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अछूते आम

कहते हैं, प्रेम के आगे राजा-रंक, धर्म-विधर्म सब छोटे हैं। भगवान राम ने प्रेम से दिए गए शबरी के जूठे बेर खा लिए। यह कहानी भी इंसानियत और प्रेम की यही मिसाल पेश करती है। एक कामगार स्त्री के प्रति लेखक का बहन संबोधन स्त्री को कैसे भावुक बना देता है, इन्हीं इंसानी मनोभावों को उजागर करती है यह कहानी।

By Edited By: Published: Sat, 01 Feb 2014 02:18 PM (IST)Updated: Sat, 01 Feb 2014 02:18 PM (IST)
अछूते आम

मेरा उपन्यास काफी  समय से अधूरा पडा था। कई बार उसे आरंभ किया और समाप्त भी किया, परंतु वह मेरी पसंद का नहीं बन पाया था। एक और भूल मुझसे यह हुई कि उपन्यास पूरा करने के पूर्व ही उसके बारे में कहीं लिख बैठा था। पाठकों के उत्सुकतापूर्ण पत्रों ने मेरी नाक में दम कर दिया। मैं चाहता था कि उसे जल्दी समाप्त कर दूं, पर वह हनुमान की पूंछ की तरह बढता ही जाता था। उसके खत्म  न होने का कारण क्या था, इसे वही समझ सकते हैं, जो गृहस्थी के दलदल में गहरे फंसे हों।

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जब मैंने देखा कि घर-रूपी चिडियाघर में पुस्तक का पूरा होना संभव नहीं है तो मैं एक दर्जन दिन और दो दर्जन रुपये बचा कर हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला रवाना हुआ। धर्मशाला में मैं एक मित्र के यहां ठहरा और झटपट लेखन-कार्य में जुट गया। मेरा मित्र घर में सवा लाख (अकेला) था। पास-पडोस में कई गृहस्थों के घर थे। कोलाहल यहां भी कम न था, लेकिन मेरा दिल ऊबता नहीं था। एक तो मौसम सुहावना था, दूसरे मेरा स्वास्थ्य अच्छा था। बच्चे अलबत्ता शोर मचाते थे, लेकिन मुझे क्या? मुझसे तो कुछ मांगते नहीं थे।

किंतु एक दिक्कत थी-बडी भारी दिक्कत। वह थी एक युवा सफाई करने वाली, जो हरदम सबसे लडती रहती थी। उसका महाभारत तो मेरे उपन्यास से भी बडा था। कोई-न-कोई कांड चलता ही रहता था। जितनी देर वह गली में न होती, मेरा समय सुख से कट जाता था, पर कहते हैं न, सुख का समय जल्दी बीत जाता है। मैं दो-चार पृष्ठ ही लिख पाता कि फिर वही कोलाहल। क्षुब्ध होकर मैं कहता, हाय भगवान, कहां जाऊं? मेरे साथ तो मूसा भागा मौत से, मौत आगे खडी वाली बात हो गई।

धर्मशाला आए मुझे पांच-छह दिन हो गए थे और इतने ही दिन और मुझे यहां ठहरना था, लेकिन इस हालत में मेरे काम का उद्देश्य पूरा होने की आशा कम ही थी।

छठे दिन का जिक्र है। वर्षा सुबह से ही हो रही थी। मित्र काम पर जाते समय मेरे लिए कुछ आम लेकर रख गया था। दोपहर को दरवाजे पर कुर्सी लगा कर मैं आम खाने बैठा। साथ ही वर्षा का नजारा देखता जा रहा था। तभी सहसा मेरे सिर पर बिजली-सी कडकी- आकाश से नहीं, धरती से। कान के परदे फाड देने वाली आवाज आई, सरदार, तुम्हें दिखाई नहीं देता? मैं अभी झाडू लगा कर गई और तुमने फिर जगह गंदी कर दी। मुझे अपनी मूर्खता का ध्यान आया। सचमुच मैंने आम चूस कर लापरवाही से छिलके बाहर फेंक दिए थे।

