Move to Jagran APP

सबसे भले विमूढ़...

यह अलग बात है कि अपने को मूर्ख कहा जाना कोई पसंद नहीं करता, लेकिन इस दुनिया में जो कुछ भी थोड़ी-बहुत ख़्ाुशी है वह मूर्खों के ही कारण है। क्या कभी आपने सुना है कि कोई किसी की बुद्धिमानी पर हंस रहा हो? मूर्खता के अलावा शायद ही कोई

By Edited By: Published: Fri, 27 Mar 2015 03:44 PM (IST)Updated: Fri, 27 Mar 2015 03:44 PM (IST)
सबसे भले विमूढ़...

यह अलग बात है कि अपने को मूर्ख कहा जाना कोई पसंद नहीं करता, लेकिन इस दुनिया में जो कुछ भी थोडी-बहुत खुशी है वह मूर्खों के ही कारण है। क्या कभी आपने सुना है कि कोई किसी की बुद्धिमानी पर हंस रहा हो?

loksabha election banner

मूर्खता के अलावा शायद ही कोई दूसरा तत्व होगा जिस पर इतना भ्रम हो। किसी विद्वान के अनुसार दुनिया में दो ही तरह के मनुष्य होते हैं, एक बुद्धिमान और दूसरा मूर्ख। दूसरा व्यक्ति मूर्ख होता है, यह सिद्धांत अनजाने में ही सही, किंतु नैसर्गिक रूप से स्थापित हो चुका है। हर मनुष्य दूसरे को मूर्ख मानकर चलता है। ऐसा मान लेने से दुनिया व्यावहारिक रूप से गतिशील रहती है। दूसरे को बेवकूफ मानते ही अपना मानसिक बोझ कम हो जाता है और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। हंसी का तो समूचा अस्तित्व ही मूर्खता पर टिका है। न मूर्ख दिखें और न हंसी आए। हकीकत यह है कि जितनी ख्ाुशी मूर्खों को देखकर होती है, विद्वानों को देखकर नहीं होती। कई बार तो विद्वानों को देखकर बना-बनाया मूड बिगड जाता है। ख्ाुशी ज्य़ादा बढ जाती है तो जश्न की तबीयत होती है और जश्न मनाने के लिए पर्व की व्यवस्था की गई है। दीवाली के दिन लाखों टन बारूद फूंक लेने तथा होली के दिन पक्के जमावटी रंगों के प्रयोग से सुग्रीव की सेना बन जाने से मन नहीं भरा तो अप्रैल का एक पूरा दिन और आरक्षित करा लिया, जिसे मूर्ख पर्व के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की गई।

बुद्धिमान कितना भी गाल बजाएं, सच तो यह है कि दुनिया मूर्खों के दम पर ही चल रही है और मूर्ख ही दुनिया का आनंद ले रहे हैं। इस सत्य से इत्तफाक रखने वाले अनेक बुद्धिमान तो आनंद लेने के लिए मूर्ख बनने को सहर्ष तैयार रहते हैं। इसमें दो राय नहीं कि बौद्धिक और चेतन होना समस्त दुखों की जड है। तुलसीदास जी जैसे तत्वज्ञानी ने गहन शोध के आधार पर ही निष्कर्ष दिया होगा, 'सबसे भले विमूढ, जिनहिं न व्यापहिं जगत गति।

असल में जगत गति से मुक्त दो ही प्रकार के जीव होते हैं - एक तो महात्मा और दूसरे मूर्खात्मा।

तुलसीदास जी द्वारा की गई प्रशंसा से एक बात सिद्ध होती है कि मूर्खों का अस्तित्व आदिकाल से है। वे सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। इस परंपरा में थोडा और पीछे चलें तो कालिदास एक लैंडमार्क हैं। कहा जाता है कि वे जिस डाल पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। यहीं से उनका भाग्य बदला। इस परंपरा का पालन आज भी बडे मनोयोग से हो रहा है। जो अपनी डाल को काट रहा है, वह बहुत विकास कर रहा है। सच पूछिए तो बात और आगे बढी है। अब तो डाल छोडिए, लोग अपनी जडों को काटकर विकास कर रहे हैं। जो अपनी जडों को पकडे हुए हैं, वे किसी जड से कम नहीं माने जा रहे हैं। सुपुत्रजन वयोवृद्ध माता-पिता से कटकर खजूर की तरह बढ चले हैं। उनका अपना परिवार है, कब तक जड से चिपके रहेंगे? परिवार और समाज की जड काटने की तुलना में देश की जड काटने से ज्य़ादा लाभ होता है। यह लाभ जयचंद और मीर जाफर ले चुके हैं। लोग न जाने कितना विकास तो सरकारी गोपनीय फाइलों की फोटोकॉपी बेचकर कर ले रहे हैं। उद्योग जितने बडे स्तर पर होगा, लाभ भी उतना ही बडा होगा। इसलिए देश की जड काटने वाले लोगों की पांचों उंगलियां घी और सिर कडाही में है।

