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अपने-अपने सफाई आंदोलन

सफाई बहुत ज़रूरी है, यह बात अब जनता समझ चुकी है। चाहे कोई आम आदमी हो या ख़्ाास, सभी आजकल सफाई को पूरी अहमियत देने लगे हैं। वैसे सफाई के प्रकार कई हैं और कुछ का तो आज के समाज में व्यापक प्रसार भी हो चुका है। कैसे, जानने के

By Edited By: Published: Thu, 25 Jun 2015 04:48 PM (IST)Updated: Thu, 25 Jun 2015 04:48 PM (IST)
अपने-अपने सफाई आंदोलन

सफाई बहुत जरूरी है, यह बात अब जनता समझ चुकी है। चाहे कोई आम आदमी हो या ख्ाास, सभी आजकल सफाई को पूरी अहमियत देने लगे हैं। वैसे सफाई के प्रकार कई हैं और कुछ का तो आज के समाज में व्यापक प्रसार भी हो चुका है। कैसे, जानने के लिए पढें आगे।

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कूडा-करकट को पीछे छोडकर देश स्वच्छता के एक नए युग में प्रवेश कर रहा है। उपेक्षित झाडू के दिन फिरे हैं। समाज का हर श्रेष्ठ व्यक्ति उसे हाथ में लेकर सफाई करे या न करे, फोटू खिंचाने को उत्सुक है। अकसर ऐसे लोग अपने साथ दस-बारह चेलों को लेकर अवतरित होते हैं। टाइमिंग ऐसी है कि बहुधा वहां झाडू लग चुकी होती है। बहुधा अपने मिशन के लिए वे ऐसे स्थान चुनते हैं, जहां सफाई की कमी न हो! अंग्रेजों की इनायत से हर छोटे-बडे शहर में एक सिविल लाइंस है। इसमें नगर के छोटे-बडे हाकिम और बडे लोग बसते हैं। ऐसे आलाओं की बस्ती में सफाई न हो तो क्या गरीबों की झोपडपट्टी में होगी!

यही वह स्थल है जहां से नगर के हर सफाई-अभियान का प्रारंभ और अंत होता है। अति या सिर्फ महत्वपूर्ण शख्सीयत पधारने वाली है। अगवानी को उसके चाहने वाले चमचे हाजिर हैं। उनका काम जगह-जगह कूडा बिखेरना है। यही तो लोकतंत्र की सहयोगी भावना है। कुछ का कर्तव्य कूडा करना है, कुछ का उसकी सफाई। अब बडा आदमी पधारेगा, मीडिया को साथ लेकर। उसके लिए नई चमचमाती हैंडलदार झाडू का प्रबंध पहले ही हो चुका है। वह अपने करकमलों से झाडू उठाएगा, दांत निपोरते हुए। उसे धीरे-धीरे जमीन पर रखेगा। कहीं तेजी दिखाई तो कलाई में मोच न आ जाए। वह देश का भार ढोने को प्रस्तुत है, उसके हाथ झाडू का वजन उठाने को थोडे ही बने हैं।

विडियो कैमरे उसे कूडे का ढेर बुहारते दिखाते हैं। उसने पसीना बहाया है। यह व्यर्थ नहीं जाएगा। पास ही शामियाने का इंतजाम है, उसके अंदर मेज पर चाय-नाश्ते का। सब थके-हारे यहां भरपूर ऊर्जा और क्षमता से खाद्य-सामग्री की सफाई के हाथ दिखाते हैं। यहां अतिथि विशेष के स्वागत की ख्ाास व्यवस्था है। इस समारोह का अब सुर्खियों में आना तय है। कल पूरे मुल्क को इस नगर के जनसेवक की स्वच्छता-प्रतिबद्धिता की ख्ाबर होगी। परसों नकलची उसका अनुकरण करेंगे। झाडू का कुटीर-उद्योग ऐसे ही तो फले-फूलेगा।

