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बड़ा परिवार सुखी परिवार

संयुक्त परिवार अच्छा है या एकल, इस पर बहस होती रही है। हाल के कुछ वर्षों में यह कम हुआ लेकिन अब एक बार फिर लोग संयुक्त परिवारों की ओर जाने लगे हैं। एक नजर इस सामाजिक बदलाव पर।

By Edited By: Published: Sat, 02 Jul 2016 01:15 PM (IST)Updated: Sat, 02 Jul 2016 01:15 PM (IST)
बड़ा परिवार सुखी परिवार
घर में मिताली की शादी की तैयारियां चल रही हैं। मैट्रमोनियल साइट्स पर सुयोग्य वर ढूंढा जा रहा है। रिश्तेदारों-परिचितों और दोस्तों के सुझाए रिश्तों पर भी गौर किया जा रहा है। जितने मुंह उतनी बातें। बडी बुआ समझा रही हैं, 'मिताली तुम्हें नौकरी करनी है तो प्लीज ऐसी फैमिली देखो, जहां ज्य़ादा जिम्मेदारियां न हों, वर्ना बहुत परेशानी होगी। घर में ही उलझी रह जाओगी।' मां और मौसी की सलाह है कि शादी के बाद अकेले रहने को मिले तो अच्छा है। दोस्तों का कहना है, 'ग्रीन कार्ड होल्डर होना चाहिए लडका। यूएस शिफ्ट कर जाओगी तो करियर बन जाएगा...।' सीनियर्स समझाते हैं, 'देखो लडका ऐसा तलाशना, जिसकी जिम्मेदारियां कम हों और माता-पिता को पेंशन मिलती हो...। यू नो...प्राइवेट सेक्टर में कितना मुश्किल है नौकरी संभालना...।' ...इस पूरी कवायद में आखिरकार मिताली को एक लडका पसंद आया है। उसका नाम है नवल...। 'अरे कोई इसे समझाओ, दिल्ली में पली-बढी है। छोटे शहर के जॉइंट फैमिली वाले लडके के साथ कैसे निभाएगी?' मां, मौसी और बुआ के माथे पर बल पडऩे लगे हैं। मिताली ऐसी बातें सुनकर मुस्कुरा देती है। नया है ये जमाना पिछले लगभग दो-तीन दशकों से महानगरों की न्यूक्लियर फैमिली में रहने वाले युवाओं को संयुक्त परिवार भाने लगे हैं। संयुक्त परिवार को प्राथमिकता देने वाली मिताली अकेली लडकी नहीं है। पांच साल यूएस में पति के साथ अकेले बिता कर भारत लौटने वाली सुनिधि भी संयुक्त परिवार में खुश हैं। सुनिधि कहती हैं, 'मेरी बेटी यूएस में ही पैदा हुई है। उस दौरान हालांकि मेरी मां और सास कुछ-कुछ समय के लिए मेरे पास रहीं लेकिन मुझे समझ आया कि जॉब के साथ एक बच्चे की परवरिश कितनी मुश्किल होती है। मैंने तभी सोच लिया कि भारत लौटने के बाद पेरेंट्स के साथ ही रहूंगी। हमारा परिवार बहुत बडा नहीं है। सास-ससुर के अलावा एक देवर हमारे साथ है। मैं न्यूक्लियर फैमिली में रही हूं। मां ने नौकरी के साथ हम भाई-बहन को बडा किया है, जो बेहद मुश्किल था उनके लिए। शायद इसीलिए मेरे मन में हमेशा से संयुक्त परिवार में रहने की इच्छा रही। थोडी समझदारी बरती जाए तो मुझे लगता है कि संयुक्त परिवार में निभाया जा सकता है। यूएस में भी मैं बहुत अकेलापन महसूस करती थी। अपने कल्चर को मैं वहां भूलती जा रही थी। अब यहां हमेशा कोई न कोई बर्थ डे, नामकरण या शादी होती रहती हैं और वीकेंड्स पर खूब मस्ती भी करती हूं सबके साथ। मुझे अब यह चिंता नहीं रहती कि बेटी को कौन संभालेगा। वह दादी की लाडली है। ससुराल लौटते ही जिम्मेदारी का भाव भी आ गया है। हां, कभी-कभी अपने प्राइवेट टाइम के लिए क्रेविंग होती है लेकिन सच कहूं तो मैं जॉइंट परिवार में ही रहना चाहती हूं।' अपने-अपने सुख-दुख सिक्के के दो पहलू होते हैं। हर पारिवारिक ढांचे के अपने फायदे-नुकसान हैं। एकल परिवारों में जिम्मेदारियां कम और आजादी ज्य़ादा महसूस हो सकती है, रिश्तों में ज्य़ादा लोकतांत्रिक रहा जा सकता है, बच्चों से गहरी बॉण्डिंग हो सकती है। ऐसा भी माना जाता है कि संयुक्त परिवारों के मुकाबले एकल परिवारों में झगडे कम होते हैं। दूसरी ओर संयुक्त परिवारों का सबसे बडा लाभ यह है कि इसमें किसी एक पर ही अधिक कार्यभार नहीं पडता। किसी भी संकट के समय लोग एक-दूसरे के साथ मौजूद होते हैं। दो पीढिय़ों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित हो सकता है। अगर परिवार में स्त्रियां हैं तो उनके काम आपस में बंट जाते हैं। बच्चों में भी सुरक्षा-भाव ज्य़ादा होता है जिससे उनका विकास सही ढंग से होता है। एक तरह से संयुक्त परिवार सामाजिक बीमा