मैं पहले ही उस काम वाली से बडा डरता था। उठकर दरवाजे के सामने से छिलके और गुठलियां एकत्र करता हुआ बोला, बहन, माफ करना, मुझे पता नहीं था। हम परदेसी आदमी हैं। तुमने अच्छा किया जो समझा दिया। आयंदा ऐसी गलती न होगी।

मेरा खयाल  था कि अपने स्वभाव के अनुसार वह अभी अच्छी तरह मेरी खबर  लेगी, परंतु न जाने मेरे थोडे से शब्दों का उसके दिल पर क्या असर हुआ कि उसने फिर अपनी जबान  न खोली।

क्षण भर बाद ही बोली, सरदार, तुम छोड दो, हाथ न खराब  करो। मैं बटोर लेती हूं।

मैं हट गया और वह झाडू से जगह साफ करने लगी। उसकी आंखें झुकी हुई थीं और चेहरे पर थे शर्मिदगी के चिह्न।

दूसरे दिन जब वह आई तो सबसे पहले मेरा ही आंगन झाडने लगी, जैसा उसने पिछले छह दिनों में कभी नहीं किया था। मैं उसकी इस विशेष कृपा का कारण सोच ही रहा था कि वह दरवाजे के पास आकर कहने लगी, सरदार बाबू, और कूडा हो तो बाहर फेंक दो, मैं कूडेदान में डाल लूंगी।

नहीं बहन, और नहीं है, कह कर मैं लिखने में मगन हो गया। राइटिंग पैड का पृष्ठ फाड कर जब मैं रखने लगा तो अनायास ही मेरी दृष्टि दरवाजे की ओर गई। मेरा खयाल  था कि वह चली गई होगी, पर वह अभी तक दरवाजे की ओट में खडी थी और बीच-बीच में सिर आगे करके मेरे पैड पर लिखे टेढे-मेढे अक्षरों को देख लेती थी। मैंने सोचा-शायद बख्शीश  के लिए खडी है। वह वर्षा में भीग रही थी। मैं जेब में हाथ डाल कर सबसे छोटा सिक्का टटोलने लगा। मेरा हाथ बाहर निकलने से पहले उसी प्रकार मेरे पैड पर नजर जमाए वह बोली, सरदार बाबू, यह क्या लिखते रहते हो?

ऐसे ही कुछ लिखता हूं, कहते हुए मैंने एक आना उसकी ओर बढाया और कहा, लो। रहने दो बाबू, मैं नहीं लूंगी।

मैंने पूछा, क्यों? मुझे अब उसकी लालची तबीयत पर क्रोध आने लगा। सोचा, शायद कहना चाहती है कि एक आना मजदूरी बहुत कम है। तभी वह थोडा-सा मुस्करा कर बोली, कल तुमने मुझे बहन कहा था न, इसलिए। उसके चेहरे से ऐसा लगता था, जैसे मैंने उसे बडी सारी दौलत सौंप दी हो और वह मेरे एहसान के नीचे दबी जा रही हो। मैं हक्का-बक्का रह गया। वर्षा और तेज हो गई। तेज बौछार पड रही थी। बौछार का रुख्ा भी इसी ओर था। मुहल्ले के सभी लोगों ने दरवाजे बंद कर लिए थे, पर वह अभी तक वर्षा में खडी थी। मैंने विचार किया, मेरा एक साधारण शब्द बहन इसको इतना प्यारा लगा है। मैं तो थोडा-बहुत कवि-हृदय रखता था, लेकिन मेरी जगह अगर कोई पाषाण-हृदय भी होता, तो भी जिस ढंग से उसने उपर्युक्त वाक्य कहा था, सुन कर मोम हो जाता।

