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झूठ बरोबर तप नहीं...

एक तरफ तो स्कूल की किताबों से लेकर धर्मग्रंथों तक में हर जगह झूठ को पाप बता दिया गया और दूसरी तरफ हर जगह झूठ का ही बोलबाला दिखाई देता है। अब यह कैसे तय हो कि पाप क्या और पुण्य क्या है? मान लिया झूठ बोलना पाप है, परन्तु यह

By Edited By: Published: Mon, 01 Jun 2015 12:59 AM (IST)Updated: Mon, 01 Jun 2015 12:59 AM (IST)
झूठ बरोबर  तप नहीं...

एक तरफ तो स्कूल की किताबों से लेकर धर्मग्रंथों तक में हर जगह झूठ को पाप बता दिया गया और दूसरी तरफ हर जगह झूठ का ही बोलबाला दिखाई देता है। अब यह कैसे तय हो कि पाप क्या और पुण्य क्या है?

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मान लिया झूठ बोलना पाप है, परन्तु यह बात आज तक समझ में नहीं आई कि लोग क्यों क्षण-क्षण यह पाप करते रहते हैं? एक बार मैंने झूठ बोला तो मेरे बच्चे ने मुझे टोक दिया, 'पापा, झूठ बोलना पाप होता है।

मैं मन-ही-मन बडा हंसा। सोचा बच्चा है, बडा होगा तब पता चलेगा कि झूठ बोलना कितना जरूरी है। मोटे तौर पर तो यह बात समझ में आती है कि कई बार झूठ प्राथमिक तौर पर लाभान्वित करता है, परन्तु किसी ठोस हित का क्रियान्वयन इसके जरिये होता नजर नहीं आता है। इसलिए क्षण-क्षण किए जाने वाले इस पाप पर व्यक्ति स्वयं ही रोकथाम लगा ले तो बुराई नहीं है। लेकिन साहब ये तो दुनिया है। किस-किस को रोकेंगे आप? जो सत्य बोलते हैं, वही झूठ भी बोलते हैं।

बोले कोई कुछ भी, पर इससे कम-से-कम प्रजातंत्र की सार्थकता का तो पता चलता है! आदमी झूठ या सच कुछ तो बोल रहा है! झूठ कहां नहीं बोला जा रहा? यानी आप, हम सब बोलते हैं, फिर पता नहीं क्यों इसे पाप माना गया है? इस विषय पर यदि सविस्तार अनुसंधान किया जाए तो निश्चित रूप से इस पाप के साथ न्याय हो सकने की संभावना है। हालांकि अनुसंधान अगर नहीं भी हो तो काम चल जाएगा, क्योंकि आजकल इसका व्यापार ऐसे ही ख्ाूब फल-फूल रहा है।

मेरे एक मित्र हैं। लिखते-पढते हैं। अब कंप्यूटर चलाना वे जानते नहीं और कलम से कागज पर तो वे यदा-कदा ही लिखते हैं, लेकिन जुबान से ख्ाूब लिखते हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा, 'अमां यार, झूठ बोलना पाप है। जरा यह तो बताओ, िफलहाल क्या लिख-पढ रहे हो?

मित्र ने उसी पाप का सहारा लिया, 'लिखना कुछ विशेष नहीं। दो कविता की किताबें दिल्ली से आ रही हैं तथा एक कहानी संकलन लोकल पब्लिशर छाप रहा है।

दो वर्ष बाद फिर पूछा, 'क्यों भाई, क्या आ रहा है? वही बात, 'एक उपन्यास और एक आलोचना की पुस्तक आ रही है।

मैंने कहा, 'अमां यार, लेकिन तुम आलोचना-उपन्यास कब से लिखने लगे? तुम तो कवि हो।

'हां..., पिछले कुछ दिनों से इसमें भी हाथ आजमा रहा हूं, और मजे की बात यह कि सभी तरह की विधाओं में मेरी पुस्तकें छापने को प्रकाशक भी तैयार हैं, मित्र ने जवाब दिया।

'परन्तु वे कविता व कहानी संकलन अभी तक आए या नहीं, जो दो वर्ष पहले ही आ जाने चाहिए थे?

