद-फरोख्त दरख्वास्तियों से करवाने में। ऐसे ईमानदार हैं। उनका यकीन नकद में न होकर घर के मुफ्तिया-फ्री फंडिया सामान में है। कौन नोट लेकर हाथ काले करे? जाने किस नोट में निगरानी संस्था की अदृश्य-स्याही की साजिश हो? इसके खतरे ही खतरे हैं। जेल जाने से लेकर कोर्ट के चक्कर लगाने तक। इससे भी बडा, निगरानी संस्था की सतत वसूली का है। जो फंसा है, उससे वसूली कर वह भ्रष्टाचार को जड से मिटाने के अपने विभागीय लक्ष्य को हासिल करते हैं। कानून तो करप्शन का दंड सालों साल तक नहीं दे पाता, इनकी अनौपचारिक सजा तत्काल लागू हो जाती है।
हर सरकारी दफ्तर में कैंटीन-गमन राम-सीता के वन-विचरण सा सत्य है। ऐसे कई हैं जो अधिकारी के पास खुद-ब-खुद हमारा पक्ष रखने पहुंच जाते हैं। वह कहते हैं कि बिना ईधन गुजारा नहीं है। चूल्हे का ईधन गैस है, कार का पेट्रोल। काम के बोझ से थके-हारे दिमाग का सहारा कैंटीन का चाय-समोसा है। कैंटीन कार्यक्षमता के लिए लाजमी है। जो काम नहीं करते, वे कैंटीन भी नहीं जाते। ऐसों से हर दफ्तर को सावधान रहना चाहिए और अधिकारी को चौकस। इनका इकलौता काम कार्य-समर्पित कर्मचारियों के विरुद्ध अफसर के कान भरना है। जितना दफ्तरों में काम होता है, उसी अनुपात में देश का विकास। गंभीरता से विचार करें तो ऐसे लोग दफ्तर ही नहीं, देश के भी दुश्मन हैं। इनको अपने से दूर रखना हर जिम्मेदार भारतीय का दायित्व है। लोकतंत्र में बहुमत की सुनवाई है। इसमें केवल संख्या-बल का इंसाफ चलता है। जाहिर है कि संख्या बल भी हमारे साथ है और अफसर भी। अपन कैंटीन में ऐसी चैन की बंसी बजाते हैं कि घर जाने का मन ही नहीं होता।
हम अपनी कार्यकुशलता का पूरा श्रेय पत्नी को देते हैं। न वह घर में हमारा आराम हराम करतीं न हम कैंटीन की मेज-कुर्सी के समान कार्यालय की टिकाऊ उपस्थिति बनते। हमारा सौभाग्य है कि अधिकारी घंटों के माप से कर्मचारी के काम के प्रति समर्पण का हिसाब रखते हैं। वह भी शायद घर से तंग हैं। देर तक दफ्तर में जमे रहने से ही उन्होंने हर पदोन्नति पाई है। यों भी कमरा वातानुकूलित है। जाडे में गरम, गर्मियों में ठंडा। आराम फरमाने को गुदगुदा सोफा है। बजर दो तो पीए हाजिर, घंटी बजाओ तो चपरासी। खाने-पीने का इंतजाम फ्री है। रोज इसीलिए तीन-चार मीटिंगें तो हो ही जाती हैं। घर पर यह सब सुविधाएं कहां उपलब्ध है? बस कभी-कभार, हफ्ते में एक-दो बार आठ-नौ बजे के पहले कार्यालय से कूच करते हैं। ऐसा तभी होता है जब वह कहीं पांच-सितारा होटल या अपने वरिष्ठ के घर आमंत्रित हों। दफ्तर में यस सर का कीर्तन उन्हें भगवान होने का भ्रम प्रदान करता है। घर जाकर सामान्य इंसान वह क्यों बनना चाहेंगे?
