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दीवाली के तीन दीये

उर्दू लेखक व फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून 1914 को पानीपत में हुआ। उन्होंने डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी, श्री चार सौ बीस,बॉबी और मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मों की कहानियां, स्क्रीन प्ले और संवाद लिखे।

By Edited By: Published: Fri, 01 Nov 2013 02:45 PM (IST)Updated: Fri, 01 Nov 2013 02:45 PM (IST)
दीवाली के तीन दीये

उर्दू लेखक व फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून 1914 को पानीपत में हुआ। उन्होंने डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी, श्री चार सौ बीस,बॉबी और मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मों की कहानियां, स्क्रीन प्ले और संवाद लिखे। दो बूंद पानी, सात हिंदुस्तानी व हवा महल को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। उनका निधन 1978 में हुआ। उन्हें 1968 में पद्मश्री से नवाजा गया। कई अन्य अवॉ‌र्ड्स भी मिले। दीप-पर्व पर एक संदेशपरक कहानी।

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पहला दीया

दीवाली का यह दीया कोई मामूली दीया नहीं था। दीये की शक्ल का बडा सा बिजली का लैंप था, जो सेठ लक्ष्मीदास की कोठी के सामने बरामदे में लगा था। बीच में दीयों का सम्राट था। जैसे सूर्य के इर्द-गिर्द असंख्य तारे हैं, वैसे ही इस दीये के चारों ओर हजारों बल्ब जगमगा रहे थे, मालिन ने हार में चमेली के सफेद फूल गूंथे हों जैसे। बरामदे के हर मेहराब में दीयों के हार थे। पूरे घर में दस हजार बिजली के दीये शाम से ही दीवाली मना रहे थे, लेकिन एक दीया प्रमुख था। यह दीयों का सम्राट था, जो शाम के धुंधले को दोपहर जैसा रोशन किए था। यह दीया सेठ लक्ष्मीदास अमेरिका से लाए थे। वह वहां अपनी कंपनी के लिए बिजली का सामान खरीदने गए थे। यह दीया उन्हें भेंट में मिला। शाम से ही यह दीया अपनी भडकीली अमेरिकन शान से जल रहा था। लक्ष्मीदास का कहना था कि दीवाली सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। जितनी ज्यादा रोशनी होगी, उतनी ही लक्ष्मी मां की कृपा बरसेगी। यह बात सच भी साबित हुई थी। 20-22 साल पहले जब उनके पास कपडे की छोटी दुकान थी, घर में कडवे तेल के सौ दीये जलते थे। फिर युद्ध के दौरान उन्हें सैनिकों को कंबल सप्लाई करने का ठेका मिला। इसके बाद उनका नया घर बना तो एक हजार दीये जगमगाने लगे। फिर देश आजाद हुआ। उन्हें बांध बनाने के लिए मजदूरों की सप्लाई का ठेका मिला। अब जो बंगला बना तो उसमें पांच हजार बिजली के बल्ब जगमगा उठे। इस साल तो अमेरिकन कंपनी के साथ साझेदारी से कई करोड का कारखाना बना था। इसमें लाखों की आमदनी होनी थी, अगर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट परेशान न करे। कौन जाने, इस बार देवी मां प्रसन्न हों और सेठ जी अगले साल तक पांच-छह कारखाने और खरीद लें।

..सेठ साहब बिजली विभाग के इंजीनियर को निर्देश दे रहे थे कि वह कनेक्शन पर पूरा ध्यान दें, ताकि कोई चूक न रहे। जेनरेटर सेट भी लगाया गया ताकि बिजली जाने पर भी रोशनी रहे। एकाएक सेठ साहब को लगा, मानो प्रकाश तेज हो उठा है।

