जोधपुर मरुथल में तीरथ हरियाली का
किलों-महलों और रेगिस्तान के लिए तो राजस्थान घूमने बहुत लोग जाते हैं, पर जोधपुर के पास एक छोटा सा गांव ऐसा भी है जिसे दुनिया में प्रकृतिप्रेमियों का इकलौता तीर्थ कहा जा सकता है। यही वह जगह है जहां 363 लोगों ने पेड़ बचाने के लिए तब अपनी जान दे दी थी, जब पर्यावरण के नाम पर आधुनिक जागरूकता का नामो-निशान भी नहीं था। जोधपुर के आसपास पर्यटन के छिपे खजानों के सफर पर चलें इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ।
खेजडली गांव के बारे में मैंने करीब एक दशक पहले दिल्ली के ही राष्ट्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में पढा था। इसके पहले तक मुझे केवल उत्तराखंड के चिपको आंदोलन की ही जानकारी थी। संग्रहालय की एक पट्टिका से मालूम हुआ कि वास्तव में ऐसा ही एक बडा जनांदोलन खेजडली में बहुत पहले हो चुका है, जिसमें बिश्नोई समुदाय के 363 लोगों ने खेजडी के पेडों को बचाने के लिए जान दे दी थी। यह छोटा सा गांव किसी प्रकृतिप्रेमी के लिए तीर्थ से कम नहीं है। दो और मित्रों के साथ जब जोधपुर जाने की योजना बनी तो मैंने घुमक्कडी कार्यक्रम में पहला नाम खेजडली का ही रखा। अच्छा लगा कि मित्रों ने भी मेरी बात मानी। जोधपुर पहुंचकर वहां स्टेशन रोड पर ही एक होटल में कमरा बुक करने और फ्रेश होने के बाद हमने टैक्सी तय की और निकल पडे खेजडली।
सिर साटे रुख रहे..
अगस्त का महीना होने के नाते बूंदाबांदी के बीच धूप-छांह का मजा लेते जल्दी ही हम दूर तक फैले खेतों-मैदानों के बीच आ गए। सडक पर हिचकोले ग्रामीण भारत में होने का पूरा एहसास दिला रहे थे। एक घंटे से कम समय में ही हम खेजडली पहुंच गए। एक छोटा सा गांव और गांव के बाहर बडे से बाडे में बना स्मारक। यहां हमें वेराराम जी मिले। यह जानकर कि हम लोग खेजडली गांव ही देखने आए हैं, बहुत प्रसन्न हुए और बडे उत्साह से हमें पूरा वृत्तांत बताने लगे।
सबसे पहले उन्होंने हमें अमृता तरु दिखाया। यह उस स्त्री की याद में लगाया गया पेड है, जिसने इस विद्रोह का नेतृत्व किया था। जैसा कि वेरा राम जी ने बताया, यह घटना सन 1726 की है। महाराजा अभय सिंह को महल निर्माण के लिए खेजडी के पेडों की आवश्यकता थी। पेड काटने के लिए उन्होंने अपने मंत्री गिरधर भंडारी के नेतृत्व में एक टुकडी खेजडली गांव भेजी। सिपाही पेड काटने चले तो लोग विरोध करने लगे। मंत्री की धमकी से भी वे डरे नहीं। जब सिपाही जबरिया पेड काटने बढे तो अमृता देवी एक पेड को पकड कर खडी हो गई। उन्होंने कहा कि पहले मेरा सिर काटो, उसके बाद ही पेड काटना। उन्होंने दूसरे ग्रामीणों को भी ललकारा - सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण (अगर सिर कटवा कर भी पेड बचा सकते हो तो भी इसे सस्ता ही समझो)। फिर तो सारे ग्रामीण एक-एक पेड को अपनी बांहों में समेट कर खडे हो गए। लेकिन मंत्री का अहंकार थमा नहीं। उसने फिर भी पेड काटने का