उम्मीदों और उमंगों से सजी रंगोली
भारतीय संस्कृति में सभी शुभ अवसरों पर रंगोली बनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ख़्ाास तौर पर दीपावली के साथ रंगोली का बेहद करीबी रिश्ता है क्योंकि इसे सुख-समृद्धि का प्रतीकमाना जाता है। आइए देखें इस पारंपरिक कला केविविध रूपों की एक झलक।
भारतीय संस्कृति में सभी शुभ अवसरों पर रंगोली बनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ख्ाास तौर पर दीपावली के साथ रंगोली का बेहद करीबी रिश्ता है क्योंकि इसे सुख-समृद्धि का प्रतीकमाना जाता है। आइए देखें इस पारंपरिक कला केविविध रूपों की एक झलक।
जरा याद कीजिए बचपन की वो दीपावली जब आप अपनी मां के साथ बैठकर घर के मुख्य द्वार पर रंगोली बनाती थीं। लाल, पीले, हरे, नीले और गुलाबी रंगों से उकेरी गई फूल-पत्तियां, शंख, मोर, हंस, मछलियां, अष्टदल कमल, हाथी, मंगल कलश, दीपक और देवी-देवताओं की मनोहारी छवि...ऐसा लगता था कि सीधे आकाश से इंद्रधनुष हमारे घर-आंगन में उतर आया हो।
...वक्त बदलता है। कल तक मां के साथ रंगोली बनाने वाली वही नन्ही बच्ची आज अपने बच्चों के साथ दीपावली की सजावट में जुटी है। वक्त चाहे कितना ही क्यों न बदल जाए, पर कुछ परंपराएं आज भी हमारे संस्कारों में इस ख्ाूबसूरती से रची-बसी हैं कि त्योहारों के अवसर पर हम उन्हें पूरे उल्लास के साथ निभाते हैं। दीपावली पर रंगोली बनाना भी उन्हीं सुंदर परंपराओं में से एक है। सामान्यत: रंगोली व्रत-त्योहार और विवाह जैसे शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी-देवताओं की आकृतियां। इन पारंपरिक आकृतियों के विषय विभिन्न अवसरोंके अनुकूल अलग-अलग होते हैं।
परंपरा का इतिहास
मोहनजोदडो और हडप्पा संस्कृति के प्राचीन अवशेषों में भी रंगोली के चिह्न मिलते हैं। इसे प्रमुख 64 कलाओं में से एक माना जाता है। रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। संस्कृत के आलेपन शब्द से इसकी उत्पत्ति हुई है। आलेपन का अर्थ है -लेप करना। प्राचीन काल में लोगों की ऐसी मान्यता थी कि ये कलात्मक चित्र गांव को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर शांति निकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे भी चित्रकला की तरह एक अनिवार्य विषय बनाया। आज भी यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती है।
क्यों बनाई जाती है रंगोली
दीपावली के अवसर पर घरों में चित्रित रंगोली धार्मिक-सांस्कृतिक आस्था की प्रतीक रही है। इसे आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। इसीलिए हवन की वेदी बनाते समय भी उसके चारों ओर सूखे आटे, हल्दी और कुमकुम से रंगोली बनाई जाती है। दक्षिण भारतीय गांवों में घर-आंगन बुहारकर उसे लीपने के बाद रंगोली बनाने की परंपरा आज भी कायम है। इस कला के पीछे भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी निहित है। अल्पना या रंगोली उस जीवन-दर्शन का प्रतीक है, जिसमें भविष्य की नश्वरता को जानते हुए भी वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना निरंतर बनी रहती है। त्योहारों के अलावा विवाह, नामकरण और यज्ञोपवीत जैसे शुभ अवसरों पर भी रंगोली सजाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस कला में स्त्रियों की कल्पना-शक्ति और सृजनशीलता का बहुत सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। रंगोली में बनाए जाने वाले चिह्न जैसे स्वस्तिक, कमल का फूल, लक्ष्मी जी के चरण इत्यादि समृद्धि और मंगल-कामना के सूचक समझे जाते हैं।
