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हमें भी चाहिए थोड़ी सी आज़ादी

कुछ दिन ही ऐसे होते हैं जो हमें हमारी वस्तुस्थिति पर नए सिरे से विचार करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा ही एक दिन है स्वतंत्रता दिवस। यह हम सबको सोचने के लिए विवश कर देता है कि क्या हम वाकई स्वतंत्र हैं? हैं तो कितने हैं और

By Edited By: Published: Mon, 27 Jul 2015 03:55 PM (IST)Updated: Mon, 27 Jul 2015 03:55 PM (IST)
हमें भी चाहिए थोड़ी सी आज़ादी

कुछ दिन ही ऐसे होते हैं जो हमें हमारी वस्तुस्थिति पर नए सिरे से विचार करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा ही एक दिन है स्वतंत्रता दिवस। यह हम सबको सोचने के लिए विवश कर देता है कि क्या हम वाकई स्वतंत्र हैं? हैं तो कितने हैं और जितने हैं, उसमें कितने का सदुपयोग कर पा रहे हैं? तो क्या यही स्वतंत्रता है?

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गहरी नींद में सोया हुआ था कि अचानक श्रीमती जी ने झिंझोड दिया, 'अब उठोगे भी शालू के पापा! सूरज सिर पर चढ आया है और तुम हो कि अभी चादर ताने पडे हो!

'चैन से सोने भी नहीं देती हो भागवान! कम से कम छुट्टी के दिन तो नींद पूरी कर लेने दिया करो! चादर के अंदर से ही हमने जवाबी हमला किया। मेरे इतना कहते ही श्रीमती जी ने चादर को मुझसे मुक्त किया, 'तुम्हें सोने के सिवा कुछ और आता भी है? देखो, देश आजाद हो गया है। प्रधानमंत्री ने अभी-अभी लाल िकले से झंडा फहराया है। और तो और, चुन्नू के पापा सुबह-सुबह उठकर अपने बरामदे में झाडू लगा रहे हैं। एक तुम हो कि अपना मुंह तक नहीं साफ कर सके। बात अब बहुत पर्सनल हो चुकी थी। हम झट से बिस्तर छोड श्रीमती जी के सामने इस तरह तनकर खडे हो गए, जैसे हमारा स्वाभिमान अपने शुरुआती लेवल पर आ गया हो! हमने भी पलटकर जवाब दिया, 'ख्ााक आजादी का दिन है! हमें सोने तक की आजादी नहीं है, फिऱ हमें कौन-सा झंडा फहराना है? रही बात सोने की, हमने तुम्हारे सोने पर तो कभी ऐतराज किया नहीं। अभी पिछले हफ्ते ही हमारी आधी तनख्वाह तुम्हारे इसी शौक की भेंट चढ गई! और बात करती हो चुन्नू के पापा की, तो जरा एक नजर चुन्नू की मम्मी पर भी डाल लिया करो। एक वो हैं जिनका चेहरा हमेशा खिला-खिला रहता है और एक तुम हो, हमेशा डांट-फटकार से ही मेरा स्वागत करती हो! मुझे तो बोलने तक की आजादी नहीं है।

पता नहीं आजादी के दिन का प्रभाव था या हमारी सूरत देखकर श्रीमती जी को रहम आ गया, वे पहली बार बिना कोई जवाब दिए किचन में घुस गईं और मैं वॉशरूम में। सुकून के कुछ पल यहीं गुजरते हैं। हम अपनी आजादी को लेकर और गंभीर हो गए और सोचना शुरू कर दिया। हमें महसूस हुआ कि इस वक्त देश में सबसे बडी समस्या यही है। हम हर वर्ष देश की आजादी का जश्न मनाते हैं। गली और मुहल्ले में आजादी का परचम जोर-शोर से फहराते हैं। एक ओर इसके महत्व को समझाने के लिए जगह-जगह सेमिनार और जलसे किए जाते हैं, दूसरी तरफ पति नाम के प्राणी अपने घर में ही आजाद नहीं हैं। यहां तक कि भ्रष्टाचार, जमाखोरी और लूटपाट करने की देशव्यापी आजादी हमें बाय डिफाल्ट मिली हुई है। आजादी की किरण केवल हम पतियों तक ही नहीं पहुंच पाई है।