की तरह हैं, जिसमें खासतौर पर बच्चों और वृद्धों की अच्छी देखभाल होती है। शादी के तुरंत बाद लडके-लडकियों को थोडी प्राइवेसी की जरूरत होती है। एक-दूसरे को समझने के क्रम में कई बार परिवार उन्हें आजादी में बाधक लगता है। कुछ वर्ष बाद जब काम और बच्चों की जिम्मेदारियां बढऩे लगती हैं, संयुक्त परिवार का महत्व समझ आता है। खासतौर पर नौकरीपेशा दंपतियों को तो परिवार की कीमत ज्य़ादा पता रहती है। ताकि व्यवस्था चल सके पुरानी दिल्ली में आज भी कई संयुक्त परिवार हैं, जो बरसों से चलते आ रहे हैं। फ्लैट्स में बंधी दिल्ली में यह चलन कुछ कम हुआ है, लेकिन कुछ परिवार आज भी संयुक्त परिवार को बचाने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। पूर्वी दिल्ली में एक तिमंजिले घर के मुखिया हैं गोपीदास। उनका घर दो अलग-अलग स्ट्रीट्स में खुलता है। पांच बेटे हैं। ग्राउंड फ्लोर पर गोपीदास अपनी पत्नी के साथ रहते हैं। उनका घर स्ट्रीट ए में खुलता है, जबकि सबसे छोटे बेटे का घर स्ट्रीट बी में खुलता है। इसी तरह दो बेटे फस्र्ट फ्लोर में और दो सेकंड फ्लोर में रहते हैं। सबकी अपनी प्राइवेसी मेंटेन रहती है, खाना भी अलग बनता है। चार बेटे पुरानी दिल्ली में बिजनेस करते हैं, जबकि एक बेटा दूसरे शहर में है। उसका घर किराये पर दिया गया है। वीकेंड्स और त्योहारों पर सब लोग साथ खाना खाते हैं। महीने-दो महीने में पिकनिक पर भी जाते हैं और साल में दो बार किसी हिल स्टेशन या तीर्थस्थल की यात्रा पर हो आते हैं। फिलहाल इस घर में 11-12 वयस्क और इतने ही बच्चे हैं। इस व्यवस्था से सबको जॉइंट फैमिली का सुख भी मिलता है और परिवारों की निजता भी बनी रहती है। पूर्वी दिल्ली की माथुर एंड फैमिली भी ऐसी ही है। इस परिवार के एक ही सोसाइटी में तीन-चार फ्लैट्स हैं। इनकी चार पीढिय़ां अगल-बगल के फ्लैट्स में रहती हैं। सबसे पहले यहां माथुर परिवार के मुखिया अपने माता-पिता के साथ रहते थे। शुरुआत में छोटे भाई साथ थे, जो दूसरे शहर में ट्रांस्फर होने के कारण चले गए। मिस्टर माथुर के तीन बच्चे हैं-दो बेटे और एक बेटी। बेटी की शादी की तो वह ससुराल चली गई। फिर बेटे बडे हुए तो घर छोटा पडऩे लगा। तब दोनों बेटों के लिए दो फ्लैट खरीदे गए। अब उनके बच्चे भी हैं। चार पीढिय़ां एक साथ संयुक्त परिवार के एहसास के साथ मजे से जी रही हैं। कहते हैं, जहां चार बर्तन होंगे, खटकेंगे भी। थोडी नोक-झोंक तो रिश्तों में होती ही है, इनके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि संयुक्त परिवारों में सामंजस्य बिठाना मुश्किल होता है। हर रिश्ते को निभाने के लिए धैर्य, समर्पण, त्याग और समझौते की जरूरत पडती है। अगर परिवार के सभी वयस्क समझदारी से काम लें और बच्चों को ऐसे संस्कार दें कि वे निभाना सीख सकें तो संयुक्त परिवार वास्तव में खुशहाल परिवार साबित हो सकते हैं। हम साथ-साथ हैं अंजली एकल परिवार में पली-बढीं लेकिन उनकी शादी संयुक्त परिवार में हुई। कहती हैं, 'मेरे सास-ससुर और घर के बाकी लोग सुपर कूल हैं, इसलिए मुझे एडजस्ट करने में कोई परेशानी नहीं होती। हमें जब भी अपने एकांत की जरूरत होती है, चुपके से मां-पापा (सास-ससुर) को एक हफ्ते का टूर पैकेज थमा देते हैं। यह हमारा और उनका हनीमून पीरियड होता है लेकिन मुझे सारे काम अकेले भी करने पडते हैं। मेरी सास होती हैं तो वह बहुत मदद करती हैं। हां, शादी के बाद शुरू में थोडी परेशानी हुई थी। हर लडकी की तरह मुझे वेस्टर्न पहनने का शौक था। व्रत-उपवास नहीं करती थी मगर यहां यह सब करना पडा। शादी के एक साल तक यह चला, फिर मेरी सास ने खुद ही मेरा उत्साह बढाया और आज मैं वैसे ही रहती हूं, जैसे मम्मी के घर में रहती थी। अपनी मर्जी से कपडे पहनती हूं, खाना खाती हूं। हमारे घर में नॉनवेज खाना नहीं बनता तो वीकेंड पर मैं बाहर जाकर खाती हूं। पति के साथ साल में दो बार छुट्टियां बिताने जाती हूं। मुझे क्या पसंद है- क्या नहीं, मेरी सास हर चीज का ध्यान रखती हैं।' इंदिरा राठौर

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