स्वयंसिद्धा
बचपन में वह मां को रोता हुआ देखती तो समझ न आता कि उसे कौन सा दर्द है। मालूम न था कि बड़े होने के बाद वही दर्द उसकी जिंदगी में भी आ जाएगा, जो शरीर से ज्यादा मन को मारेगा। फिर एक दिन उसे कोई मिला, जिसने उसे हंसना सिखा दिया और फिर से उसकी कहानियों के पात्रों को जीवंत बना दिया। मगर यह सुख स्थाई नहीं था। फिर कुछ ऐसा हुआ कि वह अकेली हो गई..।
उसके बिना शायद मैं अपना वजूद सोच भी नहीं सकती थी। मेरे परिवार ने उसे मेरे लिए चुना। साथ रहते हुए शायद मन में उसके लिए भावनाएं भी पनपी हों, हालांकि उनका पता मुझे चल नहीं सका। फिर न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह मुझसे मानसिक तौर पर जुदा हो गया। उसके बारे में इतना ही कह सकती हूं कि वह न इंसान था, न पूरी तरह पशु। कई बार तो मैं उसे समझ भी न पाती। कभी वह अपने आहत मन का दर्द मेरे सामने बयान करता तो कभी एकाएक उसका पुरुषत्व जाग उठता। उसे मेरे कर्तव्य बखूबी याद रहते, अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करना भी वह अच्छी तरह जानता था। लेकिन वह इतना भी पशु नहीं था कि बाहर मुंह मारने जाता, क्योंकि ऐसा करना वह सुरक्षित नहीं समझता था। इससे उसे गंदी बीमारियां हो सकती हैं। चाहे मर्जी हो या नहीं, आज्ञाकारी बच्ची की तरह मैं उसकी सेवा में हाजिर रहती। तन के स्तर पर एकतरफा संबंधों को मैं अपनी किस्मत मान कर ही अब तक जी रही थी..। मगर कई बार उसके शब्दों के वार कम पड जाते और वह मारपीट, लात-घूंसों पर भी उतर आता। हर बार शरीर के साथ मेरे मन के घाव बढते रहे और उन्हें मैं आसानी से मिटा नहीं सकती। यहीं से मानसिक दूरी की शुरुआत हो गई..।
बचपन में मुझे पता नहीं था कि दर्द क्या होता है। मां को रोते देखती तो सोचती कि वह क्यों सबसे छिप कर मुंह में पल्लू ढांप कर रोती हैं। हम बच्चों के सामने वह यूं सहज रहती, मानो कुछ न हुआ हो। हमें भी मनमुताबिक भोजन मिल जाता, हम पढने-खेलने में मगन हो जाते। खुद में खोई रहने वाली मां से हमारी ज्यादा आकांक्षाएं नहीं थीं।
हमने पिता को महीनों घर आते नहीं देखा। वह कहां रहते थे, यह बात मां और हमारे सिवा शायद पूरे मुहल्ले को मालूम थी। मां ने कभी यह दुस्साहस नहीं दिखाया कि पूछती क्या उन्होंने कोई और बीवी रख छोडी है। जब कभी वह अस्फुट स्वर से कुछ पूछना चाहतीं, उनकी पीठ पर बेल्ट की मार के नीले निशान अगले कई दिनों तक हमें देखने को मिलते। मुझे उन निशानों को देख कर बहुत दुख होता। मां की चुप्पी पर क्रोध भी आता, लेकिन उनकी सूजी आंखें देख कर कुछ पूछने या कहने की हिम्मत न पडती। मेरा नन्हा सा मन उनके लिए परेशान हो जाता और मैं मां से लिपट कर खूब रोती। इस बहाने मां का दुख बांटती।