दफ्तर में सफलता का अपना निजी उसूल है। जब साहब घर सिधारता है तब हम भी उसे सलाम कर अपनी दुकान उठाते हैं। बाजार में दुकान बंद करने की समय-सीमा है, दफ्तर में ऐसा नहीं है। हमारे एक अग्रज सहयोगी की हमें अब भी याद है। वह एक रात घर नहीं पहुंचे। पत्नी-पुत्र घबरा गए। लडका अभी छोटा था, हायर सेकंड्री का छात्र। उसकी दो बहनों के हाथ पीले हो चुके थे। देर से जला घर का चिराग कुछ अधिक ही लाडला होता है। इम्तहान की सीढियां वह रुक-रुक कर पार कर रहा था। कहते भी हैं कि जल्दी का काम शैतान का है। पत्नी के अंतर में आशंकाएं तैरने लगीं। दिल्ली का कोई भरोसा नहीं है। कब कोई नगर बस दूसरी से जोर-आजमाइश कर बैठे और कब चलते-चलते शीर्षासन की मुद्रा में आ जाए.., यों भी पुलिस वालों का निशाना कमजोर है। गोली आतंकवादी पर चलाएं, शहीद शरीफ नागरिक हो। फिर उनका अलिखित नियम भी शरीफों को ही ढेर करने का है। पत्नी परेशान हो गई। अब तक एकाध लाख की आमदनी है, जायज और नाजायज मिलाकर। टुटपुंजिया पारिवारिक पेंशन से गुजारा कैसे होगा? लख्ते-जिगर पढाई में ऐसा नहीं है कि देश के किसी कॉलेज में प्रवेश पा सके। इसका उद्धार कहीं और ही होगा। इसके अलावा हर भारतीय मूलत: भावनात्मक प्राणी है। मर्द हर उम्र में प्रेम करने में समर्थ हैं और महिलाएं रोने-धोने में। हालिया, उनका भी रोने का माद्दा घटा है, ठीक उसी मात्रा में जिसमें उनका प्रेम का हौसला बढा है। उन्हें समझ आ गया है कि प्रेम एक स्वाभाविक और मानवीय प्रक्रिया है। जीवन सीमित है, साधें असीमित। जितनी संभव हो, पूरी कर लो।
मन की शंकाओं से ग्रसित यह पुरातनपंथी पत्नी धाड मार-मार कर रोने लगी। पडोसियों ने हमदर्दी की आई बला को टालते हुए थाने में एफ.आइआर लिखवाने की सलाह दी। बडा नेक चाल-चलन वाला बनता है। सबके दिल में एक ही तमन्ना थी। किसी होटल के कमरे में अवांछित हरकत करते हुए पुलिस इसे बरामद कर ले। एक भक्त टाइप पडोसी ने तो बडे बाबू की ऐसी धर-पकड पर अंदर ही अंदर प्रसाद चढाने का निश्चय भी कर लिया।
सरकार की कार्यप्रणाली से परिचित एक अन्य शुभचिंतक ने मंत्रालय के अधिकारियों को बाबू के खोने की दुर्घटना की खबर देने का बीडा उठाया। वह फोन लगा-लगा कर हार गया, कोई उत्तर नहीं मिला। उल्टे, एक उनींदी आवाज ने उसे ऐसा डपटा कि फोन उसके हाथ से टपक पडा। एकतरफा संवाद का राज अब भी राज है। देर शाम से प्रारंभ यह गुमशुदा बाबू का प्रकरण अलस्सुबह तक खिंचता रहा। इस आदर्श टाइमपास को कोई कैसे छोडे? मनोरंजन का मनोरंजन और साथ में अच्छे-पडोसी होने का प्रमाणपत्र। अनिर्णय सरकार ही नहीं, व्यक्ति की भी फितरत है। फिर यहां तो सामूहिक फैसले का सवाल है। रात से सुबह दस बजे तक तय नहीं हो पाया कि थाने कौन जाए। इससे साबित होता है कि पुलिस से सिर्फ सफेदपोश शरीफ ही डरते हैं, चोर-उचक्के गुंडे-बदमाश नहीं।
इतने में मोहल्ले के एक सडक के कुत्ते ने बडे बाबू को पहचान कर दुम हिलाई। जब भी दफ्तर में बडे बाबू कोई लंबा हाथ मारते थे, कुत्ते को एक दो बिस्कुट जरूर दान करते थे। बाबू अकेले नहीं थे। उन्हें साथ लेकर स्कूटर पर दफ्तर का एक चपरासी भी था। उस अजनबी पर कुत्ता भौंका। दरअसल, रात को सोते बाबू को चौकीदार सेक्शन में ही बंद कर गया था। सुबह उन्हें कूडे के ढेर के साथ फर्राश ने मुक्त किया। घर में खुशी का और पडोसियों में दुख का ज्वार-भाटा उठने-गिरने लगा।
हम इतना जानते हैं कि दफ्तर में काम हराम की सुखद स्थिति है, घर में आराम हराम की। हर पत्नी को पता है, यह पति नामक प्राणी उसके माता-पिता ने दहेज देकर खरीदा है। अब जीवन भर इस पर उसका अधिकार है। उसका हकहै कि इस नाकारा को देखा नहीं कि कोई हुकुम चलाए- पप्पू की किताबें लानी हैं, घर का रसद-राशन। आज पकड में आए हो! कान पकडने के अलावा हमारी हर दुर्दशा हो चुकी है। जुबान हिलाने की हिम्मत नहीं है। उनके सामने घिघ्घी बंध जाती है। सरकारी दफ्तर देश की आरामगाह है, जबकि घर में आराम हराम। शायद यही वजह है जो विकास फाइलों में बंधा है। कौन कहे, इसीलिए, मुल्क की जगह कीमतें ही तरक्की पर हैं!
गोपाल चतुर्वेदी
सखी प्रतिनिधि