सत्यम् शिवम् सुंदरम्
जीवन अपने आपमें एक यात्रा है और इस यात्रा की दो ही दिशाएं हैं - एक तो बाहर की ओर और दूसरी भीतर की ओर। भौतिक उपलब्धियों के लिए चल रही सारी भागदौड़ बाहर की यात्रा है तो ध्यान की यात्रा है भीतर की यात्रा। यह भीतर की यात्रा भारत
जीवन अपने आपमें एक यात्रा है और इस यात्रा की दो ही दिशाएं हैं - एक तो बाहर की ओर और दूसरी भीतर की ओर। भौतिक उपलब्धियों के लिए चल रही सारी भागदौड बाहर की यात्रा है तो ध्यान की यात्रा है भीतर की यात्रा। यह भीतर की यात्रा भारत के स्वभाव में है।
एक पुरानी कहानी है- सच है कि झूठ कहना मुश्किल है- लेकिन उसका अपना गहरा महत्व है। कहानी झूठ भी हो तो अर्थपूर्ण है। सिकंदर जब अपने विश्व-विजय अभियान के अंतर्गत भारत आ रहा था, तो आने के पहले अपने गुरु की शुभकामनाएं लेने के लिए उनसे मिलने गया। उसने पूछा, 'गुरु जी, मैं भारत जा रहा हंू, वहां से आपके लिए क्या लेकर आऊं, आपकी क्या फरमाइश है।'
सिकंदर का गुरु भी अद्भुत विचारक था, दार्शनिक था। उसने बहुत सोचा-विचारा और कहा, हमारे देश में और सब कुछ है, लेकिन एक चीज की कमी है। हमारे देश में कोई संन्यासी नहीं है। और मैंने सुना है कि भारत में संन्यासी ही संन्यासी हैं। आप अगर ला सकें तो अपने साथ एक संन्यासी ले आएं। मैं देखना चाहता हंू कि संन्यासी किस तरह के लोग होते हैं, वे कैसा जीवन जीते हैं। मैंने उनकी बहुत महिमा सुनी है। मैं इस महिमा का रहस्य जानना चाहता हंू।
सिकंदर ने कहा, यह कोई बडी बात नहीं, आपकी फरमाइश जरूर पूरी करूंगा। वह भारत आया। किसी एक गांव में उसे याद आई अपने गुरु की फरमाइश और अपने सैनिकों को उसने आदेश दिया कि जाओ, किसी संन्यासी को ढूंढ लाओ। गांव में नदी-तट पर ध्यान में बैठा एक संन्यासी दिख गया और सैनिकों ने उसे उनके साथ चलने को कहा। संन्यासी ने उनसे पूछा, आप कौन हैं और मैं किसलिए आपके साथ चलूं?
सैनिकों ने कहा, हम महान सिकंदर के सैनिक हैं। उनकी आज्ञा है कि हम आपको उनके पास ले जाएं।
संन्यासी ने कहा, अपने शासक को जाकर कह दो कि मैं अपना स्वामी स्वयं हंू, मैं किसी और की आज्ञा नहीं मानता। मैं संन्यासी हंू और संन्यास मेरी स्वतंत्रता है।
सैनिक निराश होकर सिकंदर के पास लौट आए और संन्यासी के साथ हुई अपनी चर्चा का वर्णन किया। सिकंदर ने कहा, लगता है मुझे स्वयं ही जाना पडेगा। गुरु की आज्ञा का पालन तो करना ही है।
वह संन्यासी के पास स्वयं गया और अपना परिचय देते हुए कहा, 'मैं महान सिकंदर हंू। लगता है, आपने मेरे संबंध में कुछ सुना नहीं है। मैं विश्व-विजय करता हुआ भारत आया हंू। मुझे भारत से एक संन्यासी को यूनान ले जाना है। मेरे गुरु संन्यासी की जीवनचर्या देखना चाहते हैं। मैं आदेश देता हंू कि आप मेरे साथ चलें। आज्ञा का अगर उल्लंघन किया तो आपका सिर काट दिया जाएगा।
