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मन की खुराक है मौन

मौन या एकांत हर मनुष्य के लिए जरूरी है। इसी एकांत में व्यक्ति स्वयं के साथ होता है और अपने कार्यों का लेखा-जोखा करता है। स्वयं को साधने और ख़्ाुद से मिलने का जरिया है एकांत। सोच की दिशा सकारात्मक हो तो एकांत से जीवन की संजीवनी निकाल सकते हैं।

By Edited By: Published: Tue, 27 Oct 2015 03:12 PM (IST)Updated: Tue, 27 Oct 2015 03:12 PM (IST)
मन की खुराक है मौन

मौन या एकांत हर मनुष्य के लिए जरूरी है। इसी एकांत में व्यक्ति स्वयं के साथ होता है और अपने कार्यों का लेखा-जोखा करता है। स्वयं को साधने और ख्ाुद से मिलने का जरिया है एकांत। सोच की दिशा सकारात्मक हो तो एकांत से जीवन की संजीवनी निकाल सकते हैं।

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जब कभी अकेलेपन या एकांत की बात होती है, उसे जाने-अनजाने भय से जोड दिया जाता है। आमतौर पर माना जाता है कि अकेलापन डराने वाला होता है, जबकि यह तो स्वयं पर स्वामित्व अर्जित करने का भाव है। अपने साथ समय बिताने से बडा कोई आनंद नहीं। अपने भीतर झांकने की सुखद अनुभूति के आगे कोई और भाव ठहरता ही कहां है? ख्ाुद से मिलने का आनंद बेजोड है। एक अनूठा सा भाव, जो आज के दौर में कहीं खो गया है। हम जानते हैं कि जीवन से जुडे सुंदर पहलू कभी भीड का विषय नहीं रहे। प्रेम, स्वाध्याय और आत्मावलोकन जैसी आत्मिक स्तर पर उत्कृष्ट बनाने वाली सभी बातें एकांत से जुडी हैं। व्यक्तित्व के आंतरिक और बाह्य परिष्कार के लिए एकांत जरूरी है। हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में भी एकांत साधना के महत्व को रेखांकित किया गया है, क्योंकि हमारे यहां आध्यात्मिक स्तर पर आत्मिक शांति को सर्वोपरि माना गया है, जिसके लिए सार्थक चिंतन की जरूरत होती है। चिंतन की दिशा हमारे दृष्टिकोण को दिशा देती है, जीवन से जुडी चिंताओं व चुनौतियों से उपजी दुविधाओं से पार पाने की शक्ति देती है। भारतीय संस्कृति में सर्वोपरि मानी गई भीतरी शांति मानवीय मन की ख्ाुराक है, जो मौन से प्रकट मिलती है। एकांत का महत्व आज के समय में ज्य़ादा है, क्योंकि जीवन के हर पहलू पर काफी कुछ अनचाहा भी होता है। भीड ने हमारे भीतर कब्जा जमा लिया है। परिस्थितियां ऐसी हैं कि हमारा ख्ाुद पर ही अधिकार नहीं। अपना स्वामित्व पाने का एकमात्र मार्ग एकांत ही है।

एक के बाद अंत

न शब्द-न शोर। एकांत का सुख वही समझ सकता है जो अपने साथ समय बिताता है। एकांत का अर्थ ही है एक के बाद अंत, यानी अकेला। यह वह समय होता है, जब स्वयं को साधने का मार्ग तलाशा जाता है। कोशिश की जाती है मुझको मैं से मिलवाने की। यह मार्ग ख्ाुद तक ले जाता है। कभी एकांत के पल आत्मावलोकन का अवसर देते हैं तो कभी इस भागमभाग के बीच स्वमूल्यांकन का बहीखाता खोल देते हैं। यही वो अनमोल पल होते हैं, जिनसे हमारे विचारों को ईंधन मिलता है। अपने भीतर झांकने के प्रयास में हमारी अपने प्रति आस्था बढती है। नई आशाएं जन्म लेती हैं, वैचारिक सक्रियता पनपती है, अपना मूल्यांकन करने की सोच जाग्रत और पोषित होती है, क्योंकि जब हम अकेले होते हैं तो हमारी गति बाह्य न होकर आंतरिक होती है, जो जीवन ऊर्जा को दिशा देती है। तभी तो जीवन को समायोजित करने की ऊर्जा का स्रोत भी कहा जाता है एकांत को। एकांत मौन के अभ्यास को बढावा देता है। हम जानते हैं कि मौन और एकांत दोनों ही मानसिक शक्ति अर्जित करने के साधन हैं, जो रचनात्मकता और सार्थक सोच को पोषित करते हैं।

