नए साल में नया क्या है?
नया साल आने के महीने भर पहले से ही उसके स्वागत की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। एक त्योहार जैसा माहौल बन जाता है। पहले यह त्योहार केवल महानगरों तक सीमित था, पर अब छोटे शहरों और कस्बों से होते हुए इसका असर गांवों तक भरपूर देखा जाता है। नए
नया साल आने के महीने भर पहले से ही उसके स्वागत की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। एक त्योहार जैसा माहौल बन जाता है। पहले यह त्योहार केवल महानगरों तक सीमित था, पर अब छोटे शहरों और कस्बों से होते हुए इसका असर गांवों तक भरपूर देखा जाता है। नए साल के नएपन पर एक नए शोध के कुछ निष्कर्ष।
आजकल पान की दुकान या कॉफी हाउस पहले जैसे लोकप्रिय नहीं हैं। पान का स्थान पान-मसाले के पाउच ने ले लिया है और कॉफी का सुरा ने। पर पुराने लतियल विवश हैं। आकर्षण की अदृश्य डोर उन्हें कभी जाने कभी अनजाने, मोहल्ले के तांबूल वितरण केंद्र की ओर बरबस ले ही जाती है। कई बार ऐसा होता है कि हम सब्जी-भाजी लाने के इरादे से निकले और पान की दुकान पर जा टिके।
इसी दुकान पर एक और लतियल आतताई भी आते हैं। वह यूनिवर्सिटी में हिंदी के मुदर्रिस हैं। ऐसों के घरों पर नौकर-चाकर नहीं, शोधछात्र होते हैं। इधर पान ले जाने की जिम्मेदारी ज्य़ादातर ऐसे ही छात्रों की है। उस दिन दिखे तो हमने आने वाले नए साल की अग्रिम बधाई दी। पता नहीं, नए वर्ष में कब दर्शन हों? उन्होंने तत्काल हमारी बात काटी, 'नए साल में कैलेंडर, डायरी और छात्रों के अलावा और नया होता ही क्या है?
हम क्यों हार मानते? 'ऐसा नहीं है, आतताई जी! बजट, कीमतें, सूखा, बाढ कुछ भी नया होना संभव है। कौन कहे, नए साल में आप कहीं वाइस-चांसलर न हो जाएं!
इससे उनकी मुखमुद्रा थोडी सुधरी, वह भी एक क्षण को। 'देखिए, हम एकेडमिक लोग किंतु-परंतु के दर्शन में यकीन कम करते हैं। यूं तो जिंदगी में सब मुमकिन है, पर कहीं-कहीं तो बदलाव तय है। हमने उसी का जिक्र किया है। आपकी बातों में दम है। हम अपने शोधछात्रों से अनुरोध करेंगे, वे तथ्यात्मक आधार पर अनुमान लगाएं कि नए साल में क्या-क्या नया होना संभव है?
हमें एक पल को हंसी आई। आतताई ने सहज ज्ञान से जो कहा था, उसमें गलत क्या है? अब देखना है कि छात्रों की गहन छान-बीन से क्या नतीजा निकलता है? गुरुओं ने भले पी-एच.डी. दिलाने का शतक लगा लिया हो, उनके डॉक्टर छात्र अब भी नौकरी की सर्च-रिसर्च में लगे हैं। विश्वविद्यालय में और कहीं अनुशासन हो न हो, शोध के क्षेत्र में होना ही होना है। घर का काम हो, या बाजार का या कॉपी जांचने जैसा, शोधछात्र बिना उफ किए सब करने को प्रस्तुत हैं। कोई भले अपने घर में झाडू न लगाए पर गुरु का घर तो पी-एच.डी. की दुकान है। इसे तो साफ रखना ही है, वरना कहीं गुरुआइन के गुस्से का शिकार न हो जाएं। गुरुआइन की कृपा है तो गुरु की नाराजगी क्या बिगाड लेगी?