देवी लक्ष्मी आ गई.., उन्होंने उल्लसित भाव से कहा। हालांकि इंजीनियर ने समझाया कि ऐसा वोल्टेज बढने से हुआ है। इंजीनियर को रोशनी की देखरेख करने की हिदायत देकर सेठ साहब सीढियां उतरकर बाग की ओर चले गए, जहां हर पेड पर बिजली की लडियां झूल रही थीं। तभी उनकी नजर सामने सडक पर खडी स्त्री पर पडी, जो गांव से आई प्रतीत होती थी। बदन पर मैला सा घाघरा व सिर पर ओढनी थी। वह एक गठरी लिए थी। कपडों में जगह-जगह पैबंद थे। होगी कोई भिखारिन, सेठ ने मन में सोचा। क्या चाहिए? उन्होंने सीढियां उतरते हुए पूछा। नजदीक जाने पर उन्होंने देखा कि स्त्री खूबसूरत और युवा है।

एक रात ठहरने का ठिकाना चाहिए सेठ जी, दूर से आई हूं.., स्त्री ने याचना सी की।

ना बाबा, माफ करो, वे जल्दी से बोले। एक अनजान युवा स्त्री रात भर उनके घर में रहे तो इसके परिणाम क्या होंगे? हो सकता है वह चोर हो या उन्हें ब्लैकमेल करके रुपये वसूल कर ले..। उनका बेटा बडा था, कहीं इसके चक्कर में न आ जाए। सेठ जी के मन में फिर भी कुछ संवेदनशीलता तो थी। सोचा, दीवाली की रात किसी को खाली हाथ नहीं लौटाना चाहिए। बोले, भूखी हो तो खाना दे देता हूं। लड्डू-पूरी., जो जी चाहे, खाओ।

मैं भिखारिन नहीं हूं, सेठ जी! उसने सिर पर रखी गठरी की ओर इशारा करते हुए कहा, मेरे पास खाने को बहुत-कुछ है। मकई की रोटी-चने का साग। गांव का घी-दही-दूध है। आपके पूरे घर को भोजन करा सकती हूं। मुझे बस रात भर का ठिकाना चाहिए।

सेठ घबरा गए। सोचा, एक मामूली स्त्री तो इस तरह नहीं बोल सकती। कहीं सीआइडी या इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से तो नहीं आई! गला साफ कर बोले, बाबा, माफ करो। हमारे घर में जगह नहीं है।

ओह, तब दूसरा घर देखना पडेगा.., कहते हुए स्त्री चली गई। सेठ मुडे और बरामदे की ओर चलने लगे। एकाएक उन्हें लगा मानो अमेरिकन दीये का प्रकाश पीला हो रहा है। पावर-हाउस का करेंट कम हो रहा है, कहते हुए वह चिल्लाए तो इंजीनियर दौडता हुआ आया और बोला, सेठ जी, करेंट ठीक है। जेनरेटर भी तैयार है। आप घबराएं नहीं।

मगर सेठ जी का दिल अजीब सी बेचैनी से धडक रहा था। एक पल को भी अंधेरा हो गया और लक्ष्मी मां रूठ कर चली गई तो?

दूसरा दीया

इनकम टैक्स अधिकारी लक्ष्मीकांत तेल की बोतल लेकर अपने फ्लैट की बालकनी में निकला। उसने देखा कि सामने सेठ लक्ष्मीदास का महल बिजली के बल्बों से जगमगा रहा है।

सोचने लगा, हां, भई जब इतना काला पैसा हो तो दस लाख बल्ब भी जलाए जा सकते हैं। फिर उसने देखा कि उसकी बालकनी की मुंडेर पर जलते सौ दीयों में से एक की लौ धीमी हो रही है। घबरा कर सोचा, कहीं दीया बुझ न जाए, अपशकुन हो जाएगा। जल्दी से जाकर उसने दीये में तेल उलट दिया। बत्ती ऊपर करते ही लगा मानो सारे सौ दीयों की रोशनी तेज हो उठी हो।

धन्य हो देवी! उसने दीवार पर लगी लक्ष्मी मां के चित्र को प्रणाम किया, इस वर्ष तो तुम्हारी कृपा रही है।

फिर वह कुर्सी पर बैठा और अपना जासूसी उपन्यास पढने लगा, जो खत्म होने ही वाला था। हीरो डाकुओं की टोली के पंजे में फंसा था और निकलने की जुगत कर ही रहा था कि दरवाजे की घंटी बजी। रसोई से पत्नी चिल्लाई, अजी, देखना तो कौन है? कहीं सेठ जी के यहां से मिठाई तो नहीं आ गई?