यह प्यार की कितनी भूखी है कि एक छोटे से शब्द को इसने इतना संभाल कर रख लिया। मैंने सोचा, सचमुच यह घृणा की हवा में पली होगी। बेचारी पूरे दिन लोगों के घर बुहारती और गंदगी-कूडे से लदी रहती है और बदले में पाती है- घृणा, तिरस्कार, झिडकियां और गाली-गलौच। शायद इसीलिए यह घृणा करती है, लडती रहती है सबसे। मगर इतना होने पर भी इसका दिल कितना सुंदर और कोमल है। मन ही मन मैंने कहा, ओ लडकी, काश, तू सचमुच मेरी बहन होती।.. उसके कपडों से पानी के पर नाले  बह रहे थे। मेरा हृदय आंखों की राह बह रहा था। वह भीग गई थी, बिलकुल निचुड रही थी। यह देखकर मैंने कलम और पैड एक ओर रख दिया और आवाज में जरा मधुरता लाकर कहा, तुम तो भीग रही हो, अंदर आओ।

उसने नजर भर कर एक बार मेरी ओर देखा और फिर अपनी ओर। न वह अंदर आई और न कुछ बोली। मैं चाहता था कि वर्षा कम हो तो वह चली जाए, लेकिन यह काम मेरे बस का नहीं था। मैंने फिर उससे कहा, अच्छा, तो मेरा छाता ले जाओ।

इस बार उसका मुंह खुला। कहने लगी, सरदार बाबू, हम लोग तो इसी तरह पानी में भीगते हैं। मैं चली जाऊंगी।

मैंने जिद के लहजे  में कहा, थोडी देर के लिए अंदर आकर बैठ जाओ। जब बारिश रुक जाए, चली जाना।

शायद उसकी अंदर आने की इच्छा हुई, पर अंदर स्टोव, प्याले, प्लेट और दो-चार बर्तन बिखरे देख कर वह बोली, यहां तो तुम रोटी बनाते हो? मैंने उत्तर दिया, तो क्या हर्ज  है? यह बर्तन किसी और के नहीं, तुम्हारे भाई के हैं।

जैसे मेरा यह वाक्य सुनकर उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसने एक बार इधर-उधर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा है। फिर वह झाडू को बाहर दीवार के साथ रख कर भीतर आने लगी, पर दहलीज के पास ही ताक से लग कर खडी हो गई- केवल वर्षा से बचाव के लिए। वह कांप रही थी। मैं चाहता था कि वह और अंदर आ जाए। चारपाई पर नहीं तो कम से कम जमीन पर बिछी दरी पर बैठ जाए, पर मैं उसे मजबूर नहीं कर सकता था।

वह उसी तरह बांहें बांधी कांपती सी बोली, सरदार बाबू..

मैंने बीच में ही टोका, भाई को सरदार नहीं कहते बहन।

वह पहले तो कुछ झिझकी, फिर बोली, भाई, तुम कहां रहते हो?

अमृतसर, मैंने उत्तर दिया और फिर पूछा, तुम्हारा नाम क्या है?

बोली, कल्लो। फिर कहने लगी, यहां कितने दिन ठहरेंगे?

पांच-छह दिन और ठहरूंगा, लेकिन इस मकान से शायद कल चला जाऊंगा। इस जगह शोर बहुत रहता है।

वह क्षण भर चुप रही। न जाने क्या सोचती रही। फिर कहने लगी, यह हरदम क्या लिखा करते हो?

किताबें लिखता हूं।

किताब के अक्षर तो दूसरी तरह के होते हैं।

यह भी उसी तरह के हो जाएंगे।

मशीन में डालने से?

हां।

तुम्हारे अमृतसर में पानी नहीं गिरता?

बहुत कम पडता है।

वहां तुम्हारे कौन-कौन हैं?

घरवाली है, बच्चे हैं।

वर्षा कुछ कम हुई देख कर उसने कहा, अच्छा भाई, अब जाऊंगी। अभी बहुत काम है। वह दीवार के पास रखा झाडू उठाकर चली गई। इसके बाद मैं जितने दिन वहां रहा, बडी शांति और आराम से रहा। वही कल्लो  जो पहले तूफान मेल बनी रहती थी, अब चुपचाप आती, सबके आंगन अच्छी तरह बुहारती। किसी का बच्चा जगह-बेजगह कूडा बिखेर देता, तो भी एक शब्द तक न कहती। अगर किसी लडके को ऊंचा बोलते देखती तो समझाती, शोर मत करो। उधर सरदार बाबू कुछ लिख रहे हैं। सबसे पहले वह मेरे आंगन की सफाई करती और जाते समय क्षण भर मेरे दरवाजे के सामने खडी होकर दो-चार बातें करती। वह एकाएक बडी शांत और समझदार हो गई थी।

ख्ौर, मैं उस घर में बाकी के पांच-छह दिन भी रहा। मेरे उपन्यास का काम भी ख्ात्म हो गया था। जिस दिन मुझे जाना था, उससे एक दिन पूर्व वह नित्य की तरह मेरे पास आई और बोली, कल चले जाओगे भाई?