हम आगे सोचने लगे और हमें लगा कि आजादी की बुनियादी जरूरत घर से ही शुरू होती है। यदि परिवार का मुख्य चरित्र पति ही घर पर अपने को दबा-कुचला महसूस करने लगे तो घर के बाहर उसकी आजादी के कोई मायने नहीं हैं। जिस पति को पत्नी के आगे 'दाल में नमक कम है तक कहने की हिम्मत नहीं पडती, उसे ही सेमिनार में नारी स्वतंत्रता पर व्याख्यान देने पडते हैं। क्या किसी शोधार्थी ने कभी इस ओर गौर किया है कि बाहर कैंची जैसी चलने वाली हमारी जबान घर में बत्तीस दांतों के बीच फंस कैसे जाती है? पतियों की पूरी आबादी आजादी पाने के लिए बेचैन है, पर इस मांग के लिए वे जंतर-मंतर या इंडिया गेट तक नहीं जा पाते। आजादी की प्राप्ति के िफलहाल यही दो केंद्र हैं, पर इसके लिए कोई पति-मुक्ति आंदोलन की पहल नहीं करता। जाहिर है, पतियों को अभी भी सार्वजनिक रूप से पत्नी-पीडित होने के एहसास से आजादी नहीं मिल पाई है।

सच पूछिए तो आज की तारीख्ा में आजादी का सबसे बडा और सच्चा तलबगार पति ही है। उसके लिए घर में आजादी के नाम पर साल भर में करवा-चौथ का एक ही दिन आवंटित है। उसी की आस में वह बाकी दिन गुजार देता है। उसके सामने हमेशा मुंह खुला रखने वाली पत्नी का मुंह उस दिन चांद देखकर ही खुलता है। उस दिन वह पति को न किसी बात पर टोकती है, न झिडकती है। पति चाहता है कि उस दिन चांद जरा देर से चमके पर उसके सौभाग्य से यदि चांद कभी बादलों में छुप भी गया तो टीवी चैनल वाले झुमरी-तलैया से भी उसे ढूंढ लाते हैं। उसकी मुसीबत यहीं ख्ात्म नहीं होती। अब तो व्हाट्स एप और फेसबुक पर भी चांद की तस्वीर देखकर आधुनिक पत्नियां व्रत तोड देती हैं। तकनीक का आधुनिक होना हमें यहीं पर खलता है!

आज हम जैसे पति की कहीं पूछ नहीं होती। घर हो या बाहर, उसके पक्ष को न पुलिस सुनती है न पडोसी। सब मिलकर एक साथ टूट पडते हैं। अंग्रेजों से आजादी हासिल करने के लिए जहां सभी कंधे से कंधा मिलाकर खडे हुए थे, वहीं आज हाल यह है कि अपने लिए कोई पति खडा होने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहा है। हमें डर लगा रहता है कि थोडी देर के लिए झंडा उठा लेने पर कहीं घर से ही राशन-पानी न उठ जाए। यह डर तब और बढ जाता है जब हमारे कानों में अराजक तत्वों की आजादी के िकस्से सुनाई देते हैं। एक तरफ यह असहाय प्राणी है जो अपने घर में मनमाफिक चैनल भी नहीं लगा पाता, दूसरी ओर वे लोग हैं, जिन्हें फर्जी डिग्री के आधार पर देश-सेवा की आजादी मिल जाती है। झूठा हलफनामा देकर मंत्री तो बना जा सकता है, पर पति नहीं। जहां मंत्री से एक अदद इस्तीफा नहीं मिल पाता, वहीं पति को जेल और तलाक दोनों। यह कैसी आजादी है? जहां तक हम सोच पा रहे हैं, आजादी के कर्णधार यहां तक शायद सोच ही नहीं पाए थे। पति को कम से कम इतनी तो आजादी मिलनी चाहिए कि वह कभी भी रात-बिरात घर आए और कभी-कभी वह भी पत्नी को प्रवचन दे सके। जब तक पतियों की हालत नहीं सुधरती, देश की आजादी का कोई ख्ाास अर्थ नहीं है। पति को घर में आजादी मिलने से ही पूर्ण आजादी का मिशन पूरा हो सकता है।