जाने-माने भौतिकविद और दार्शनिक अलबर्ट आंइस्टीन के अनुसार, 'हालांकि मैं नियत समय के अनुसार काम करता हूं, मगर मुझे अचानक ही समुद्र तट पर अकेले लंबी सैर पर चल पडऩा अच्छा लगता है। उस समय मैं अपने भीतर हो रही हलचल को सुन सकता हूं। तब मेरी कल्पनाशक्ति मेरे समक्ष साकार हो उठती है, मैं उसे देख और सुन भी सकता हूं।

ख्ाुद के साथ होना

एकांत के बारे में आम धारणा यह भी है कि आप अकेले हैं, क्योंकि कोई आपके साथ नहीं है या किसी को भी आपका साथ नहीं चाहिए, जबकि सच तो यह है कि अकेलापन हमेशा मजबूरी नहीं होता। इसे औरों से टूट जाना या छूट जाना नहीं कहा जा सकता। एकांत को आमतौर पर अकेलेपन के साथ जोड कर त्रासदी बना दिया जाता है। इस पूर्वाग्रही सोच के चलते हम भूल जाते हैं कि एकांत समृद्ध, सृजनात्मक और स्वयं का चुना हुआ भी तो हो सकता है। यह ऐसा अकेलापन भी हो सकता है जो अपने होने की चेतना को जाग्रत करता है।

एकांत या मौन ख्ाुद को जांचने-आंकने का भी अचूक तरीका है। यूं भी हम जीवन के असली क्षणों में हमेशा अकेले रहते हैं। इन पलों में कभी पीडा होती है तो कभी आनंद, लेकिन परिस्थिति चाहे जो भी हो, अपने साथ होना, एकांत या मौन में होना प्रसन्नता देता है। तभी तो एकांत में उस निजता को जिया जाता है, जो अपनेसाथ होने के सुख की अनुभूतियों से पूरित होती है। ऐसे क्षणों को सौभाग्य मानकर उन्हें सकारात्मक ढंग से जिया जाए तो यह समय सृजनात्मक बन जाता है ।

आत्म-सुधार की प्रक्रिया

आत्म-सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण एकांत ही है। जो सामाजिक ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में भी गुण, कर्म और स्वभाव संबंधी कई बातों के आत्म-निरीक्षण का मौका देता है। यह चिंतन-मनन करते हुए परिशोधन का मार्ग प्रशस्त करता है। यह प्रक्रिया हमें एक कार्यपद्धति निश्चित करने को प्रेरित करती है, ताकि भीतर झांकने का अवसर मिले।

एकांत विगत जीवन से सीख लेते हुए वर्तमान और भविष्य के लिए नए पाठ पढाता है। हमारी क्षमताओं व योग्यताओं को आधार देता है। सोच के दायरे को विस्तार देकर सह-अस्तित्व की भावना को पोषित करता है। ख्ाुद के भीतर झांकने मात्र से बंधुत्व और सहभागिता की सोच को बल मिलता है। इसके कारण न केवल हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है, बल्कि हम सही अर्थों में समाजनिष्ठ भी बनते हैं। एकांत हमें अंतर्मुखी और आत्मकेंद्रित बनाता है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे अंतर्मन में परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने के लिए वातावरण तैयार करने में सहायक है। यह जरूरी भी है, क्योंकि जीवन में हर पडाव पर हमारी सोच और व्यवहार में कई बदलाव अपेक्षित होते हैं। इतना ही नहीं, मन जब तक बहिर्मुखी रहता है, अनगिनत जाल-जंजाल बुनते हुए सांसारिक असमंजस में ही उलझ कर रह जाता है। इन सबमें अपनी ऊर्जा गंवाना मानसिक संतुलन और दृढता के लिए तो घातक है ही, यह हमें नकारात्मकता की ओर भी धकेलता है।

