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संस्कारों से मिलता है संबल

किशोरावस्था में इतनी परिपक्वता नहीं होती कि इस उम्र के बच्चे अपनी भावनाओं को संभाल सकें। ऐसे में माता-पिता का यह फजऱ् बनता है कि वे उनके संस्कारों की नींव को मज़बूती दें क्योंकि इसी पर इंसान के व्यक्तित्व की इमारत टिकी होती है।

By Edited By: Published: Tue, 05 Apr 2016 04:02 PM (IST)Updated: Tue, 05 Apr 2016 04:02 PM (IST)
संस्कारों से मिलता है संबल
अपनी संतान के उज्ज्वल भविष्य की कामना हर माता-पिता के मन में होती है और यह तभी संभव है, जब बच्चों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर शुरू से ही ध्यान दिया जाए। ख्ाास तौर पर किशोरावस्था में उन्हें माता-पिता के मार्गदर्शन की सबसे ज्य़ादा जरूरत होती है। यह उम्र का एक ऐसा नाजुक दौर है, जब इंसान अकसर भ्रमित हो जाता है। इस उम्र में इतनी परिपक्वता नहीं होती कि टीनएजर्स अपनी भावनाओं के सैलाब को संभाल सकें। घर के सुरक्षित माहौल में रहने के अभ्यस्त बच्चों को इस उम्र में पहली बार बाहरी दुनिया के कठोर यथार्थ का सामना करना पडता है। ऐसे में वे बस यही चाहते हैं कि उन्हें माता-पिता का प्यार और मार्गदर्शन मिले।

सामना कठोर यथार्थ का

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टीनएज में प्रवेश करते ही परीक्षा से जुडे तनाव, पीयर प्रेशर और भविष्य की चिंता की वजह से बच्चे ख्ाुद को बहुत अकेला महसूस करते हैं। सोशल साइट्स पर सक्रिय रहने वाले टीनएजर्स भी निजी जीवन में बेहद अकेले होते हैं। दरअसल ऐसे माध्यमों से वे अपना अकेलापन दूर करने की कोशिश करते हैं। इस उम्र में होने वाले हॉर्मोन संबंधी बदलावों की वजह से किशोरों की मनोदशा में अकसर उतार-चढाव आ रहा होता है, जिससे कभी-कभी उनके व्यवहार में चिडचिडापन भी दिखाई देता है। उन्हें अपने परिवार से इस बात को लेकर अकसर यह शिकायत रहती है कि उन्हें कोई नहीं समझ पाता। माता-पिता की ज्य़ादा रोक-टोक भी किशोरों को विचलित कर देती है। धैर्य में कमी इस उम्र की एक बडी समस्या है। टीनएजर अपनी हर समस्या का तत्काल समाधान चाहते हैं। बच्चों का साथ उन्हें अच्छा नहीं लगता और बडों को अपनी समस्याएं बताते हुए उन्हें संकोच महसूस होता है। ऐसे में अभिभावकों के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अपने टीनएजर्स का विश्वास जीतने की कोशिश करें। इस उम्र के बच्चों को थोडी आजादी भी देनी चाहिए, ताकि वे स्वयं अपनी बुद्धि-विवेक के आधार पर सही निर्णय लेना और बेलगाम इच्छाओं को नियंत्रित करना सीखें।

अध्यात्म की अहम भ्भूमिका

मैं मानता हूं कि किशोरों को एक दिशा और जीवन जीने का कौशल दिया जाना चाहिए।

अध्यात्म इसमें महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इसकी मदद से वे न केवल सैद्धांतिक, बल्कि व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी जीवन को समझने में सक्षम होंगे। किशोरों को प्राणायाम और ध्यान के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। इससे उनकी एकाग्रता में वृद्धि के साथ स्मरण-शक्ति भी मजबूत होती है।

ध्यान एवं योग की शक्ति

ध्यान का प्रतिदिन अभ्यास किशोरों को एक गहरी अंर्तदृष्टि प्रदान करेगा। इतना ही नहीं, श्रेष्ठ ग्रहणशीलता उन्हें अडिग रखेगी। इससे उन्हें परीक्षा के दौरान होने वाली मानसिक थकान और चिंता से मुक्ति मिलेगी। योग किशोरों का शर्मीलापन दूर करने में मददगार होता है। इससे उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास संभव होता है। योग किशोरों के सामने आने वाले अवरोधों को दूर करने में मददगार होता है। उन्हें संतुलित आहार देने के साथ नियमित व्यायाम के लिए भी प्रेरित करना चाहिए। माता-पिता की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे पढाई और अनुशासन को लेकर अपने बच्चों पर अनावश्यक रूप से दबाव न बनाएं।

सोच बदलनी चाहिए

बच्चों को कुछ आध्यात्मिक मूल्यों से भी परिचित करवाना चाहिए। यही वह तत्व है, जो उनका उत्साह बढाएगा। अब सवाल यह उठता है कि हमारी युवा पीढी अध्यात्म से दूर क्यों होती जा रही है? शायद इसके पीछे यही सोच रही है कि इसमें गंभीरता है, उत्साह नहीं। दुर्भाग्यवश अध्यात्म को अब तक बेहद उबाऊ समझा जाता रहा है। हमें यही सोच बदलनी होगी। अध्यात्म का हर विषय इतना जीवंत और रोचक हो कि उन्हें किशोर पूरे उत्साह के साथ अपना सकें। वस्तुत: अध्यात्म एक मूल्य आधारित शिक्षा है, जिससे जीवन समृद्ध और आनंदमय हो जाता है।