उसकी स्थिति को दफ्तर में भी औरों से अलग करके देखना चाहिए। कुंवारा होना और पति होना दोनों अलग-अलग स्थितियां है। किसी फाइल को निपटाने में हमारा पतित्व आडे आ सकता है। इसलिए हमारे पतित होने की वजह भी दूसरों से बिलकुल अलग होनी चाहिए। इस सोच का सार यही कि पति को पतित होने की आजादी मिलनी चाहिए ताकि औरों की तरह समाज को वह भी अपनी फुल परफॉर्मेंस दे सके।

गलती से हम जैसा पति दफ्तर में यदि बॉस हुआ तो घर और दफ्तर में तालमेल बिठाने में बडी पेचीदगियां आ सकती हैं। शेर अचानक बिल्ली कैसे बन जाता है, हमसे बेहतर कौन जानता है? ऐसा दोहरा किरदार निभाने वाले को दफ्तर से विशेष भत्ता उठाने की आजादी मिलनी चाहिए। दफ्तर में जहां हम अपना बिल ख्ाुद पास कर लेते हैं, वहीं घर में अपने लिए एक सुरक्षित बिल तक नहीं खोज पाते। ख्ाुद के लिए ख्ार्च मांगने पर घर में सौ सफाइयां देनी पडती हैं, दस बातें सुनाई जाती हैं। यह पति के प्रति अत्याचार नहीं तो क्या है? उसको अपनी ही कमाई उडाने का हक नहीं है।

भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसी अमूर्त चीजों के लिए जहां पूरी आजादी है, वहीं एक जीते-जागते पति के लिए सांस तक लेना दूभर है। समय आ गया है कि पति नाम के इस प्राणी का संरक्षण किया जाए, वरना तो इस प्रजाति के लुप्त होने में देर नहीं लगेगी। वैसे भी लिव इन से इसकी शुरुआत हो चुकी है। जब कोई किसी का न पति है, न पत्नी तो फिर कैसा दायित्व और कैसा बंधन? सारा दोष गांठ का ही है इसलिए गठबंधन से भी आजादी जरूरी है। गठबंधन से सरकार तो चल सकती है, परिवार नहीं। पति को पूरी आजादी देकर इस गांठ को ख्ात्म किया जा सकता है।

हमारी सोच चरम पर पहुंच चुकी थी। पति की और भी कई घरेलू समस्याएं नजर आने लगीं। तभी याद आया कि बॉलीवुड को छोड किसी ने पतियों की दशा को गंभीरता से नहीं लिया। 'जोरू का गुलाम जैसी फिल्में बनाकर कुछ हद तक आवाज भले ही उठाई गई हो, पर उसकी आजादी के लिए कुछ भी नहीं किया गया। पहले के जमाने की बातें छोड दें जब वह सैंया होता था और एक करुण पुकार सुनाई देती थी 'न जाओ सैंया छुडा के बैंया..। आज न तो वह करुण पुकार रही और न ही कसम। अब तो वे आंसू भी नहीं रहे! आंसुओं ने भी दल बदल लिया है। हालांकि पति उन्हें टपका भी नहीं सकता, क्योंकि इससे उसका पतित्व भंग होने की आशंका बनी रहती है। कम से कम उसे रोने की आजादी तो मिलनी ही चाहिए।

सहसा बडी जोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। हमारी सोच अचानक सातवें आसमान से जमीन पर आ गई। हम जैसे सोते से जागे। बाहर से श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी, 'अजी, वहीं सो गए क्या? अब निकल भी आओ! शालू के स्कूल के लिए आजादी पर निबंध भी लिखना है। एक यही तो काम है जो तुम कर सकते हो! इतना सुनते ही हम तुरंत बाहर आ गए। हमने अपनी आजादी को थोडी देर के लिए मुल्तवी कर दिया और बेटी को आजादी का महत्व समझाने लगे।

संतोष त्रिवेदी


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