ख्ाास ही नहीं, आम आदमी भी इधर सफाई के प्रति समर्पित हैं। हमारे पडोसी पंडित रामप्रसाद अब नियम से अपने घर का कूडा हमारे घर के सामने सजाते हैं। उनके घर के आगे किसी की क्या मजाल कि कागज का एक टुकडा भी फेंक दे। वह हाथ में झाडू लिए उग्र रूप धर कर प्रगट होते हैं। पहले दोषी की ख्ाबर आग्नेय दृष्टि से लेते हैं फिर सफाई की महत्ता पर प्रवचन करके। तत्पश्चात उसे शर्मिंदा करने के लिए इधर-उधर फिरा कर झाडू देवता को नमन भी कर लेते हैं। इतना ही काफी नहीं है। उनका संबोधन नैतिकता बोध से वैसे ही परिपूर्ण है जैसे लस्सी बनाने वाले पहलवान का कुल्हड उस झागदार पेय से। वह शरीर की सफाई का महत्व रेखांकित कर रहे हैं, 'यह जरूरी है क्योंकि तन के अंदर आत्मा और उसमें परमात्मा का वास है। यदि हमें नगर देवता को प्रसन्न कर शहर को समृद्ध बनाना है तो उसे स्वच्छ रखना ही रखना है।

संसार में बहुत कम ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व पूरी तरह से एकपक्षीय हो। पंडित जी प्रवचन के भी उतने ही शौकीन हैं जितने पान के। उनके हर कुर्ते-कमीज पर कत्था-चूना और कुछ मसाला आदि द्रव्य के लाल छींटे इस तथ्य के साक्षी हैं। उनके कार्यालयीन सहयोगी उन्हें 'पीक का पिकासो जैसे सम्मानजनक संबोधन से याद करते हैं। गनीमत है कि जबसे उन्हें स्वच्छता चेत आया है, उन्होंने दफ्तर को बख्शा हुआ है। नहीं तो फर्श से लेकर हर दीवार तक उनकी अमूर्त कलाकृतियों का कैनवस थी। जैसे राजा रवि वर्मा पौराणिक पात्रों के दीवाने थे, वैसे ही पंडित जी गहरे लाल रंग पर। दफ्तर की किसी दीवार की क्या मजाल कि वह पीक-निरपेक्ष रह सके। इसे पंडित जी अपनी निजी तौहीन मानते। पर अब तो यह अतीत की स्मृतियां हैं।

इधर पंडित जी का कर्म-क्षेत्र बदला है। अब वह दफ्तर में पीक कला का प्रदर्शन न कर यही शुभ कर्म पान की दुकान और उसके सामने की सडक पर अंजाम देते हैं। इससे कला की धाक मानने वालों की तादाद में ही नहीं, पंडित जी की ख्याति में भी इजाफा हुआ है। अब पंडित जी दुकान पर पहुंचे नहीं कि चाहने वाले बीडा लेकर उनके स्वागत में पलक-पांवडे बिछा देते हैं। पंडित जी एक साथ कितनों का बीडा स्वीकार कर उन्हें कृतार्थ करें? लिहाजा, कई अपनी बारी की प्रतीक्षा में हैं। बीडा मुंह में गया नहीं कि लोगों की फरमाइश शुरू हो जाती है, 'पंडित जी! इन सब नौसिखियों को जरा पीक का महत्व और महारत सिखाइए। उनका सिखाने से आशय कोई जुबानी लफ्फाजी न होकर पीक के प्रदर्शन का व्यावहारिक पाठ है। प्रतियोगिता पीक से दूरी नापने की है। पंडित जी स्वभाव से विनयशील हैं। इसलिए पहले तो वह ना-नुकुर करते हैं। बीडे को मुंह के बाएं कोने में शिफ्ट कर 'आज नहीं की औपचारिकता निभाते हैं। किसी काम को करने के पूर्व यह उनकी स्टाइल है। लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं। एक की गुजारिश है, 'सर! यह नया लडका है। पीक-संस्कृति से कतई कोरा। सिर्फ आपका करतब देखने के लालच में आया है। बस बार कृपा कर दीजिए।

पंडित जी अपने प्रशंसकों को कैसे निराश करें! वह निराशा की पीडा से परिचित हैं। पिता ने पढाया-लिखाया। प्रेरित किया अच्छी नौकरी पाने को प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठने को। पंडित जी ने आई.ए.एस. से लेकर पी.सी.एस. ही नहीं, तहसीलदारी तक की परीक्षा दी। एकाध बार साक्षात्कार में भी बुलाए गए, पर सफलता वैसे ही दूर रही जैसे चाहने वालों की भीड से फिल्मी नायिका। वह तो मिठाई बंटी जब एक सरकारी विभाग में वह बाबू बन गए। पर वह सकारात्मक प्रवृत्ति के हैं। कोई कह भी नहीं सकता कि उनके निजी जीवन में कोई त्रासदी घटी है।