धीरे-धीरे मां ने बाहरी दुनिया से सारे नाते तोड लिए। हर वक्त पूजा-पाठ में लीन रहने लगीं। मां के लिए वह छोटा सा घर ही शिवालय हो गया था, जिसमें राक्षस जैसे पिता को स्थापित किया था उन्होंने, मगर शायद मां प्राण-प्रतिष्ठा करना भूल गई थीं। मंदिर में केवल भक्त था, भगवान गायब था। उसी मां ने मुझे जीवन की हर खुशियां देने का सपना देखा। मुझे देख कर कहतीं, ईश्वर करे, तेरे साथ सब अच्छा हो। तू जो भी चाहे, वह तुझे मिले। मेरा आशीर्वाद है तेरे साथ। बडे प्यार से उन्होंने मेरा नाम स्वयंसिद्धा रखा। मेरे काले घने बालों की चोटी गूंथते हुए मुस्करा कर कहतीं, मेरी प्यारी राजकुमारी को लेने एक दिन सुंदर सा राजकुमार आएगा। वह सफेद घोडे पर बिठा कर तुझे अपने साथ दूर ले जाएगा..। मां की बात पर मैं तालियां बजा कर खुश हो जाती और काल्पनिक परी-लोक में पहुंच जाती। सफेद घोडे वाली बात मेरे मन में इस तरह जम गई कि मुझे न जाने क्यों सफेद रंग कुछ ज्यादा ही पसंद आने लगा। एक दिन तो क्लास में ड्रॉइंग टीचर ने टोका भी कि क्या मुझे सफेद रंग के अलावा कोई और रंग नहीं मालूम? सफेद रंग का भालू, सफेद कुत्ता..यहां तक कि ब्लैकबोर्ड भी सफेद..। जब वह मेरी ड्राइंग को पूरी क्लास के सामने दिखातीं तो बच्चों के बीच हंसी का फव्वारा फूट पडता और बच्चे पेट पकड-पकड कर हंसते। मुझे बहुत गुस्सा आता, मगर जैसे ही सफेद घोडे पर बैठे राजकुमार की तसवीर मन में उभरती, मेरा मन शांत हो जाता। हंसती हुई क्लास को मैं निर्विकार होकर देखने लगती।
विधाता को शायद कुछ और ही मंजूर था। सफेद घोडा आकाश से आया, मगर मुझे नहीं, मां को अपने साथ ले जाने के लिए उतरा था। पलक झपकते ही मां उस घोडे पर सवार होकर सफेद बादलों के पीछे उड चलीं। मैंने उन्हें बहुत आवाज दी, बहुत रोई, जिद करती रही कि मां के साथ मुझे भी जाना है, मगर मुंह से घुटी-घुटी चीख के सिवा कुछ न निकल सका।
..मां के उड जाने के बाद पिता मुक्त हो गए। रिश्तेदारों को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी और फिर एक दिन सात फेरे लेकर कई ख्वाहिशें लिए मैं नई जिंदगी में प्रवेश कर गई। मेरा पति बाहर की दुनिया के लिए बहुत अच्छा इंसान था। सारे लोग उसे आदर से रंजन जी पुकारा करते थे। लेकिन घर की दहलीज पर पहुंचते ही वह अपने जूतों के साथ जी से जुडी तमाम उपमाओं का जामा भी बाहर उतार आता। अंदर आते ही बाहरी दुनिया की बदौलत उपजी उसकी कुंठाएं अकसर मेरे शरीर पर लात-घूंसों के रूप में उतरतीं। बहाना कुछ भी हो सकता था। उसकी एक आवाज पर मैंने क्यों नहीं सुना, खाने में नमक कम कैसे पडा..। शरीर और मन पर ढेरों घाव समेटे मेरी जिंदगी घर के एक स्टोर रूम में बंद होने लगी। वहां सबकी नजरों से छुपा कर मैंने अपनी अलग दुनिया बसा रखी थी। वहां मेरी दोस्त किताबें थीं। जब मैं रोती हुई कमरे में पहुंचती तो किताबों से पात्र निकल कर मेरे आंसू पोछते। मेरी व्यथा सुनते और अपनी कथा कहते। हम एक साथ घंटों बैठे रहते। भला आंखों से ज्यादा दर्द की भाषा और कौन बोल सकता है! दर्द और पीडा की इस दुनिया में तभी कुछ ऐसा घटा, जिसने मेरी जिंदगी को ठहराव दे दिया। ..