कई बार शिष्यों ने, उनसे झाडू झपटकर, गुरुआइन द्वारा गुरु को दौडाए जाते देखा है। शिष्य जानते हैं, नामी गुरु वही हैं जो दौडते-दौडाते रहें। यूनिवर्सिटी में रहें तो कुलपति की ख्ाुशामद के लिए, शहर में सियासी आकाओं की। बाहर जाएं तो परीक्षार्थियों को दौडाएं। यों वह वचन के पक्के हैं। किसी को पी-एच.डी. का आश्वासन दिया तो करवा के ही मानते हैं। इधर शोधार्थियों के अनुसार गुरुओं का नैतिक पतन हुआ है। थीसिस पूरी होते-होते उनकी अपेक्षाएं झाडू-पोंछे से राशन-बर्तन के स्तर तक जा पहुंचती हैं। इसके बाद मौखिक परीक्षा में पधार रहे गुरु के नाम पर कैश की अपेक्षा! कई शोधार्थियों का विचार है कि इतनी नकदी और श्रम तथा चाटुकारिता के सौदे से बेहतर था कि कुछ कम ख्ार्च कर वह सरकार में चपरासी हो जाते।
गुरु के स्मरण में इतना जादुई प्रभाव है कि अच्छे-अच्छे उनको याद करें तो लक्ष्य से भटकें। हम नववर्ष के विषय से भटके तो आश्चर्य क्या! कुछ अंतराल बाद पान की दुकान पर गुरु जी के दर्शन हुए। हमने उन्हें पिछला वादा याद दिलाया। उन्होंने हमारे प्रश्न को गंभीरता से लिया, 'आपने सही सोचा है। कइयों ने विषय का अध्ययन किया है। कुछ ने टी.वी. की तर्ज पर लोगों की राय भी ली है। हमने एक शोधार्थी से सबके निष्कर्ष की टिप्पणी बनाने को कहा है। वह भी कल तक मिल जाएगी। बडे-बडों का अनुकरण करते हैं। उन्होंने भी ऐसा ही किया, 'कल शाम को इस विषय की चाय पर चर्चा हो सकती है।
हमें लगा कि गुरुसे ज्ञान झटकना आसान नहीं है। वह बिना कीमत ऐंठे कोई काम नहीं करता है, तो यह नेक कर्म क्यों करे! अपनी समझ में आ गया कि गुरु बिरादरी चरित्र की पक्की है। उसे बिना फी लिए फ्री में कार्य कर अपनी स्थापित छवि और चरित्र को कलंकित करना स्वीकार नहीं है।
अगले दिन यूनिवर्सिटी के पास के रेस्ट्रां में गुरुने चाय-पकौडे पर शोधार्थियों द्वारा संपन्न शोध के नतीजे सुनाए। उनका बिंदुवार विवरण किसी भी शैक्षिक चर्चा के समान इतना उबाऊ था कि गुरु दो कप चाय के साथ पकौडी और एक प्लेट चीज सैंडविच का हनन भी कर गुजरे। हम उनके नतीजों का बेहद संक्षिप्त रूप देने पर विवश हैं, अन्यथा यह लेख किसी पैंफ्लैट का रूप ले लेगा। हमें एक अन्य संदेह है। चेलों के शोध पर गुरु के विचारों का इस हद तक असर है कि वह वस्तुनिष्ठ नहीं है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। उनकी पी-एच.डी. गुणवत्ता पर निर्भर न होकर, गुरुकी अनुकंपा पर निर्भर है, जैसे सरकार में करुणामूलक नियुक्तियां होती हैं।
शोधार्थी ने शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि नए वर्ष का हर्षोल्लास महज एक दिखावा है। इससे केवल कुछ बाह्य परिवर्तन होते हैं जैसे कैलेंडर, वर्ष, कभी फैशन, कहीं सडकों के नाम वगैरह। देखने में आया है कि सभ्यता की समय के साथ तथाकथित तरक्की सिर्फ इतनी है कि हमारे अंतर में बर्बरता, पशुता और पारस्परिक संशय और अविश्वास दिनो-दिन तरक्की पर है, वरना बढते अपहरण, दुष्कर्म, पारिवारिक विघटन जैसे हादसे क्यों अख्ाबारों की सुर्खियों में छाते?