विभिन्न प्रांतों के अनूठे रंग
देश के विविध प्रांतों में इस अलंकरण कला को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु और केरल में कोलम के नाम से जाना जाता है। रंगोली के इन विविध रूपों में संपूर्ण भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश न हो। भारत के दक्षिणी किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर फूलों की पंखुडिय़ों और पत्तियों से रंगोली बनाई जाती है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक की रंगोली कोलम में अधिकतर ज्यामितिक आकृतियां नजर आती हैं। इनके लिए चावल के सूखे आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इसका सफेद रंग जमीन पर बहुत ख्ाूबसूरती से उभरता है और यह हर जगह आसानी से उपलब्ध होता है। राजस्थान की रंगोली को मांडना कहा जाता है, जिसकी उत्पत्ति मंडन शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है-सजावट। मांडने को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों और ऋतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। विविध प्रांतों की रंगोली में सबसे बडी समानता यह है कि उसमें शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। पारंपरिक रूप से रंगोली बनाने के लिए उन्हीं वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता है, जो हर जगह आसनी से उपलब्ध होती हैं। मसलन, आटा, हल्दी, गेरू, कुमकुम और फूल-पत्तियां। रंगोली की पृष्ठभूमि के लिए साफजमीन या दीवार का प्रयोग किया जाता है। रंगोली आंगन के मध्य में, कोनों पर या बेल के रूप में चारों ओर बनाई जाती है। मुख्य द्वार की देहरी पर भी रंगोली बनाने की परंपरा है। भगवान के आसन, दीप या कलश के आधार, पूजा की चौकी और विवाह के मंडप को भी रंगोली से सजाने की परंपरा है। समय के साथ इस कला में नई सोच का भी समावेश हुआ है। अब पर्यटन उद्योग पर भी इसका प्रभाव नजर आने लगा है। इसी वजह से आजकल होटल और गेस्ट हाउस जैसे सार्वजनिक स्थलों पर भी सुविधाजनक रंगों से रंगोली बनाई जाती है।
समय के साथ बदलाव
पुराने समय में स्त्रियां इस कला में निपुण थीं और उनके पास पर्याप्त समय भी होता था। इसलिए वे सूखे या गीले रंगों, फूलों और अनाजों की मदद से रंगोली की कई सुंदर आकृतियां बनाती थीं, पर आजकल ज्य़ादातर स्त्रियां जॉब करती हैं और महानगरों के छोटे फ्लैट्स में पहले की तरह ख्ाुली जगह नहीं होती। ऐसी स्थिति में आजकल रंगोली बनाने के लिए कई आसान तरीकों का इस्तेमाल होने लगा है। मसलन, बाजार में रंगोली के सांचे मिलते हैं, जिनमें नमूने के अनुसार छोटे छेद होते हैं। सांचे पर सावधानी से सूखा रंग बिखेरा जाता है। फिर उसे जमीन से खिसकाते ही उसके निश्चित स्थानों से रंग गिरने लगता है और पल भर में ही रंगोली का सुंदर नमूना तैयार हो जाता है। आजकल मुख्य द्वार पर चिपकाई जाने वाली स्टिकर रंगोली मिलती है और बाजार में स्टेंसिल्स (प्लास्टिक पर बिंदुओं के रूप में उभरी आकृतियां) भी उपलब्ध हैं, जिन्हें ज्ामीन पर रखकर उनके ऊपर रंग डालने से सुंदर आकृतियां तैयार हो जाती हैं। जिन्हें रंगोली बनाने की प्रैक्टिस न हो, वे इन तरीकों का इस्तेमाल आसानी से कर सकते हैं।
अंत में, समय के साथ रंगोली बनाने का तरीका भले ही बदल गया हो, पर इससे जुडी कोमल भावनाएं आज भी जीवित हैं।
विनीता
(चित्रकार स्नेह गंगल से बातचीत पर आधारित)