मंगू से कहो न? उपन्यास से नजरें उठाए बिना वह बोला।

मंगू को मैंने बाजार भेजा है मिठाई लाने.. तो गंगा से कहो..

गंगा उनके यहां झाडू-पोछा-बर्तन करती थी। गंगा की तो मैंने छुट्टी कर दी है। बोलती थी, दीवाली की छुट्टी लेगी, मैंने उसकी छुट्टी ही कर दी.., पत्नी का चिडचिडाहट भरा स्वर फिर सुनाई दिया।

घंटी एक बार फिर से बजने लगी।

हार कर उसने किताब छोडी और दरवाजा खोला। सामने एक स्त्री थी। मैले-कुचैले से कपडे, दिखने में गंवार, लेकिन शक्ल सुंदर। लक्ष्मीकांत मन ही मन सोचने लगा, सुंदरता पर भी टैक्स लगना चाहिए। गला खंखार कर ऊंची आवाज में बोला, क्या चाहिए?

बाबू जी, दूर से आई हूं। एक रात ठहरने का प्रबंध हो जाए तो कृपा होगी।

लक्ष्मीकांत ने एक बार स्त्री का पूरा निरीक्षण किया। फिर कनखियों से रसोई की ओर देखा, जहां पत्नी पूरियां तल रही थी। पत्नी लाजो आकर्षक नहीं थी, मगर अब तो वह फूहड भी दिखने लगी थी। मुंह पर चेचक के दाग थे, लेकिन दहेज में दस हजार नकद लाई थी। इसलिए रिश्तेदारों ने बधाइयां दी थीं, लक्ष्मीकांत, तेरे घर तो लक्ष्मी आई है।

लक्ष्मीकांत ने एक बार फिर पत्नी और उसके हाथ में रखे बेलन को देखा। फिर धीरे से स्त्री की ओर मुख्ातिब हुआ, आई कहां से हो?

दूर से आई हूं बाबू जी। पर अभी तो सेठ लक्ष्मीदास के यहां से आई हूं।

अरे तो सेठ जी ने तुम्हें जगह नहीं दी? वहां से सीधी यहां चली आई..?

जी बाबू जी।

लक्ष्मीकांत ने कई जासूसी उपन्यास पढे थे। उसे मालूम था कि यदि कोई पूंजीपति किसी को बर्बाद करना चाहे तो ऐसी स्त्री उसका हथियार भी हो सकती है।

हूं.. तो सेठ जी ने मुझे यह भेंट भेजी है..। मगर दांत भींच कर उसने प्रत्यक्ष में इतना ही पूछा, इस गठरी में क्या है?

मकई की रोटी, चने का साग, गांव का असली घी-दूध-दही है।

जरूर इस गठरी में गहने और निशान लगे नोट होंगे। रात में यह गठरी यहां छोड कर चंपत हो जाएगी। इसके बाद शुरू होंगी सेठ की धमकियां। इनसे बचने के लिए उसे सेठ के इनकम टैक्स के रिटर्न पास करने पडेंगे।

जाओ, दूसरा घर देखो, उसने युवा स्त्री को अंतिम बार ठंडी आह भरते हुए देखा और न चाहते हुए भी दरवाजा बंद कर लिया।

कौन था? लाजो रसोई से चिल्लाई।

कोई नहीं..

कोई नहीं था तो किससे बातें कर रहे थे?

कोई भिखारिन थी..

भिखारिन? तभी इतनी देर तक मीठी-मीठी बातें कर रहे थे। मैं तुम्हें खूब..

इस बार फिर से घंटी बजी तो दोनों ने एक साथ दरवाजे की ओर देखा।

जाओ, फिर तुम्हारी भिखारिन आई होगी, पत्नी ने हुक्म दिया। लक्ष्मीकांत ने दरवाजा खोला, तो सफेद वर्दी पहने ड्राइवर हाथ में मिठाई का बडा-सा डिब्बा लिए खडा था।

सेठ लक्ष्मीदास ने मिठाई भेजी है..