वह रंजन के साथ पहली बार घर आया था। यूं तो पहली नजर में उसके व्यक्तित्व में खास आकर्षण नजर नहीं आया मुझे, लेकिन दूसरी-तीसरी बार मिलने पर वह कुछ अपना सा लगने लगा। उसकी बातें, विचार, मधुर स्वभाव, धीमी आवाज में बात करना, स्त्रियों के प्रति उसकी संवेदनशीलता, व्यवहार-कुशलता और पुस्तकों में उसकी रुचि ने मुझे उससे जोड दिया। उसके आने से घर की गंभीर चुप्पी कुछ पल मानो मुखर हो जाती। अब मेरी कहानी के पात्र हंसने-खिलखिलाने लगे, हौले से गुदगुदाते प्रेम में डूबे कुछ हसीन चेहरे मेरे पन्नों से बाहर झांकने लगे। मैं पति के प्रति ज्यादा उदार हो गई। उनकी हर बात मानने लगी। यहां तक कि रंजन का इंतजार करने लगी, शायद इसलिए कि वह मेरे पति के साथ ही घर में आता था। उन कुछ पलों में मैं सदियों के लिए जिंदा हो उठती।
फिर एक दिन वह आया और एक बडा सा लिफाफा मुझे थमाते हुए हिफाजत से कहीं रखने को कहा। कुछ न समझते हुए भी मैंने लिफाफे को संभाल कर रख दिया। इसके कई दिन तक वह नजर नहीं आया। पति से कुछ पूछने की हिम्मत न होती थी। घर का सारा काम निपटाने के बाद मेरी आंखें दरवाजे पर अटक जातीं और मैं खिडकी से बाहर की उदास-सूनी सडकों को ताका करती। कई बार रोती, सिर धुनती कि वह मुझे उम्र के इस मोड पर आकर क्यों मिला, जहां इस एहसास को मैं सिर्फ महसूस कर सकती हूं, उसे जी नहीं सकती। वह मेरी शारीरिक-मानसिक हालत से बावस्ता था। कई बार जब मैं दर्द से कराहती तो वह चुपके से आकर मेरे हाथ में दर्द की टैब्लेट्स रख देता। मैं पानी के साथ उन्हें गटक लेती। मेरी पीडा को वह महसूस करता था। उसकी आंखों में ढेरों सवाल होते, जिनका कोई जवाब मेरे पास न था।
..कई दिन उसके इंतजार में गुजर गए। फिर एक दिन उसका फोन आया कि मैं उस लिफाफे को खोल कर देख लूं। उसने बताया कि वह अस्पताल में भर्ती है। मेरे कुछ पूछने से पहले ही फोन कट गया। मेरे आगे पूरा कमरा घूमने लगा। मैं सिर पकड कर वहीं फर्श पर बैठ गई। न जाने कितनी देर तक चेतनाशून्य होकर बैठी रही। दरवाजे की घंटी बजी तो मेरी चेतना लौटी।
लडखडाते कदमों से दरवाजा खोला तो रंजन था। अंदर घुसते ही उसने कहा, अमृत मर गया..।
मेरी आखों में हैरानी के भाव देखकर वह बोला, अरे वही, जो मेरे साथ अकसर आता था। फिर उसने आदेश सा दिया, सुनो, जरा चार अंडों का आमलेट बना देना मेरे लिए..
मैं आंखें फाडे उसे देखती रही। मेरे सामने यह कैसा आदमी था, जिसमें जरा भी दर्द, पीडा व संवेदनशीलता नहीं थी। मैं झटके से उठी और पहली बार बिना मार की परवाह किए अपने कमरे की ओर दौड पडी। उसका दिया बंडल खोला। एक के बाद एक कई पन्ने खुलते चले गए, जिनमें मोती जैसे सुंदर अक्षरों में एक ही लफ्ज लिखा गया था- स्वयंसिद्धा..।
मंजरी शुक्ला