'अरे भाई, वे तो अभी मैंने तैयार ही नहीं किए हैं।

आप आसानी से समझ सकते हैं, उन्हें झूठ का बहुत अच्छा अभ्यास हो गया है। याद ही नहीं रख पाते कि एक आदमी से वे साल भर पहले क्या कह चुके हैं।

लेकिन चल रहा है धंधा। लिख नहीं रहे, परंतु झूठ के आधार पर उनका रचनाकार जिंदा है।

पडोस के वर्मा जी का भी यही हाल है। उनका बच्चा पांच वर्ष से मैट्रिक को लांघ नहीं पा रहा तथा प्रतिवर्ष अनुत्तीर्ण होने का गौरव प्राप्त करता है। परन्तु वर्मा जी उसे एम. ए. तक ले गए हैं। प्राइवेट परीक्षा दे रहा है। वे इससे बच्चे पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव की चिंता नहीं करते। उन्हें अपनी शान तथा बच्चे की शादी में मिलने वाले दहेज की चिंता है। एक दिन मैंने उनसे मजाक में कहा, 'अमां वर्मा जी, बच्चू को किसी ट्यूशन पर लगाओ। यह पंचवर्षीय योजना में भी कामयाब नहीं हो सका।

वर्मा जी ने हथियार डाल दिए, 'मैं बहुत शर्मिंदा हूं। सच, इसने मुझे बहुत जलील किया है। आपसे क्या छिपाना! पढाई में इसका तनिक भी ध्यान नहीं है। सिनेमा देखता है। बहुत ही अयोग्य व नालायक है। लेकिन करूं क्या? मैं सोचता हूं, जमाना बैरी है। बंधु-बांधव एक-दूसरे की टांग खींचते हैं। शादी-विवाह होने नहीं देते। इसलिए झूठ का पाप करना पडता है।

मैं बोला, 'झूठ क्यों बोलते हैं? कोई काम-धंधा शुरू करा दीजिए। काम करने लगेगा, पढाई नहीं कर पाने का अभिशाप अपने आप धुल जाएगा। वे बोले, 'हां, अब यही सोच रहा हूं। लेकिन साहब, कई बार परिस्थितियां झूठ बुलवाती हैं।

झूठ बोलने वालों की श्रेणियां भी ख्ाूब हैं। झूठ बोलने वालों में एक तो वे हैं, जो झूठ को पेशे के रूप में अपनाए हुए हैं। किसी भी कोर्ट-कचहरी का मामला हो, उन्हें िकस्सा समझा दो। जो आप चाहेंगे वे वही बोलने लगेंगे। न तो कुछ आंखों से देखा और न ही कुछ कानों से सुना, लेकिन गीता पर हाथ रख कर सारे झूठ को सत्य बना देंगे। चाहे किसी निर्दोष को जेल-जुर्माना या फांसी ही क्यों न हो जाए। पन्नालाल जी से तो इस मामले में कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता। एक बार मैंने उनसे कहा-'पन्नालाल जी, छोडिए भी अब! पान-बीडी-सिगरेट-चाय- नाश्ता के लिए आप अपना ईमान बेच आते हैं।

बोले, 'तो क्या करूं लाला, इस फटीचर ईमान का? ख्ार्च निकल जाता है। पाप-पुण्य तो मैं जानता नहीं, परंतु यह जरूर है कि

झूठ बरोबर तप नहीं, सांच बरोबर पाप, जाके हिरदय झूठ है, ताके हिरदय आप वाली बात चरितार्थ हो रही है।

'लेकिन आपकी छवि बडी धूमिल हो रही है इससे। आदमी को, अपने को कुछ बनाना भी चाहिए, मैंने कहा।

पन्नालाल जी यह कह कर चले गए, 'अपनी छवि रक्खो अपने पास। सरकारी नौकरी करते हो, दो नंबर की कमाई आती है, इसलिए सत्यवादी हरिश्चंद्र बनते हो। हमें सब पता है आप कितने पुण्य कर रहे हैं। दूसरे की रोजी-रोटी पर लात मारते आपको शर्म नहीं आती?