लाजो ने जल्दी से डिब्बा ले लिया और फिर रसोई से ही चिल्ला कर ड्राइवर से बोली, अच्छा भैया, सेठ जी से हमारा नमस्ते कहना और दीवाली की बधाइयां देना।

दरवाजा बंद करके लक्ष्मीकांत कमरे में जाने ही लगा था कि पत्नी ने उसे डांटा, अरे, अब यहां खडे होकर मेरा मुंह क्या देख रहे हो? जल्दी से बाहर जाओ और दीयों में तेल डालो। देखो, उनका प्रकाश कम होता जा रहा है..।

तीसरा दीया

यह दीया एक ही था। अकेले ही झोपडी के बाहर टिमटिमा रहा था। उसमें तेल भी बहुत कम था। अंदर चारपाई पर लक्खू बीमार पडा था। उसका नाम भी कभी लक्ष्मीचंद हुआ करता था, जब वह गांव से शहर आया था। लेकिन अब तो मिल और बस्ती में सभी उसे लक्खू पुकारते थे। गरीब मजदूर और वह भी बेकार-बीमार.., भला कौन उसे लक्ष्मीचंद कहेगा।

उसकी पत्नी गंगा एक कोने में चूल्हे पर भात पका रही थी। घर में दो रुपये थे। उससे वह लक्खू की दवा ले आई। जहां काम करती थी, वहां मालकिन ने इसलिए निकाल दिया कि उसने दीपावली की छुट्टी मांगी थी। पंद्रह दिन बाकी थे महीना पूरा होने में, मगर पगार नहीं मिली, उल्टे कहा गया कि दीपावली के बाद आना। तभी उसके दोनों बच्चे भागते हुए आए। बडा सात वर्ष का- लच्छमन और छोटी चार वर्ष की थी मीना। लच्छमन बोला, मां, देखो तो सेठ जी के महल में कितने दीये जल रहे हैं और एक दीया तो इतना बडा है कि सब उसे दीयों का सम्राट बोलते हैं।

तभी छोटी मीना ने भिनक कर कहा, मां, मुझे जोर की भूख लगी है।

लच्छमन ने उसे डांट दिया, मुझे भी तो भूख लगी है। अच्छा मां बोलो तो, हमारे यहां एक ही दीया क्यों जल रहा है?

इसलिए बेटा कि हम गरीब हैं। तेल महंगा है। इतने दीये कैसे जलाएंगे।

तभी लक्खू जोर से चिल्ला कर बोला, अरे तो इस दीये को भी बुझा दे.., बोलते हुए उसे खांसी का दौरा पडा। तब भी वह बोलता रहा, लक्ष्मी सेठ लक्ष्मीदास के महल में जाएगी, मेरे घर नहीं। थोडी देर में तेल खत्म हो जाएगा तो दीया भी बुझ जाएगा।

तभी लच्छमन चिल्लाया, बाबा, जरा देखो तो हमारे दीये की लौ ऊंची होती जा रही है।

पागल हुआ है क्या? लक्खू उसे डांटने ही वाला था कि यह देख वह आश्चर्य से भर गया कि बाहर रखे दीये की लौ झोपडी के भीतर तक आने लगी थी।

तभी किसी ने झोपडी का द्वार खटखटाया। गंगा ने दरवाजा खोला तो देखा, सामने एक स्त्री खडी है। क्या है बहन?

एक रात ठहरने का ठिकाना चाहिए। बडी दूर से आई हूं।

तो अंदर आओ न!

स्त्री अंदर आई तो साथ प्रकाश भी आ गया। लक्खू ने कहा, हमारे पास तो बस यही झोपडी है बहन। तुम्हें तकलीफ होगी, लेकिन अंधेरा काफी हो गया है और इतनी रात गए तुम कहां जाओगी? हमारे यहां खाट भी एक ही है। लेकिन मैं अपना बिस्तर जमीन पर कर लूंगा। तुम इस पर सो जाना।

स्त्री जमीन पर आराम से बैठ गई। अरे नहीं भाई, तुम बीमार हो। तुम खाट पर ही सोओ। मैं तो धरती से निकली हूं और मुझे उसी में आराम मिलता है..।

गंगा ने कहा, लगता है, शहर में पहली बार आई हो। दीवाली का प्रकाश देखा?