डाल पर बैठना यों भी मनुष्य का काम नहीं है। फिर वह डाल की रक्षा क्यों करे? डाल यानी शाख पर तो उल्लू बैठते हैं, जिन्हें ध्वनिमत से मूर्ख घोषित कर दिया गया है। अपने देश में उसे इस आशय का जेनुइन प्रमाणपत्र जारी कर दिया गया है। आज तक कोई भी पक्षीविज्ञानी इस धारणा से सहमत नहीं हो पाया है कि उल्लू इतना बडा मूर्ख होता है कि उसका उपयोग बानगी और मुहावरे के तौर पर किया जाने लगे। परंतु जहां हमारा प्रत्यक्ष लाभ न हो, हम विदेशी वैज्ञानिकों की बात नहीं मानते। यह अपने ही देश की हवा का असर है कि लक्ष्मी के वाहन को हम उल्लू यानी कि मूर्ख होने की मान्यता प्रदान करते हैं। जो जीव लक्ष्मी का प्रिय हो और इतनी तीव्र दृष्टि का हो कि अंधेरे में देख सके, वह मूर्ख कैसे हो सकता है? यह मान्यता केवल अवसादग्रस्त या ईष्र्यालु िकस्म के प्राणियों की ही हो सकती है और इस भारतभूमि पर ऐसे प्राणियों का अच्छा प्राचुर्य है। यही उल्लू किसी और देश की लक्ष्मी का वाहन होता तो उसकी बुद्धिमत्ता का चालीसा बन चुका होता।

उल्लू मूर्ख होता है या बुद्धिमान, इसका निर्णय कर पाना असंभव है। उल्लू के पक्ष-विपक्ष में अपने-अपने तर्क हैं। एक बात जरूर है कि हर शख्स सामने वाले को उल्लू बनाकर बहुत प्रसन्न होता है। कुछ लोगों के लिए तो उल्लू बना लेना जीवन का चरम उत्कर्ष होता है। जितना आनंद इस कार्य में आता है, उतना और किसी में नहीं। कुछ ऐसे होते हैं जो किसी दिन उल्लू न बना पाएं तो तबीयत ख्ाराब हो जाती है। इनका जीवन-यापन ही उल्लुओं के सहारे होता है।

कुछ रिसर्चियों का मानना है कि शारीरिक भार और मूर्खता में अनुलोम यानी सीधा संबंध होता है। प्रमाण के तौर पर वे भैंस का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस क्रम में बैल और गैंडे जैसे दो और जीवों का अनेक्सर भी जोड देते हैं। भैंस को तो अक्ल का दुश्मन तक मान लिया गया। कह दिया गया कि भैंस पर बीन का भी असर नहीं होता, जबकि सांप जैसा बिगडैल जीव भी बीन पर दो चार स्टेप दिखा देता है। इस पर भैंस ही नहीं, बैल से भी सहानुभूति रखने वाले कुछ लोगों को आपत्ति है। वे बुद्धि को शारीरिक भार से जोडे जाने के पक्ष में नहीं हैं। अपने पक्ष में वे गधे का उदाहरण देते हैं। यदि मूर्खता और भार समानुपाती हैं तो गधे को सबसे बडा मूर्ख क्यों मान रखा है? ऐसे तो हाथी को महामूर्ख होना चाहिए, जबकि उसे उच्च बुद्धिमत्ता का प्रमाणपत्र दे रखा है!

यह आपत्ति तर्कसंगत लगती है। दरअसल अनुपात तो बुद्धि और कर्म का उल्टा होता है। व्यक्ति बुद्धिमान होकर भी मेहनत करे तो वह बुद्धिमान किस बात का? बुद्धिमान तो वह जो दूसरों की मेहनत की कमाई खाए। किसी पहुंचे हुए फकीर ने मुहावरा दिया कि बेवकूफ कमाते हैं और यकूफदार खाते हैं। अगर मेहनत ही करनी है तो इंसान और गधे या बैल में अंतर ही क्या रह गया? जिस प्राणी की न कोई रुचि हो, न पसंद तथा जीवनयात्रा घर और घाट तक सीमित हो, वह गधा नहीं तो और क्या है? मेहनत करना भी उतनी बडी मूर्खता नहीं है जितनी कि दूसरे के लिए मेहनत करना। मेहनत तो चींटी और मधुमक्खी भी करती है, किंतु उसे मूर्ख की उपाधि नहीं प्रदान की गई। कारण यह है कि वे मेहनत करके अपना घर भरती हैं जबकि गधे और बैल दूसरे का।