हुक्म दिया और सैनिक ग्रामीणों को मार कर पेड काटने लगे। ग्रामीणों ने पेड कटने देने के बजाय मरना चुना। देखते ही देखते 363 लोग शहीद हो गए। खबर आसपास के गांवों में तेजी से फैली और निकटवर्ती 84 गांवों के लोग वहां आत्मबलिदान के लिए जुटने लगे। जनविद्रोह की खबर राजा तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत टुकडी को वापस लौटने का आदेश दिया। बिश्नोई समुदाय की बहुलता वाले इस क्षेत्र में प्रकृति के प्रति आज भी अगाध आस्था है। वे घर में घुस आए पशु को भी मारना तो दूर, डंडा दिखाना भी बर्दाश्त नहीं करते। उनके लिए प्रकृति ही ईश्वर है। खेतों में कुलांचें भरते मृग, गांव में विचरते मोर और अन्य पशु-पक्षी इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अपनी पारिस्थितिकी को कैसे सहेजें, यह यहां रहकर सीखना चाहिए।
इस गौरवपूर्ण इतिहास का जीवंत वर्णन सुनते हुए हम स्मारक की ओर बढे। 2010 में बनाए गए भव्य स्मारक पर शहादत का पूरा इतिहास दर्ज है। वहीं कुछ खेलते हुए बच्चे मिल गए। हमें वहां पट्टिका पढते और फोटो खींचते देख उनकी उत्सुकता जगी और वे हमसे मुखातिब हुए। उन्होंने बताया कि यहां हर साल भाद्रपद शुक्ल दशमी को बडा मेला लगता है। शहीदों की बरसी मनाई जाती है। विक्रम संवत 1787 में इसी दिन यह घटना हुई थी। इनके मन में पशुओं का शिकार करने वालों के प्रति गहरा क्षोभ था, चाहे वह कितना ही लोकप्रिय शख्स क्यों न हो। ध्यान रहे, सलमान खान और सैफ अली कभी इसी क्षेत्र में शिकार करते पकडे गए थे। इसी परिसर में एक छोटे से कमरे में गुरु जंभेश्वर जी का मंदिर है। हम वहां शीश नवा कर आगे बढे तो पीछे एक भव्य इमारत बनती दिखी। मालूम हुआ कि यह भी गुरु जंभेश्वर जी का ही मंदिर बन रहा है। यह सब देखते-सुनते दोपहर के एक बज गए। अभी हमें मंडोर भी जाना था।
कला के बेजोड नमूने
लगभग एक घंटे लगे हमें मंडोर पहुंचने में। मारवाडी सभ्यता-संस्कृति में रुचि रखने वालों को यहां जरूर आना चाहिए। जोधपुर से केवल 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह कसबा पुरातत्व की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। 15वीं शताब्दी में जोधपुर शहर बसने से पहले तक यही मारवाड की राजधानी रहा। तब इसका नाम मांडव्यपुर था।
पुरातत्व विभाग द्वारा लगाए गए बोर्ड पर अंकित सूचना के अनुसार पांचवीं से बारहवीं शताब्दी तक यह गुर्जर प्रतिहार राज्य का छोटा सा भाग था। बाद में इस पर नाडोर के चौहानों ने अधिकार कर लिया। इस बीच इस पर इल्तुतमिश, जलालुद्दीन खिलजी और फिरोजशाह तुगलक जैसे दिल्ली के सुलतानों ने भी कई बार आक्रमण किए। फिर यह इंदा पीडिहारों के कब्जे में आया, जिन्होंने राठौर शासक राव चूंडा जी को दहेज में मंडोर दे दिया। थोडे-थोडे समय के लिए मेवाड के महाराणा कुंभा और दिल्ली के शासक शेरशाह सूरी व औरंगजेब के अधीन भी रहा। बाकी समय इस पर हमेशा राठौडों का ही अधिकार रहा। यहां राठौड घराने