मजबूरी नहीं, जरूरत

अकेलेपन को कई बार अवसाद से भी जोडकर देखा जाता है, पर सच्चाई यह है कि हद से ज्य़ादा संवाद भी मानसिक पीडा के सिवा कुछ नहीं देता। मौजूदा दौर में यही तो हो रहा है। वस्तुएं हों या विचार, जरूरत से ज्यादा दाखिल हो गए हैं हमारे जीवन में। आज की तेज रफ्तार जिंदगी में हम चाहकर भी अकेले नहीं रह पाते। भले ही इंसानों की भीड हमारे आसपास न हो, मगर कुछ न कुछ तो हमें घेरे ही रहता है, जो अपने भीतर झांकने का मौका ही नहीं देता। हरदम लोगों से घिरे रहने या हर समय दूसरों से संपर्क में बने रहने के कारण सोचने-विचारने का समय ही नहीं मिलता। हालांकि इस अजब-ग्ाजब सी व्यस्तता में भी हर इंसान स्वयं को नितांत अकेला पाता है, मगर इस तरह का ख्ाालीपन आत्मचिंतन की राह नहीं सुझाता।

आत्मचिंतन के लिए आत्मकेंद्रित होना जरूरी है। मनुष्यों ही नहीं, बेवजह के विचारों की भीड भी इसमें बाधक बनती है। कुछ अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर खोजने और नए प्रश्नों के जन्म की वैचारिक प्रक्रिया को निरंतर बनाए रखने के लिए भी एकांत अनिवार्य है। प्रकृति के करीब जाने और जीवन के प्रति आस्था बनाए रखने में भी एकांत की अहम भूमिका है। ख्ाुद को जानने, पहचानने और समझने की अनुभूति देने वाला सार्थक एकांत जीवन की जरूरत है। आविष्कारक निकोला टेस्ला के मुताबिक एकांत में हमारा मन केंद्रित और स्पष्ट हो जाता है। निजता के क्षणों में मौलिकता उर्वर हो जाती है। अकेले रहें और विचारों को जन्म लेते देखें। एकांत मन को पोषित और विचारों को समृद्ध करता है, क्योंकि जब हमारे आसपास कोई नहीं रहता तो हमारे अपने विचार हमारे पास रहते हैं। स्वयं की भीतरी अभिव्यक्ति मुखर होती है। यही एकांत का सबसे सुंदर और सुखद पहलू है।

इसीलिए एकांत, जिंदगी का जरूरी हिस्सा बने, कभी मजबूरी में चुनी गई राह न बने। सोच की दिशा सकारात्मक हो तो एकांत से जीवन की संजीवनी निकाल सकते हैं।

बात एक बार की

नेक कार्य का मंत्र

एक बार राजा विक्रमादित्य अपने गुरु के आश्रम में पहुंचे और उनसे कहा कि ऐसा प्रेरक वाक्य बताएं जो महामंत्र बन कर न सिर्फ उनका बल्कि उनके उत्तराधिकारियों का भी मार्गदर्शन करता रहे। इस पर गुरु ने उन्हें एक श्लोक लिखकर दिया, जिसका अर्थ यह था कि पूरे दिन के बाद संध्याकाल में मनुष्य को थोडी देर चिंतन अवश्य करना चाहिए कि पूरे दिन उसने कौन सा सत्कर्म किया। इस श्लोक का राजा विक्रमादित्य पर गहरा प्रभाव पडा और उन्होंने इसे अपने सिंहासन पर टांग दिया। दिन भर वह कोई न कोई परोपकार का काम जरूर करते। एक बार अति व्यस्तता के कारण वह नेक कार्य न कर सके। वह बेचैन हो गए और उन्हें नींद नहीं आई। इसी बेचैनी में वह महल से बाहर निकल गए। रास्ते में उन्हें कोई व्यक्ति दिखा जो ठंड से कांप रहा था। महाराज ने उसे अपना दुशाला ओढा दिया और राजमहल में लौट आए। अपने इस कार्य के बाद उन्हें गहरी नींद आ गई।

डॉ. मोनिका शर्मा


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