अति कर्मठता के अतिरिक्त कुछ अन्य लक्षण भी हैं जिससे एक सच्चे मूर्ख की पहचान की जा सकती है, जैसे बहाना न बना पाना, सच बोलना, ईमानदारी इत्यादि। मूर्ख व्यक्ति की सबसे बडी कमजोरी यही होती है कि वह बहाना बना पाने में सिद्धहस्त नहीं होता। परिणाम यह होता है कि उसे घर से घाट के कार्यक्रम में व्यस्त रहना होता है। जब मर्जी उसे घर भेज दे और जब चाहे तब घाट।

काम भले गधावत करना पडे, पर यह स्वीकार करने वाले लोग भी कम नहीं हैं कि मजे तो मूर्खों के ही होते हैं। कुछ बुद्धिमान तो मूर्खता के प्रति इतने लालायित रहते हैं कि मूर्ख बनने के अवसर ढूंढते रहते हैं। यह कुछ उसी प्रकार है जैसे स्वर्ग के देवतागण भारतभूमि पर आने को लालायित रहते हैं। यह बात अलग है कि आजकल का माहौल देखकर उनकी भी हिम्मत डिग गई है। यदि मूर्खता का थोडा सा स्वांग कर देने से किसी काम या जिम्मेदारी से मुक्ति मिल सके तो इसमें हर्ज ही क्या है? मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य भी तो मुक्ति ही है।

सुना है कि मूर्खता लाइलाज होती है। मूर्खों से गहरी सहानुभूति रखने वाले तुलसीदास जी ने भी इस मामले में कोई उदारता नहीं बरती। सैकडों बार गुरुमहिमा का गान बखान करने वाले गोस्वामी जी मूर्खता से मुक्ति के विषय में निराशावादी लगते हैं। गुरु समस्त असंभव को संभव बना सकता है, परंतु किसी मूर्ख को बुद्धिमान नहीं - 'मूरख हृदय न चेत, जदपि गुरु मिलहि बिरंचि सम। गनीमत है कि कोई स्वयं को मूर्ख नहीं मानता, वरना अब तक तो जाने क्या हो गया होता।

मूर्खता का गारंटीड इलाज करने का दावा करने वाला कोई वैद्य भी अब तक आगे नहीं आया। इस रोग को दूर करने हेतु सक्षम दवा बनाने का प्रचार किसी पैथ ने नहीं किया है। उन्हें पता है कि ऐसी दवा के ग्राहक मिलेंगे ही नहीं। जब 99 प्रतिशत रोगियों में से एक व्यक्ति भी स्वयं को मूर्ख मानने को तैयार नहीं है तो इस दवा को ख्ारीदेगा कौन? वे यह भी जानते हैं कि दुनिया की कोई दवा इस प्रजाति में कोई सुधार नहीं कर सकती।

मूर्खता का जीवन से अटूट संबंध है। इसे बेकार मानने वाले मूर्ख हैं। मूर्खता से जीवन में महान गुणों का संचार होता है। दूसरे की मूर्खता देखकर होठों पर सहज मुस्कान खिल जाती है। यदि मूर्ख न हों तो न जाने कितने लतीफेबाज बेरोजगार हो जाएं। जब मूर्खता की बात आती है तो लोग अपने दुश्मन के प्रति भी उदार हो जाते हैं और दिल खोलकर दुश्मन की मूर्खता का गुणगान करते हैं। इससे समाज में समरसता एवं व्यक्ति में उदारता का विकास होता है। सच तो यह है कि जो जितना बडा मूर्ख होता है वह स्वयं को उतना ही बुद्धिमान मानता है। मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति में बुद्धिमान होने का आत्मविश्वास होता है जो बार-बार उल्लू बनने के बाद भी नहीं डिगता। वह तो सुकरात जैसा विद्वान था जिसने कहा कि सारी दुनिया मूर्ख है, केवल मैं बुद्धिमान हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं मूर्ख हूं। हमारी विडंबना तो यह है कि हम यह भी नहीं जानते कि हम मूर्ख हैं!

हरिशंकर राढी


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.