के कई शासकों के स्मारक भी बने हैं, जिन्हें देवल कहा जाता है। लाल घाटु के पत्थरों से मंदिरों की आकृति में बने ये देवल स्थापत्य कला के बेजोड नमूने हैं। यहां उत्तर गुप्त काल की कई सुंदर पाषाण कलाकृतियां भी मिल चुकी हैं। प्राचीन काल में मंडोर कला, संस्कृति और स्थापत्य का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहां से मिले शिलालेख, कलाकृतियां और अन्य सामग्री क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के अध्ययन में भी बहुत सहायक सिद्ध हुई है।
उद्यान में पुरातत्व
बयासी एकड में फैले इस उद्यान क्षेत्र में प्रवेश करते ही सबसे पहले वीरों की दालान दिखती है। लंबी दूरी तक फैली यह दालान एक ही चट्टान को काटकर बनाई गई है। आगे तैंतीस कोटि देवताओं का मंदिर है। भीतर दो बडे भवनों में संग्रहालय है। जिसमें राजपरिवारों से संबंधित अस्त्र-शस्त्र, आभूषण आदि चीजें हैं। यहां सबसे रोचक एक अन्य भवन में बनी गैलरी है, जिसमें कई शास्त्रीय राग-रागिनियों के मूर्त चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। कल्पना के आधार पर बनाए गए ये चित्र राग-रागिनियों को साकार ही नहीं, जीवंत कर देते हैं।
इन संग्रहालयों के बीच एक बडा आंगन सा बना हुआ है। इसके पीछे जनाना महल है। एक अन्य छोर पर इकथंबा महल नाम का मीनार है। आगे बढने पर उद्यान है। यहीं से एक रास्ता किले के ध्वंसावशेष की ओर जाता है। खंडहर इसके प्राचीन वैभव का बखान करने के लिए काफी हैं। छोटी सी पहाडी पर मौजूद इन खंडहरों में महेश और विष्णु मंदिर के अवशेष देखकर लगता है कि यहां की स्थापत्य कला बेजोड रही होगी। यहां से उतरते हुए हमने देवल देखे, जो आज भी भव्य मंदिर होने का आभास देते हैं।
चिडिया की पहाडी पर
अगली सुबह हमारा लक्ष्य मेहरानगढ फोर्ट था। सुबह भारी नाश्ते के बाद हम लोग पैदल ही निकल पडे। शहर की संकरी गलियों से होते करीब एक घंटे में हम किले के मुख्यद्वार पर थे। टिकट लेकर अंदर घुसे ही थे कि बारिश शुरू हो गई। बीच में ही एक छत देख ठहरना पडा। सामने एक और छत के नीचे एक कलाकार शहनाई बजा रहे थे। दस मिनट के इस ठहराव ने मनोरंजन तो दिया ही, थकान भी मिटा दी। बारिश थमी तो जय पोल की ओर बढे, जो किले का मुख्य प्रवेशद्वार है। चार सौ फुट की ऊंचाई पर बने इस किले का इतिहास भी दिलचस्प है। मेहरानगढ संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है - मिहिर अर्थात सूर्य और गढ अर्थात किला। इसका निर्माण 1459 में राव जोधा ने शुरू करवाया था। दुर्ग जिस पहाडी पर बना है, उसका नाम भौर चिडिया, यानी चिडियों वाली पहाडी है। लोकश्रुति है कि इस पहाड पर किला बनने से पहले एक साधु चिडियानाथ जी रहते थे। जब उन्हें हटाया जाने लगा तो उन्होंने राजा को शाप दे दिया। शाप से बचने के लिए राव जोधा ने उनके लिए किले के भीतर ही कुटिया और मंदिर बनवा दिया। भीतर पहुंचे तो परकोटे पर तोपों का जखीरा दिखा। तमाम पर्यटक