हां, कल जाऊंगा। फिर मैंने कहा, कल्लो, जरा इधर आना। वह बिना हिचकिचाहट कमरे के भीतर आ गई। मैंने स्नेह-भरा हाथ उसके सिर पर फेरते हुए उसकी हथेली पर एक रुपया रखा दिया। उसने लौटाना चाहा, लेकिन मेरे मुंह से यह सुनकर कि तुम्हें नहीं, मैं अपनी बहन को दे रहा हूं.., प्रसन्नता से ले लिया।

अगले दिन सुबह साढे आठ बजे मैंने सामान बांधकर मोटर की छत पर रखवा दिया और स्वयं अपनी सीट पर जा बैठा। अपने मेजबान मित्र से विदा लेकर मैंने उसे लौटा दिया था। उसे नौ बजे काम पर भी पहुंचना था।

ड्राइवर ने मोटर चालू कर दी..।

तभी अचानक मेरी नजर दूर से आ रही कल्लो पर पडी। उसने सिर पर कुछ उठा रखा था। उसकी सांस बुरी तरह फूल रही थी।

वह लगभग दौडती हुई मेरी ओर बढ रही थी। ड्राइवर की बांह दबा कर मैंने मिन्नत करते हुए कहा, बडी मेहरबानी होगी, सिर्फ एक मिनट ठहरो तो। नेकदिल ड्राइवर मान गया और मैं झटपट नीचे उतर कर कल्लो  की ओर दौडा। मुझे देखकर उसकी जान में जान आ गई। वह पल भर को ठहर गई। मोटर के स्टार्ट होने की आवाज शायद उसने सुन ली थी। मैं उसके पास जा पहुंचा। सिर से टोकरी नीचे रख कर वह झिझकती-झिझकती बोली, भाई कुछ था आपके लिए, इसे ले लोगे?

मैंने पूछा, क्या है कल्लो?

वह शरमाती हुई बोली, भाई के लिए थोडे से आम हैं.., और फिर क्षण भर रुक कर बोली, अपनी कसम, इसे मैंने छुआ तक नहीं है। मजदूर को उठाने को कहा, मगर उसने मना कर दिया, इसलिए टोकरी मैंने उठा ली, मगर आम नहीं छुए, कसम खाती हूं। वह मेरे चेहरे की ओर देखने लगी कि मैं उसकी प्रार्थना स्वीकार करता हूं कि नहीं। गदगद होकर मैंने कहा, कल्लो, तू देगी तो क्यों न लूंगा। बल्कि तू अपनी भाभी के लिए कुछ न लाती, तो मैं बहुत नाराज होता।

वह सिर से पांव तक प्यार में डूब गई। जो कुछ वह बोलना चाहती थी, वह खुशी  के मारे उसके मुंह से न निकल सका। टोकरी पुन: सिर पर रखकर वह मेरे साथ मोटर की ओर चलने लगी, पर मैंने उसे टोकरी नहीं उठाने दी, खुद  उठा ली। उसे आशीर्वाद देते हुए मैंने कहा, बहन, हम फिर मिलेंगे।

फिर अपनी सीट पर जा बैठा। मोटर चल पडी। जब तक मोटर पहाडी के मोड के दूसरी ओर न हो गई, वह मुझे दिखाई देती रही। मैं भी उसे देखता रहा। कल्लो नहीं, उसकी मूर्ति मुझे सडक के किनारे खडी दिखाई दे रही थी और अंत में वह बादलों की धुंध में विलुप्त हो गई..।

अनुवाद: हरजीत सिंह

नानक सिंह


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