कुछ लोग इस मुबारक मौके पर फार्म हाउस में दोस्तों के साथ धुत होते हैं तो कुछ महंगे पांचसितारा होटलों में। शोधार्थियों के पल्ले नहीं पडा कि ऐसा कौन सा दर्द है, जिसे भुलाने ऐसों को हर वर्ष के प्रारंभ में होश गंवाना पडता है। धंधे-व्यापार पर इतने कर हैं। कुछ औपचारिक हैं, कुछ अनौपचारिक। आय और बिक्री कर जैसे सरकारी तथा दबंग दल का सुरक्षा देने या मंत्री की सहायता को गैर-सरकारी शुल्क! इसके अलावा दैहिक-दैविक ताप भी हैं। कुछ हर साल के समापन के साथ खाता बंद करते हैं नया चालू करने को, कुछ अपनी पिछली वारदातों पर जी भरके पछताते रहते हैं।
नए वर्ष में सडक के चौडे और मन के संकरे होने की पूरी संभावना है। पेड कटेंगे, प्रदूषण में इजाफा होगा। नदियों का पानी इतना मटमैला है कि उससे अब आसमान तक नहीं झांकता। सरकारों को चुनावी तैयारियों और अपना अस्तित्व बचाने से फुर्सत मिले तो इनमें भी सुधार संभव है। कुछ अतिआशावादी हैं। उन्हें विश्वास है कि महंगाई में भी कमी आएगी। वह भूलते हैं। महंगाई एक प्रगतिशील शै है। उसका विश्वास निरंतर तरक्की में है। हमारी प्रार्थना है कि वह जहां है, वहीं टिकी रहे। गरीब के लिए यही बडी नियामत होगी।
कुछ अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि नए साल में विकास की दर बढेगी। हर साल यह सुनते-सुनते अपने कान पक गए हैं। यों भ्रष्टाचार, शोर, दुर्घटना, अपराध, आबादी, हत्या, डकैती, बेरोजगारी, कारों के मॉडल, शरीर प्रदर्शन के फैशन आदि में उत्साहवर्धक इजाफा है। पता नहीं, विकास से ज्ञानियों का आशय कहीं इन बातों की ओर तो नहीं है? अगर, उनकी नजर में कीमतों की वृद्धि विकास का मानक है तो देश में विकास आया ही नहीं, गांव-जिले के बिना सडक के रास्तों पर सरपट दौड भी रहा है।
अभी तक हमने विद्वानों से सुना ही था कि भारत इकलौता देश है जो आदमी-जानवर में ख्ाास भेदभाव नहीं करता है। नए साल में सुबह-सुबह जब हम मजबूरन घर से सैर के लिए खदेडे गए तो हमने देख भी लिया। रात को मोहल्ले के पार्क में 'नव वर्ष, नव हर्ष का आयोजन था। अब अंदर-बाहर खाने की बर्बादी का दिलकश नजारा है। इंसान और श्वान में भयंकर प्रतियोगिता है। कुत्ते खाने की ताक में आदमी को भौंक-भौंक कर भगा रहे हैं, आदमी हैं कि खाना बटोरने में लगे हैं।
सबेरे-सबेरे सडक नापने के आदी बताते हैं कि हर साल नए वर्ष का सूरज इसी मनोहारी दृश्य के साथ उगता है। हमें लगता है कि आदमियों की भूखी भीड में कुछ कमी का सुखद बदलाव आए तो नया साल भी नई आशा लाकर रहेगा। कुत्तों से इस हद तक बराबरी, इंसान के लिए किसी भी हाल में उचित नहीं है। यह स्थिति तो तब है जब हम दो-तीन दशकों से गरीबी हटाने की मुहिम में लगन और समर्पण से लगे हैं।
गोपाल चतुर्वेदी