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कोशिश जि़ंदगी बचाने की

ऑर्गन डोनेशन पूर्णत: सुरक्षित है और इससे डरने के बजाय हमें इसके ज़रिये दूसरों की जि़ंदगी बचाने की कोशिश करनी चाहिए। अपने भाई शैलेंद्र को लिवर डोनेट करने वाली मृदुला ने इसी बात को सच साबित कर दिखाया है।

By Edited By: Published: Fri, 10 Feb 2017 03:35 PM (IST)Updated: Fri, 10 Feb 2017 03:35 PM (IST)
कोशिश जि़ंदगी बचाने की

कहा जाता है कि रिश्तों की पहचान हमेशा बुरे वक्त में होती है। सच्चा रिश्ता वही होता है, जिसमें इंसान सुख-दुख की परवाह किए बगैर अपनों का साथ दे। दादरी (उप्र.) की शिक्षिका मृदुला गर्ग ने जब अपने छोटे भाई शैलेंद्र का जीवन बचाने के लिए उसे अपना लिवर डोनेट करने का निर्णय लिया तो उनके इस रास्ते में भी कई तरह की रुकावटें आईं पर वह अपने नेक इरादे पर डटी रहीं और अंतत: उन्हें कामयाबी मिली। यह कैसे संभव हुआ, आइए जानें उन्हीं की जुबानी...

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जीने की जद्दोजहद वह हमारे परिवार के लिए बेहद मुश्किल दौर था। लगभग पांच साल पहले की बात है। मेरे छोटे भाई शैलेंद्र को जॉन्डिस हो गया था। उपचार के बाद उसकी तबीयत सुधर गई लेकिन कुछ ही दिनों बाद उसे हेपेटाइटिस-सी हो गया, जिसका लंबे समय तक ट्रीटमेंट चला पर उसकी सेहत में दिनोंदिन गिरावट आने लगी। उसके चेहरे और हाथ-पैरों में बहुत ज्यादा सूजन दिखने लगी। डॉक्टर्स से यह मालूम हुआ कि मेरे भाई को लिवर सिरोसिस की समस्या है। हम लोग इस बात से हैरान थे क्योंकि आमतौर पर एल्कोहॉल का ज्यादा सेवन करने वाले लोगों को यह बीमारी होती है जबकि मेरे भाई को ऐसी कोई आदत नहीं थी। तब हमें डॉक्टर ने बताया कि कई बार किसी इन्फेक्शन से भी लोगों को ऐसी समस्या हो जाती है।

तबीयत में सुधार न होने पर उसका आयुर्वेदिक उपचार कराया, उसे वेल्लोर स्थित सीएमसी हॉस्पिटल भी ले गए लेकिन दिनोंदिन उसकी हालत बिगडती जा रही थी। मार्च 2016 तक उसकी तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई। उसके पेट में पानी भरना शुरू हो गया, जिसे निकलवाने के लिए अकसर उसे हॉस्पिटल में एडमिट होना पडता। नोएडा स्थित जेपी हॉस्पिटल में उसका उपचार चल रहा था। एक रोज हॉस्पिटल में लिवर ट्रांस्प्लांट सर्जन डॉ. अभिदीप चौधरी ने मुझे बताया कि मेरे भाई की हालत ज्यादा बिगड चुकी है। अगर पंद्रह दिनों के अंदर लिवर ट्रांस्प्लांट नहीं किया गया तो उसे बचाना असंभव होगा।

उम्मीद की एक किरण यह खबर सुनते ही हमारे परिवार में मायूसी छा गई। शैलेंद्र मेरा इकलौता भाई है। उस पर मां, पत्नी और दो बच्चों की जिम्मेदारी है। हम लोग किसी भी तरह उसकी जिंदगी बचाना चाहते थे। सबसे पहले मेरी भाभी ने अपना लिवर डोनेट करने की इच्छा जाहिर की लेकिन वह डायबिटीज की मरीज है और उसका ब्लड ग्रुप भाई से मैच नहीं कर रहा था। इसलिए डॉक्टर ने उसे लिवर डोनेट करने से मना कर दिया। मेरा ब्लड ग्रुप श+ है और मैंने कहीं पढा था कि ऐसे लोग यूनिवर्सल डोनर होते हैं और इनका ब्लड ग्रुप किसी के भी साथ मैच कर जाता है। इसलिए मेरे मन में यह खयाल आया कि ऐसे मुश्किल हालात में मुझे अपने भाई की मदद करनी चाहिए। जब मैंने अपने पति और सास को इस बारे में बताया तो वे बहुत परेशान हो गए।