सिकंदर की यह धमकी भरी घोषणा संन्यासी ने सुनी, और फिर भी अकंप बना रहा। संन्यासी को कैसा भय! मुस्कराते हुए संन्यासी बोला, 'मुझे तो हंसी आ रही है कि आप अपने आपको महान कहते हैं। केवल हीनता की गं्रथि वाले ही अपने को महान घोषित करते हैं। और आपने अपने को जीता नहीं, अपनी महत्वाकांक्षाओं और वासनाओं पर कोई नियंत्रण नहीं किया, आपकी विश्व-विजय यात्रा बिलकुल व्यर्थ है। आप सम्राट दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में हैं एक भिखारी, एक लुटेरे हैं। मुझे आपकी महानता नहीं, दीनता दिखाई देती है। और आप कहते हैं कि आप मेरा सिर काट देंगे। काटिए। मैं तो स्वयं अपने सिर से मुक्त हो चुका हंू। अहंकार मिटा कि सिर गया। अब मैं आत्मस्थ हंू, स्वस्थ हंू- स्वयं मैं स्थित हंू। सिर से मुक्त हंू, चिंता से मुक्त हंू। आप मुझे अपने साथ चलने को कह रहे हैं। मेरी कहीं जाने की, कुछ पाने की इच्छा नहीं है- आप्तकाम हंू। मैं आवागमन से मुक्त हंू। आप यह बता देना अपने गुरु को।
संन्यासी की इस उद्घोषणा को सुनकर सिकंदर चमत्कृत हुआ। वह ख्ााली हाथ लौट गया। इतना ही नहीं, वह कभी अपने देश भी नहीं लौट सका, बीच रास्ते में ही उसके प्राण छूट गए। उसकी विश्व-विजय, लूट खसोट की सारी संपदा बीच में ही छूट गई। ऐसी निराशा की घडिय़ों में संन्यासी की उद्घोषणा का उसे अवश्य स्मरण आया होगा, क्योंकि मरता हुआ आदमी अंतिम क्षणों में अपने पूरे जीवन की एक झलक पूरी त्वरा और तीव्रता से देख लेता है। सब यादें सघन होकर मानस-पटल पर सामने आ जाती हैं।
कहानी से कहीं अधिक प्रीतिकर इसका भावार्थ है। गौर करें, हमारे जीवन में बस यही दो आयाम हैं - बहिर्यात्रा और अंतर्यात्रा। बहिर्यात्रा है महत्वाकांक्षा की, दुनिया को जीतने की। अंतर्यात्रा है निर्वासन की, स्वयं को जीतने की। इस जगत में आदिकाल से तरह-तरह के सिकंदर हुए और वे दुनिया को जीतने में लगे रहे, अंतत: उनके हाथ में राख आई। इतिहास उनकी कहानियों से भरा पडा है। सच तो यह है कि विश्व का संपूर्ण इतिहास ऐसे सम्राटों और शासकों की गौरव-गाथाओं से भरा पडा है। इस इतिहास को भारत ने इतना महत्व नहीं दिया, जितना दुनिया के दूसरे देश देते हैं। और यह भी सच है कि भारत का इतिहास भी विदेशी इतिहासज्ञों द्वारा ज्यादा लिखा गया है। हमने स्वयं अपना इतिहास लिखने में इतनी अधिक रुचि नहीं ली।
भारत की रुचि ही मूलत: किसी और आयाम में रही, जिसमें गीता, रामायण, वेद, शास्त्र, श्रुतियां उपनिषद, धम्मपद और पुराण कथाएं आती हैं। इतिहास से अधिक इस आयाम पर हमने अपने प्राणों और अपनी चेतना को नियोजित किया। विश्व-विजय की अपेक्षा भारत ने जगतगुरु होने की दिशा पकडी। भारत ने कभी किसी मुल्क पर आक्रमण की योजना नहीं बनाई, बल्कि अगर कहीं युद्धों या हिंसा के कारण कोई विस्थापित हुआ तो उसे शरण दी। पिछली सदी में दलाई लामा और उनके लोगों को मिली शरण इसकी ताजा मिसाल है। इसकी वजह से चीन हमें माफ नहीं कर सका है, लेकिन भारत ने कभी इसकी चिंता नहीं की।
भारत की यह दृष्टि, आदिकाल से चली आ रही अंतर्यात्रा और उससे मिली आबोहवा का ही परिणाम है। सनातन काल से यही इसकी सनातन धार्मिकता है। सनातन में - पुरातन, नूतन और भविष्य, सब समाहित हो जाता है।
