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बैलकनी में उतरती यादों की शाम...

बैलकनी घर का वो कोना है, जो एक बायोस्कोप की मानिंद आपको चहकते, गुनगुनाते, रूठते, ठहरते जिंदगी के रंगों को एक मोशन फिल्म की तरह दिखा सकता है। ऐसे रंग जो दिन के हर पहर के साथ बदलते हैं। सखी ने बैलकनी से जुड़े खास अनुभवों को संजोया।

By Edited By: Published: Mon, 20 Apr 2015 03:03 PM (IST)Updated: Mon, 20 Apr 2015 03:03 PM (IST)
बैलकनी में उतरती यादों की शाम...

बैलकनी यानी एक ऐसी जगह जहां लोग पौधे उगाते थे, कपडे सुखाते थे और पडोसियों से सुख-दुख साझा करते थे। जगह की कमी के चलते अब बैलकनी स्पेस की जगह भी कमरे बनने लगे हैं। जिन घरों में बैलकनी है, वहां भी या तो लोगों के पास वक्त बिताने की फुर्सत नहीं है, या फिर वे यहां बेहद कम वक्त बिता पाते हैं। लेकिन यहां बिताए वक्त की यादें आज भी कई लोगों के जेहन में हैं। इसका जिक्र सुन कर किसी को पडोसन से सीखी अचार की रेसिपी याद हो आती है, किसी का मन यहां बैठकर कविताएं लिखने की यादों में भीगा है, तो कोई यहां पढा गया इश्क का पहला पाठ ही अभी तक नहीं भूला है। आइए खंगालते हैं मन का वह कोना जहां बैलकनी से जुडी यादें आज भी ताजा हैं।

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सिनेमा के पर्दे सी बैलकनी

यहां वक्त बिताने वाले यह बाखूबी जानते हैं कि यह किसी सिनेमा हॉल की बैलकनी से कम नहीं है। जिस तरह सिनेमा हॉल की बैलकनी से फिल्म का सबसे बेहतरीन नजारा दिखता है, ठीक उसी तरह घरेलू बैलकनी भी वो कोना है जहां से सबसे दिलचस्प नजारा दिखता है। यह नजारा पहर दर पहर तब्दील होता जाता है। काम पर जाते लोग, कपडे सुखाती और मसालों को धूप दिखाती स्त्रियां, बेफिक्र खेलते बच्चे। बैलकनी के जरिये जिंदगी को करीब से महसूस करने वाली समाहिता बसु बताती हैं, 'पहले मैं इसे महज कपडे सुखाने की जगह समझती थी।

ऑफिस से लौटकर घर आती थी तो हर वक्त कमरा बंदकर म्यूजिक सुनती रहती थी। लेकिन दो माह पहले जब मुझे गंभीर बीमारी के चलते छुट्टी लेनी पडी, तो यहां की अहमियत समझ में आई। चारदीवारी काटने को दौडती थी। इसलिए हर शाम यहां कुर्सी डालकर बैठने लगी। यहां समय बिताने पर मन प्रफुल्लित हो जाता था। तरह-तरह के खयाल आते थे। इन खयालों को कलम के जरिये मैंने कविताओं और कहानियों में ढाल दिया। तबसे मेरी हर शाम यहीं गुजरती है।

बागबानी का ठिकाना

जगह की कमी के चलते अधूरा रह जाने वाला बागबानी का शौक पूरा करने में यह खास भूमिका निभाती है। कुछ ऐसा ही मानना है शिक्षिका वैदेही बिष्ट का। वह कहती हैं, 'आज घरों में जगह की इतनी किल्लत है कि पौधे लगाने के लिए जगह मिलनी बेहद मुश्किल होता है। लेकिन मैं खुशकिस्मत हूं कि मैं जिस भी घर में शिफ्ट हुई, वहां स्पेशियस बैलकनी मिली। मैंने डहलिया, लिली, रोज, मनीप्लांट और तुलसी के पौधे लगाए। कई घर बदलने के बावजूद मेरे पुराने पौधे आज भी मेरे पास हैं। यह बैलकनी की बदौलत ही संभव हुआ है।