हालांकि उनका चिंतित होना स्वाभाविक था। मैं दो बच्चों की मां हूं और यह सोचकर उन्हें बहुत घबराहट हो रही थी कि अगर मेरे साथ कोई अनहोनी हो गई तो मेरी गृहस्थी कौन संभालेगा? फिर भी मैंने अपने पति संजय गर्ग से दोबारा बात की और उन्हें बहुत समझाया कि अगर इससे मेरे भाई की जिंदगी बच जाती है तो क्या हजर् है? जब मैंने बहुत आग्रह किया तो उन्होंने मुझे मेडिकल चेकअप करवाने की सलाह दी क्योंकि रिपोर्ट नॉर्मल आने पर ही मैं लिवर डोनेट कर सकती थी। फिर मैंने बिना देर किए हॉस्पिटल जाकर सारे जरूरी टेस्ट करवाए, जिसमें हार्ट, लिवर और किडनी जैसे सभी प्रमुख अंगों की जांच के अलावा कई तरह के ब्लड टेस्ट भी किए जाते हैं। इसके लिए एमआरआई, ईसीजी और अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों की मदद ली जाती है। रिपोट्र्स देखने के बाद जब डॉक्टर ने मुझसे कहा कि अब आप अपने भाई को लिवर डोनेट कर सकती हैं तो निराशा भरे उस दौर में मुझे उम्मीद की एक नन्ही किरण दिखाई देने लगी।

कशमकश भरा वह दौर यह सोचकर मैंने राहत की सांस ली कि शायद इस कोशिश से मेरे भाई की जिंदगी बच जाए पर रिश्तों की ये गुत्थियां भी कितनी अजीब होती हैं, खास तौर पर स्त्रियों के लिए इन्हें संभालना बेहद मुश्किल हो जाता है। एक तरफ मेरे भाई की जिंदगी का सवाल था, दूसरी ओर पति, सास और बच्चों से जुडी जिम्मेदारियां थीं। मेरे लिए किसी को भी छोडऩा नामुमकिन था। वह मेरे जीवन का बेहद ऊहापोह भरा दौर था। जब तक जांच की रिपोर्ट नहीं आई थी, तब तक ससुराल के लोग भी निश्चिंत थे लेकिन जैसे ही उन्हें यह खबर मिली कि अब मैं लिवर डोनेट कर सकती हूं तो वे बुरी तरह घबरा गए। सास ने दोबारा कहना शुरू कर दिया कि अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हमारा परिवार तबाह हो जाएगा। मेरे पति भी बहुत चिंतित थे।

छंट गए दुखों के बादल ऑर्गन ट्रांस्प्लांट सर्जरी से पहले सर्जन, हॉस्पिटल मैनेजमेंट के अधिकारियों और लीगल फोरम के लोगों के साथ डोनर और उसके परिवार वालों की एक मीटिंग होती है, जिसमें एक्सपर्ट डोनर के मन में उठने वाले सभी सवालों के जवाब देते हैं। डोनर के परिवार की भी काउंसलिंग होती है। वहां मौजूद लीगल फोरम के लोग डोनर के परिवार के सदस्यों से बातचीत करके इस बात की जानकारी लेते हैं कि कहीं उस पर ऑर्गन डोनेशन के लिए किसी तरह का कोई दबाव तो नहीं है। भले ही मैं अपने भाई को लिवर डोनेट कर रही थी पर मेरे पति और बच्चों (अगर उनकी उम्र 18 साल से ज्यादा हो तो) की सहमति के बिना कानूनन मुझे लिवर डोनेशन की इजाजत नहीं मिलती। डॉक्टर्स ने मेरे पति को समझाया कि सर्जरी के डेढ-दो महीने के बाद डोनर पूरी तरह स्वस्थ होकर सामान्य दिनचर्या में लौट आता है और अस्पताल में भी उसकी सेहत का विशेष ध्यान रखा जाता है। यह सब जानने के बाद मेरे पति को थोडी राहत मिली। फिर 5 अप्रैल 2016 को हम दोनों भाई-बहनों की सर्जरी हुई। जैसे ही मुझे होश आया, मैंने सबसे पहले आसपास मौजूद लोगों से अपने भाई का हाल पूछा।

जब डॉक्टर राउंड पर आए तो उन्होंने मुझे बताया कि शैलेंद्र बिलकुल ठीक है और वह भी मेरे बारे में पूछ रहा था। फिर वह व्हीलचेयर पर बिठा कर मुझे मेरे भाई से मिलवाने आइसीयू वॉर्ड में ले गए। मेरे लिए वह बडा ही भावुक क्षण था। जैसे ही मैं भाई के पास पहुंची, कोशिश करने के बावजूद अपने आंसू रोक नहीं पाई। उस वक्त मेरी मां बहुत घबरा रही थीं। वह अकसर लोगों से कहतीं कि मेरे दोनों बच्चों की जिंदगी दांव पर लगी है।

सास को मेरे इस निर्णय से असहमति जरूर थी पर जैसे ही मैं हॉस्पिटल में एडमिट हुई, वह मेरी जेठानी के साथ वहां पहुंच गईं और उन्होंने मेरी हर जरूरत का पूरा खयाल रखा। इसके तीन महीने बाद रक्षाबंधन का त्योहार आया, जो मेरे पूरे परिवार के लिए बहुत खास हो गया। अब मैं पूर्णत: स्वस्थ हूं और मेरा भाई भी अपनी दुकान संभालने लगा है। उसका हंसता-खेलता परिवार देखकर मुझे जो संतुष्टि मिलती है, मेरे लिए उसे शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना असंभव है। मेरा मानना है कि जब भी किसी को जरूरत हो, हमें उसकी मदद के लिए आगे जरूर आना चाहिए क्योंकि इसी बहाने वक्त हमारे रिश्तों का इम्तिहान लेता है।


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