मैं ठगा-सा रह गया। झूठ रोजी-रोटी बन गया है तो फिर इसे रोकने के लिए प्रयास करना वाकई पाप है। मैंने तत्काल पन्नालाल जी से माफी चाही, 'माफ करिये! मुझे पता नहीं था कि झूठ आपका जीवनाधार बन गया है। जहां तक मेरा सवाल है, झूठ तो मैं भी बोलता हूं, परन्तु बहुत ही न्यून।

'जब आप हरिश्चन्द्र हैं या उसकी औलाद, तो न्यून भी क्यों बोलते हैं? हम अधिकतम बोलते हैं तो क्या हुआ? झूठ बोलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता। कायदे से तो झूठ बोलना भी मौलिक अधिकारों में शामिल होना चाहिए, पन्नालाल जी ने कहा।

अब आप ही बताइए, भला झूठ पाप कैसे हो गया? यह तो वाकई, बकौल पन्नालाल जी बडी तपस्या है, साधना है, जिसे मुश्किलों के बाद प्राप्त किया जाता है। एक बार तो इच्छा हुई कि अपने बच्चे को एक थप्पड मारकर कहूं कि उसे झूठ को पाप का फतवा देने को किसने कहा था? फिर यह सोचकर कि उसकी मां ने बताया होगा तो व्यर्थ में घर में अशांति हो जाएगी चुप रहा। फिर भी मन नहीं माना। मैंने पत्नी से कहा, 'अरे भागवान, जरा सुना! अपने टिंकू को आजकल यह पहाडा किसने रटाया है?

'कौन-सा पहाडा?

'वही, झूठ बोलना पाप होता है ?

'आपने ही बताया होगा। मैं तो यह बेवकूफी करने वाली नहीं हूं, पत्नी ने कहा।

मैं घबराकर बोला, 'भगवान कसम, यह बात मैंने उससे कभी नहीं कही। उसका थोडा ध्यान रखो। वह सच बोलने लगा तो हमारा जीवन चौपट कर देगा। बाहर मैंने जानकारी की है। सब लोग झूठ बोल रहे हैं। मुझे नहीं चाहिए यह हरिश्चन्द्र की औलाद।

'घबराओ नहीं, औलाद हरिश्चन्द्र की नहीं, आपकी ही है। आप पचास प्रतिशत झूठ बोलते हैं, यह शत-प्रतिशत बोलेगा। आज ही स्कूल से शिकायत आई है कि वह पांच दिन से स्कूल नहीं जाकर अपने दोस्तों के साथ इधर-उधर घूमकर घर आ जाता है। मैंने उससे पूछा तो पता है, क्या कहा उसने?

'क्या कहा? मैंने पूछा।

'पापा भी तो ऑफिस का नाम करके अकेले-अकेले सिनेमा देख आते हैं? मैं चुप रह गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं? परंतु मुझे यह तसल्ली जरूर हो गई कि उसके हरिश्चन्द्र बनने का अब कोई अंदेशा नहीं है।

पन्नालाल जी की बात अब भी याद आ रही है, 'झूठ बरोबर तप नहीं, सांच बरोबर पाप, जाके हिरदय झूठ है, ताके हिरदय आप सही है, झूठ बोलने वाले के हृदय में भगवान स्वयं निवास करते हैं। आजकल हर ऐरा-गैरा सत्य बोल रहा है तो आप झूठ क्यों नहीं बोलें? जरूर बोलें।

पूरन सरमा


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