सामाजिक प्लैटफॉर्म

खुद तक सीमित होते जा रहे लोगों के लिए यह एक सोशल प्लैटफॉर्म है। विशेष रूप से गृहिणियों के लिए तो यह सामाजिक होने का सर्वाधिक प्रचलित जरिया है। गृहिणी सुषमा राठौर कहती हैं, 'मैं पहले बेहद अंतर्मुखी स्वभाव की थी। मुझे बहिर्मुखी बनाने में बैलकनी का बहुत बडा योगदान है। मुझे कुकिंग का बहुत शौक था। अकसर बैलकनी में अचार को धूप दिखाने के लिए फैला देती थी। इसी दौरान पडोस की कुछ कामकाजी स्त्रियों से मेरी जान-पहचान बढी। उनसे बात करके मेरे सोचने के तरीके में काफी बदलाव आया। मेरा आत्मविश्वास भी कई गुना बढ गया।

दोस्ती बढाने का जरिया

बैलकनी दोस्तों के लिए एक-दूसरे से बात करने का बेहतरीन जरिया है। एक आइटी कंपनी के सीईओ अभिषेक कुमार सिद्धू बताते हैं, 'बचपन में मैं घर के अंदर कम, बैलकनी में ज्य़ादा रहता था। तब फोन का ज्य़ादा प्रचलन नहीं था। घर में पेजर था लेकिन उसे पापा छूने नहीं देते थे। मेरे दोस्त का घर मेरे घर से करीब 500 मीटर की दूरी पर था। इस दूरी के चलते हम चिल्लाने पर भी एक-दूसरे की आवाज नहीं सुन पाते थे। ऐसे में हमने बात करने का एक धांसू तरीका ढूंढ

निकाला। हाथों के मूवमेंट वाली एक विशेष साइन लैंग्वेज तय की। इस लैंग्वेज ने हमारा काम आसान कर दिया। अब हम हर तरह की बात समझने लगे। कभी मैं उसे खेलने के लिए अपने घर बुलाता। तो कभी पार्क में खेलने चलने के लिए कहता था। आज न वो बैलकनी है, न ही वो दोस्त। और न ही वैसी आपसी समझ। बैलकनी कई बार दोस्तों के साथ शरारत करने का अड्डा भी बन जाती है। इस बारे में मैनेजमेंट स्टूडेंट विजय सिंह कहते हैं, 'मैं और मेरे दोस्त जब भी कोई लेक्चर बंक करते थे, तो बैलकनी के पास बैठकर उसे अटेंड करने वालों को गिनते थे और फिर उन्हें पढाकू कहकर चिढाते थे।

रोमैंस प्वाइंट

बैलकनी कई दफा प्रेम कहानियों को प्लैटफॉर्म मुहैया कराने की भूमिका भी निभाती है। यहां आंखों-आंखों में हुई बातें कई बार रिश्तों की नींव साबित होती हैं। ऐसा ही एक अनुभव बताते हैं विजय सिंह, 'मैंने बी.टेक. कोर्स के दौरान कॉलेज के दोस्तों के साथ हॉस्टल की बैलकनी में काफी यादगार वक्त बिताया है। मेरे कुछ

खुराफाती दोस्त बैलकनी में खडे होकर बाइनोक्यूलर से गल्र्स हॉस्टल की लडकियों को देखते थे। एक बार उनके कहने पर मैंने भी ऐसा किया तो मुझे भी एक लडकी दिखी। वह मुझे पहली ही नजर में पसंद आ गई। मैं हर रात उसे बैलकनी के पास खडे होकर देखता था। वह मुस्कुराती थी और अपने मोबाइल की टॉर्च जलाकर रेस्पॉन्स देती थी। हमारी दोस्ती की नींव बैलकनी में ही पडी।

सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है बैलकनी

'घर की उलझनों के दरम्यान मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने का बेहतरीन स्रोत है बैलकनी। आजकल जगह बचाने के लिए घरों में खिडकी या कांच के पारदर्शी दरवाजों से काम चला लिया जाता है। पर ये उतने कारगर नहीं हैं क्योंकि बैलकनी ओपन स्पेस में वक्त बिताने का जरिया है। यहां से आप विभिन्न स्वभाव और मिजाज वाले लोगों से बात कर सकते हैं। लेकिन यह बेहद सावधानीपूर्वक तय करें कि किस व्यक्ति से कौन सी बात करनी है। कुछ लोग बैलकनी में खडे होकर ही निजी मसलों पर भी बात करते हैं। अगर बालकनी में खडे होने के दौरान आपसे व्यक्तिगत मुद्दों पर बात करे, तो उसे या मना कर दें।

डॉ. निशा खन्ना, रिलेशनशिप एक्सपर्ट

ज्योति द्विवेदी


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