...जो दिलों के नाते हैं
परिवार में रिश्ते निभाने की जि़म्मेदारी स्त्रियों के कंधों पर होती है लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि उन्हें नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। ऐसे में यह ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि वे मायके-ससुराल और दोस्तों के साथ रिश्ते में संतुलन बनाए रखें।
बहू-बेटी, ननद-भाभी, देवरानी-जेठानी.. हर स्त्री अपने जीवन में न जाने कितने रिश्ते एक साथ निभा रही होती है। जितने लोग उतनी उम्मीदें, हर रिश्ते में परफेक्ट बनने की चुनौती, फिर भी उससे लोगों को कई तरह की शिकायतें होती हैं। हालांकि सभी को खुश रख पाना बेहद मुश्किल है, फिर भी कोशिश तो की ही जा सकती है क्योंकि परिवार की खुशहाली के लिए यह जरूरी है कि सभी रिश्तों को समान रूप से तवज्जो दी जाए।
संतुलन का साथ शादी के बाद लडकी का ज्य़ादा समय ससुराल में बीतता है और इस दृष्टि से वहां के लिए उसकी जिम्मेदारियां भी बढ जाती हैं। कई बार ऐसे भी अवसर आते हैं, जब दोनों परिवार के लोग एक साथ मौजूद होते हैं। तब इस बात का खासतौर पर ध्यान रखना जरूरी होता है कि दोनों में किसी भी परिवार का सदस्य स्वयं को उपेक्षित महसूस न करे। दिल्ली की होममेकर अर्पिता शर्मा कहती हैं, 'हमारी शादी को नौ साल हो चुके हैं। मैं अपने सास-ससुर के साथ रहती हूं। शुरू से ही मेरी यह कोशिश रही है कि दोनों परिवारों के बीच संतुलन बना रहे। जब भी ससुराल में मेरे पेरेंट्स आते हैं, मेरी यही कोशिश होती है कि वे सास-ससुर के साथ ज्यादा वक्त बिताएं। इससे परिवार का माहौल खुशनुमा हो जाता है और मेरे पेरेंट्स भी बहुत कंफर्टेबल फील करते हैं।
जब सास-ससुर मेरे मायके में जाते हैं तो वहां भी उनके खयाल की जिम्मेदारी मुझ पर ही होती है। मैं अपनी मम्मी और सास को हमेशा एक-दूसरे की बर्थडे और एनिवर्सरी की याद दिलाती रहती हूं। मैं नहीं चाहती कि छोटी-छोटी बातों की वजह से आपसी रिश्ते में कोई कडवाहट आए। कई बार दोनों परिवारों के छोटे भाई-बहनों को एक साथ आउटिंग पर ले जाती हूं। हमउम्र होने के कारण वे एक-दूसरे के साथ खूब एंजॉय करते हैं और किसी को भी मुझसे यह शिकायत नहीं होती कि भाभी/दीदी हमारा खयाल नहीं रखतीं।
पहचानें अपनी अहमियत मायके और ससुराल को जोडऩे वाली सबसे महत्वपूर्ण कडी स्त्री ही होती है। उसकी कोशिशों से ही दोनों परिवारों के बीच सामंजस्य बना रहता है। हालांकि अब लोगों की सोच में काफी खुलापन आ गया है, फिर भी माता-पिता की सहमति के बिना प्रेम-विवाह करने वाली लडकियों को दोनों के परिवारों के बीच सामंजस्य बिठाने में काफी मशक्कत करनी पडती है। दोनों परिवारों की भाषा और खानपान में ज्यादा अंतर होने की स्थिति में यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है। दिल्ली की अनुष्का बताती हैं, 'मेरे पति रघु तमिल ब्राह्मण और हम पंजाबी हैं।
मुझे पहले से ही इस बात का अंदाजा था कि शादी के बाद मुझे अपनी कई आदतें बदलनी होंगी लेकिन जब भी मेरे पेरेंट्स या भाई-बहन हमारे घर आते हैं तो मैं अतिरिक्त सावधानी बरतती हूं कि दोनों परिवारों के बीच कोई गलतफहमी न हो। सास-ससुर के सामने अपने मायके वालों से भी पंजाबी के बजाय अंग्रेजी में बात करती हूं ताकि वे भी हमारी बातचीत समझ सकें। जिस तरह मैं सास-ससुर का खयाल रखती हूं, वैसे ही रघु भी मेरे पेरेंट्स को कंफर्टेबल फील करवाने की कोशिश करते हैं।