हमें शुरू से ही बच्चों को अध्यात्म अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। आज के ज्य़ादातर अभिभावक अपने बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। इससे उनके रिश्ते में दूरियां बढती जा रही हैं और इसे मिटाने का काम भी उन्हीं को करना होगा। अगर एक बार यह फासला मिट जाए तो प्रेम का झरना स्वत: बहने लगेगा और अपने बच्चों के साथ माता-पिता का संवाद सहज हो जाएगा। ऐसी शुरुआत के बाद सारी समस्याएं अपने आप हल होने लगेंगी।

करें मित्रवत व्यवहार

हमारे शास्त्रों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब आपके बच्चे 16 वर्ष के हो जाएं तो उनसे मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। इस उम्र के बाद अपने बच्चों को उपदेश देने का प्रयास न करें। उनके साथ दोस्ताना व्यवहार करें और उनसे अपनी समस्याएं बांटें। तभी उनकी झिझक दूर होगी और वे आपके साथ खुल कर अपने दिल की बातें कर पाएंगे। आमतौर पर माता-पिता की तुलना में किशोर अपने दोस्तों से ज्य़ादा खुले होते हैं। यही बात उनके टीचर्स के लिए भी लागू होती है। जब वे मित्र बनकर रहेंगे, तभी अपने छात्रों के साथ उनका सहज संवाद स्थापित हो पाएगा। हर अभिभावक की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा हमेशा ख्ाुश रहे, लेकिन अनजाने में कहीं न कहीं वे अपने बच्चे को उस ख्ाुशी से दूर कर रहे होते हैं। एक छोटे बच्चे की मुस्कुराहट को देखें... वह कितनी सुंदर होती है, लेकिन बाद में उसी बच्चे का चेहरा देखें, जब वह स्कूल या कॉलेज में हो। क्या तब वही मासूमियत उसके चेहरे पर नजर आती है? हाल ही में किए गए सर्वेक्षण बताते हैं कि एक छोटा बच्चा दिन में 400 बार मुस्कुराता है, वहीं एक किशोर 17 बार और वयस्क तो कभी-कभी ही मुस्कुराते हैं। यह स्थिति बेहद भयावह है और नई पीढी को इस तनाव से बचाना बहुत जरूरी है।

अध्यात्म का व्यावहारिक रूप

मूलत: सभी समस्याएं मानव-मस्तिष्क से ही जन्म लेती हैं। अध्यात्म के पास मन और जीवन को संभालने की व्यावहारिक शक्ति होती है। हम कहीं न कहीं अपने मूल्यों को पोषित करने में चूक गए हैं। स्वार्थी शिक्षा प्रणाली की वजह से मित्र बनाने की परंपरा कहीं खो गई है। हमें यह विश्वास करना होगा कि हमारे बच्चे सक्रिय व योग्य हो सकते हैं। उनमें अपनी विरासत को संजोने की भी समझ होगी। अपनी संतान को केवल भौतिक वस्तुएं देना, उसकी समस्याओं का सही समाधान नहीं है। हमें उसकी तमाम क्षमताओं के साथ मासूमियत को भी बरकरार रखना होगा।

आज का युवा परिपक्व है। वह जीवन में अध्यात्म की अहमियत को समझने लगा है। युवाओं को यह विश्वास दिलाए जाने की आवश्यकता है कि वे जो चाहते हैं, वह प्राप्त कर लेंगे। उन्होंने अभी केवल भौतिक वस्तुओं का उपभोग सीखा है। वे इसी भ्रम को जीवन समझ रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति आंतरिक शांति चाहता है, जिसे हासिल करने का एकमात्र जरिया अध्यात्म ही है। युवा पीढी को व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। उसे हमारी संस्कृति और मूल्यों के प्रति भी जागरूक होना चाहिए। तभी वे अपनी जिम्मेदारियां समझेंगे और यही अध्यात्म का उद्देश्य है। द्य

बात एक बार की

एक बार प्रवचन देते समय गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को विराट नगर के राजा सुकीर्ति की कहानी सुनाई, जो इस प्रकार है। उस राजा के पास लौहशांग नामक एक हाथी था। युद्ध कला में प्रवीण उस हाथी के जरिये राजा को कई बडी लडाइयों में जीत हासिल हुई थी। फिर एक ऐसा भी दौर आया, जब लौहशांग वृद्ध हो गया और उसका पराक्रम समाप्त हो गया। पशुओं की देखभाल करने वाले कर्मचारी भी अब उसकी ओर ध्यान नहीं देते थे। कई बार वे उसे भूखा-प्यासा छोड देते। एक बार प्यास से व्याकुल लौहशांग हाथीशाला से निकलकर तालाब की ओर चला गया। पानी पीने के बाद वह तालाब के दलदल में बुरी तरह फंस गया। राजा ने उसे बाहर निकलवाने की बडी कोशिशें की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। तभी किसी चतुर सैनिक ने यह युक्ति सुझाई कि सभी सैनिकों को युद्ध की वेशभूषा में तैयार करवा कर युद्ध के बाजे बजवाए जाएं। राजा ने सैनिकों को ऐसा ही करने का आदेश दिया। कुछ पलों में रणभेरी बजने लगी और सभी सैनिक लौहशांग की ओर ऐसे बढे, जैसे वे युद्ध में आक्रमण कर रहे हों। यह देखते ही उस हाथी में पुराना जोश वापस लौट आया। वह आक्रमण रोकने के लिए अपनी पूरी शक्ति के साथ दलदल को रौंदता हुआ, तालाब के तट पर आ पहुंचा। इस प्रेरक कथा का मूल आशय यह है कि मनोबल हमारी सबसे बडी ताकत है। अगर वह जाग जाए तो असंभव दिखने वाला कठिन कार्य भी सरल हो जाता है।


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