स्त्री ने थके से स्वर में कहा, हां, दीवाली का प्रकाश भी देखा और अंधेरा भी..।

गंगा उसका मतलब न समझी। लक्खू सोचने लगा कि यह स्त्री अनोखी लगती है। सहसा उसे लगा, मानो छाती से खांसी का बोझ कम हो रहा हो। कुछ ही देर में वह आराम महसूस करने लगा। वह एकाएक उठ कर बैठा और बोला, गंगा, आज तो मुझे भी भूख लगी है। निकाल खाना हम सबके लिए।

गंगा ने चूल्हे से हांडी उतारते हुए धीरे से कहा, भात तो है, मगर साथ में कुछ नहीं है। बहन, तुम सूखा भात खा लोगी?

तुम मेरी चिंता न करो, स्त्री ने अपनी गठरी सामने रख दी, मेरे पास सब कुछ है। यह तो मैं तुम्हारे लिए ही लाई थी।

हमारे लिए? तुम हमें जानती हो?

मैं तुम सबको जानती हूं..।

जैसे ही उसने गठरी खोली, खाने की खूशबू फैल गई। बच्चे पास आ गए। स्त्री एक-एक कर चीजें निकालने लगी, ये हैं मक्खन लगी मकई की रोटियां। यह है चने का साग और गांव का असली घी और यह है दीवाली की मिठाई, ये हैं असली खोए के पेडे, यह है दही। इस लुटिया में बच्चों के लिए गाय का दूध है, यह शहर का पानी मिला दूध नहीं है।

यह सुनकर सब हंस पडे। इतना खाना देख लक्खू की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। रोटी का कौर बनाते हुए बोला, खाने को इतना सब कुछ हो तो और क्या चाहिए?

वे खाना खा रहे थे और उस अनजान स्त्री को कनखियों से देख रहे थे, जो न जाने कहां से मसीहा बन कर वहां आ गई थी।

खाना खाकर गंगा ने कहा, बहन, आज तो तुम्हारी बदौलत हमारी भी दीवाली हो गई। लक्खू हंसकर बोला, वर्ना तो दीवाला ही दीवाला था। तुम्हारा शुक्रिया कैसे करें बहन! तब स्त्री ने कहा, धन्यवाद तो मुझे करना चाहिए। मैं पूरे शहर में फिरी, किसी ने आसरा न दिया। सबके बडे-बडे घर थे, पर दिल का दरवाजा बंद था। मेरे लिए तो तुम्हारी झोपडी का दरवाजा खुला। अब से मैं हर बरस दीवाली पर तुम्हारे यहां आया करूंगी।

गंगा ने कहा, बहन, तुम तो कल सुबह चली जाओगी। हम तुम्हें याद कैसे रखेंगे? हमें तो यह भी मालूम नहीं कि तुम कौन हो? कहां से आई हो? स्त्री बोली, मैं तो यहीं तुम लोगों के पास रहती हूं। उन्हीं खेतों में, जहां लक्खू भैया के बाबा अनाज उगाते थे और उस कारखाने में, जहां लक्खू भैया मशीनों से कपडा बुनते हैं। जहां कहीं भी मेहनतकश इंसान हैं, मैं वहां रहती हूं। दीवाली की रात मैं हर उस घर में जाती हूं, जहां एक दीया भी मुझे इंसानियत व सच्चे प्रेम का झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है।

थोडी देर झोपडी में सन्नाटा छाया रहा। अब इकलौते नन्हे से दीये का प्रकाश इतना तेज हो गया था कि झोपडी का कोना-कोना जगमगाने लगा था। दूर.. सेठ लक्ष्मीदास के महल में अंधेरा था। शायद बिजली चली गई थी और जेनरेटर भी फेल हो गया था। दूसरी ओर इनकम टैक्स अधिकारी लक्ष्मीकांत की बालकनी के दीये भी अब बुझ गए थे..।

देवी तुम्हारा नाम क्या है? गंगा ने पूछा। लक्ष्मी, स्त्री ने मुस्करा कर उत्तर दिया।

अनुवाद : सुरजीत

ख्वाजा अहमद अब्बास

सखी प्रतिनिधि


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