रिश्तों की बेहतरी के लिए पुरुषों को भी कोशिश करनी चाहिए लेकिन इस मामले में स्त्री की भूमिका ज्यादा अहमियत रखती है। इसलिए उसे अपने संतुलित व्यवहार से ऐसा माहौल तैयार करना चाहिए कि दोनों परिवार एक-दूसरे के साथ सहज महसूस करें।
मिटें दिलों की दूरियां यह जरूरी नहीं है कि हर परिवार में सभी सदस्यों के आपसी संबंध मधुर हों लेकिन बहू, सास, भाभी या मां होने के नाते हर स्त्री की यह जिम्मेदारी बनती है कि उसके परिवार के सभी सदस्यों के आपसी रिश्ते में मधुरता बनी रहे। शालिनी एक स्कूल में टीचर हैं। वह बताती हैं, 'शादी के बाद जब मैं ससुराल आई तो कुछ ही दिनों में मुझे यह अंदाजा हो गया कि मेरी दो जेठानियों के आपसी रिश्ते में इतनी कडवाहट है कि वे एक-दूसरे से बातचीत तक नहीं करतीं। मुझे ऐसे तनावपूर्ण माहौल में रहने की आदत नहीं थी। सबसे छोटी बहू होने की वजह से मैं किसी को बहुत ज्यादा सलाह भी नहीं दे सकती थी।
इसलिए मैंने लोगों को करीब लाने का एक नया तरीका ढूंढा। अपनी छोटी ननद के साथ मिलकर जन्मदिन या शादी की सालगिरह जैसे अवसरों पर मैं सरप्राइज पार्टी का आयोजन करने लगी, जिसमें मैं कुछ करीबी रिश्तेदारों और फैमिली फ्रेंड्स को आमंत्रित करती। ऐसे में दूसरों के सामने दिखावे के लिए मजबूरन उन्हें एक-दूसरे से बातचीत और गिफ्ट देने की रस्म अदायगी भी करनी पडती। इस तरह धीरे-धीरे उनके संबंध सामान्य होने लगे। आज हमारे परिवार में सब बेहद खुश हैं और मुझे भी उनका भरपूर स्नेह मिलता है।
जरूरत सोच बदलने की मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता के अनुसार, 'भारतीय समाज में अब तक चली आ रही परंपरावादी सोच के मुताबिक, जहां लडके के परिवार वालों को विशेष मान-सम्मान दिया जाता है, वहीं बहू के मायके वालों को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती। पुराने समय में दोनों परिवारों के बीच बेहद औपचारिक किस्म का रिश्ता होता था, जो केवल उपहारों के लेन-देन तक सीमित था।
दोनों परिवारों के सदस्यों का मिलना-जुलना भी बहुत कम होता था। समय के साथ अब लोगों की सोच में भी बदलाव आ रहा है। आजकल ज्यादातर परिवारों में स्त्रियां कामकाजी होती हैं। इसलिए बच्चों की देखभाल में दादा-दादी के साथ नाना-नानी भी बराबरी का सहयोग देते हैं। इसी बहाने उन्हें एक-दूसरे के साथ वक्त बिताने का मौका मिलता है और दोनों परिवारों के रिश्ते में मधुरता बनी रहती है।
दोस्ती बनाम रिश्तेदारी रिश्तों के मामले में पति-पत्नी के बीच इस बात को लेकर हमेशा रस्साकशी चलती रहती है कि तुम हमेशा अपने दोस्तों के साथ व्यस्त रहते/रहती हो लेकिन रिश्तेदारों के लिए तुम्हारे पास जरा भी वक्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में दोस्ती और रिश्तेदारी के बीच संतुलन रखना जरूरी हो जाता है। आशीष शर्मा एक निजी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। वह कहते हैं, 'संयोगवश मेरे सारे कॉलेज फ्रेंड्स हमारे घर के आसपास ही रहते हैं। इसलिए प्राय: हर वीकेंड पर हमारा मिलना-जुलना होता था।
फिर कुछ समय के बाद पत्नी सहित मेरे भाई-बहनों को भी मुझसे यह शिकायत होने लगी कि आपके पास हमारे लिए वक्त ही नहीं होता। शुरुआत में मैं इन बातों को हंस कर टाल देता था पर धीरे-धीरे मुझे यह एहसास होने लगा कि अपने परिवार के लिए भी वक्त निकालना चाहिए। इसलिए अब मैंने उनसे मिलना कम कर दिया है पर फोन पर अकसर हमारी बातचीत होती है। जीवन में हर रिश्ते की अपनी खास जगह होती है और संबंधों के बीच संतुलन बनाए रखने की कला ही इंसान को खुश रहना सिखाती है।