बस थोडी मान-मनौवल के बाद पंडित जी अपने पीक-प्रदर्शन के लिए हामी भर देते हैं। दर्शकों की भीड उन्हें घेर लेती है। एक सज्जन दुकान से फीता मांग लाए हैं। प्रदर्शन का क्या लाभ जब दूरी मापने का साधन न हो? लल्ला की दुकान पूरी तरह लैस है, ऐसे विशिष्ट अवसरों के लिए। पंडित जी मुंह उठाते हैं जैसे प्रार्थना की मुद्रा में हों। फिर धीरे-धीरे उसे नीचे लाते हैं। दर्शक उत्सुकता से प्रतीक्षारत है। अचानक, पिच्च की आवाज से उनके मुंह से छूटा तरल पदार्थ का तीर पहले कुछ ऊपर उठकर, फिर फुटपाथ पर आ टपकता है। उस पर छींटें बिखेरते हुए। उनकी इस अनूठी उपलब्धि पर करतल-ध्वनि गूंजती है। बीडों की भेंट हाजिर है। इस बीच पीक की दूरी का नाप-जोख संपन्न हो गया है। पंडित जी ने बारह फीट दूर तक पीक पहुंचाने का कीर्तिमान बनाया है। एक सज्जन की टिप्पणी है, 'पंडित का यह कारनामा वाकई प्रशंसनीय है। पर वह कुछ जलेतन िकस्म के व्यक्ति हैं। साथ ही यह भी जोड देते हैं कि 'यदि हम सब अपने आसपास इतनी ही दूरी के दायरे में साफ-सफाई पर सक्रिय ध्यान दें तो शहर की शक्ल बदल जाए, हालांकि हमें शक है कि कोई ताली बजाने वाला दर्शक वहां होगा भी कि नहीं? पंडित जी, बिना यह आलोचना सुने एक बीडा मुंह में दाबे और दूसरा हाथ में दफ्तर जा चुके हैं।

शहर में तरह-तरह के इंसान हैं। वह आध्यात्मिक तो नहीं हैं पर दूसरों के पैसे को हाथ का मैल मानने का ऐसा सूिफयाना विचार उनके अंतर में मंडराता रहता है। वह इसकी सफाई को कमर कसे हैं। उन्होंने सूची बनाई हुई है कि ऐसे भौतिक मैल वालों की तादाद कितनी है। इस मैल की सफाई में वह योजनाबद्ध तरीके से लगे हुए हैं। किसके लडके को उठाया जाए? उसमें फिरौती की कितनी गुंजाइश है? या फिर लडके के मां-बाप को ही पार करना ज्य़ादा मुफीद है? उनकी सोच स्पष्ट है, पर जुबान की फिसलन से वह इस मैल को अधिकतर माल कह जाते हैं। मां-बाप को उठाने को उठा भी लिया तो माल कौन देगा? एक सफाई-सहयोगी सुझाते हैं कि इस युगल का बूढा बाप किस मर्ज की दवा है? बहस का रुख बदलता है। बुजुर्ग की इस बेटे से पटती है कि नहीं? ऐसा न हो कि फिरौती जैसे हाथ के मैल को मांगने पर बूढा इसे ऊपर वाले का न्याय मान कर हाथ पर हाथ धरकर या पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की औपचारिकता पूरी कर बैठ जाए! जाहिर है कि सफाई मिशन से गहन चिंतन प्रक्रिया जुडी हुई है।

हमारे शहर में ऐसे स्वच्छता-अभियान खासे लोकप्रिय हैं। आलम यह है कि सफाई में सक्रिय साहसी सदस्य दिनदहाडे घरों में घुसकर मैल के माल के सफाए में जुटते हैं। बैंकों में लूटपाट भी एक आम वारदात है। कुछ का मानना है कि पुलिस का स्वच्छता-आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान है। हमें यकीन है। सफाई का सपना व्यापक भागीदारी के चलते शीघ्र ही सच होकर रहेगा!

गोपाल चतुर्वेदी


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