अगर हम भारत का संधि-विच्छेद करके देखें तो एक गरिमापूर्ण अर्थ सामने आता है। भा यानी प्रकाश, रत यानी संलग्न। जहां कहीं भी लोग अंत: प्रकाश की अंतर्यात्रा में संलग्न हैं, वे भारतवासी हैं। भौगोलिक हिसाब से वे कहीं भी रहें, प्रवासी हों अप्रवासी हों, अगर वे अंतर्यात्रा, ध्यान की यात्रा में अपने भीतर प्रकाश की खोज में हैं तो वे सच्चे अर्थों में भारतीय हैं। उनके ऊपर हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई होने का कुछ भी लेबल हो, कोई फर्क नहीं पडता है, वे भारतीय हैं।
इसलिए आदिकाल से जिस व्यक्ति को भी कभी आत्म-उपलब्धि, आत्मज्ञान का स्मरण आया, वह व्यक्ति दुनिया के कोने-कोने से भारत चला आया। आक्रमणकारी भी आए, लेकिन उनमें जो संवेदनशील थे, वे भारत द्वारा आत्मसात कर लिए गए। उनका रूपांतर हो गया। रूपांतरण की यह अल्केमी भारत के पास है। कोई अतिथि की भांति आता है तो वह यहां देवतुल्य हो जाता है। कोई आक्रमण करता हुआ आता है तो वह भी इस अल्केमी से अछूता नहीं रहता।
भारत की अल्केमी का मूल बिंदु है ध्यान। योग इसका ऊपरी आवरण है। ध्यान इसकी अंत:सलिला है। योग की सतह के नीचे जमीन के भीतर ही भीतर बह रही धारा। अपने पूर्ण रूप में यह ध्यान योग है। ध्यानयोग से व्यक्ति पूर्णत: स्वस्थ होता है। स्वस्थ अर्थात् स्व में स्थित। आत्मस्थ।
जो स्वस्थ है वह संन्यासी है। चाहे वह हिमालय में रहे अथवा मुंबई शहर में। वह कहीं भी रहे, अगर वह ध्यान को समर्पित जीवन जीता है, प्रतिपल होश के साथ, तो वह संन्यासी है। उसकी गरिमा और महिमा के सामने सिकंदरों की शान-शौकत फीकी है। भारत की यह गरिमा, यह महिमा कहीं विस्मृत न हो जाए, इसका हमें स्मरण रखना होगा।
अंत में, ओशो के इन शब्दों पर ध्यान देना उपयोगी होगा - मैं जीवन का मूल्य, मात्र सफलता में ही नहीं देखता हंू। मैं उसे देखता हंू सत्य में, शिवत्व में, सौंदर्य के लिए, असफलता को भी सीखा जाना चाहिए। उस दिशा में असफलता भी गौरव है, यही दृष्टि पैदा होनी चाहिए। सत्य के लिए हार जाना भी जीत है। क्योंकि उसके लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है और इन शिखरों को छू पाती है, जो कि परमात्मा के प्रकाश में आलोकित हैं।
बात एक बार की
भीतरी और बाहरी संपदा
एक महर्षि थे - कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद खेतों में जो अन्न-कण पडे रह जाते थे, उन्हें बीन कर वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड गया था। राजा को पता चला तो उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा, 'यह धन तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरूरत है।'
राजा ने तीन बार मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया। अंत में राजा स्वयं बहुत-सा धन लेकर गया और महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, 'उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सब कुछ है।'
राजा को विस्मय हुआ। उसने लौटकर पूरी बात अपनी रानी को बताई। वह बोली, 'आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।'
राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी। कणाद ने कहा, 'गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।'
एक संपदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है।
स्वामी चैतन्य कीर्ति