तोपों के साथ फोटो खिंचवाने में मगन थे। नीचे झांकने पर गहरी खाई और आगे पूरे शहर पर नीले रंग की आभा सी छाई दिखती है। सभी घरों की दीवारें नीले रंग में रंगी हैं। इसीलिए सन सिटी के नाम से मशहूर इस शहर को ब्ल्यू सिटी भी कहते हैं। यह सब देखकर हम संग्रहालय की ओर बढ चले। एक गैलरी तो केवल हौदों को समर्पित है। दूसरी गैलरी में पालकियां हैं। आगे दौलतखाना है, जिसमें राजाओं द्वारा उपयोग में लाई गई और उन्हें उपहार में मिली बेशकीमती चीजें हैं। संग्रहालय का सबसे आकर्षक हिस्सा शस्त्रागार है, जिसे सिलहखाना कहते हैं। भीतर मोती महल, शीश महल, फूल महल, तखत विलास, सरदार विलास, खाबका महल, जानकी महल आदि दर्शनीय हैं। दुर्ग में ही माता चामुंडा का मंदिर भी है।
किला घूमने के बाद हम पैदल ही जसवंत थडे की ओर बढ चले। यह राजा जसवंत सिंह द्वितीय का स्मारक है, जिसे उनके पुत्र सरदार सिंह ने 1899 में मकराना से लाए गए सफेद संगमरमर के पत्थरों से बनवाया। लोगों ने बताया कि चांदनी रात में इसे निहारने का आनंद ही अलग है। यह थडा भी एक छोटी सी पहाडी पर बना है, जहां से किले का विहंगम दृश्य बहुत साफ और मनोहारी दिखता है।
लोकहित का वैभव
नीचे उतर कर हमने एक ऑटो तय किया और आधे घंटे में ही उम्मेद भवन पैलेस पहुंच गए। छीतर पत्थरों से बने इस महल का निर्माण महाराजा उम्मेद सिंह ने 1929 में शुरू करवाया था। सोलह वर्षो में बन कर तैयार हुआ यह महल इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इसका निर्माण जनकल्याण के लिए करवाया गया था। उन दिनों इस क्षेत्र में भीषण अकाल पडा था और स्थानीय निवासियों को रोजगार देने के लिए महाराजा ने इसका निर्माण शुरू करा दिया। इसके लिए महाराजा ने पश्चिमी वास्तुकार हेनरी वान लैशेस्टर की सेवाएं भी ली थीं। अब इसका एक बडा हिस्सा हेरिटेज होटल में तब्दील हो चुका है, जबकि शेष में संग्रहालय है। जोधपुर में घूमने के लिए और भी बहुत कुछ है। खासकर कायलाना झील और माचिया सफारी पार्क। लेकिन हमारे समय कम था। दिल्ली के ट्रेन छूटने में सिर्फ डेढ घंटे बचे थे और होटल पहुंचकर सामान भी समेटना था। लिहाजा बाकी जगहें कभी और के लिए छोड हम वापसी के लिए चल पडे।
बंधेज की साडियां
आप शॉपिंग के शौकीन न हों तो भी जोधपुर जाकर आपको कुछ चीजें लेनी ही पड जाएंगी। यहां की बंधेज की साडियां और लाख की चूडियां पूरे भारत में लोकप्रिय हैं। साडियां लेने के लिए अच्छी जगह सोजाती गेट और नई सडक का बाजार है। लाख के कारीगरों का यहां एक मोहल्ला ही है, जहां लाख की चूडियों का बडा कारोबार होता है। यहां की लाख से बनी चूडियां विदेशों में भी जाती हैं। जूतियां लेना चाहें तो मोची बाजार जा सकते हैं। यहां ऊंट की खाल और मखमल से बनी जूतियों के अलावा चमडे की बनी और भी चीजें खरीदी जा सकती हैं। रेशम की दरियां, मकराना संगमरमर से बने स्मृति चिन्ह और कई तरह की सजावटी चीजें भी खरीद सकते हैं।
इष्ट देव सांकृत्यायन