जीती हूं अपनी खुशियों के लिए
अब बहुत देर हो चुकी है, ऐसा सोचना गलत है। अच्छे काम की शुरुआत कभी भी की जा सकती है। आइए रूबरू होते हैं, एक पाठिका के ऐसे ही अनुभवों से।
आज के जमाने में व्यस्तता इतनी बढ गई है कि हम सिर्फ अपनी जिम्मेदारियां निभाने में जुटे रहते हैं। हमारे पास अपनी खुशियों और सपनों के बारे में सोचने की भी फुर्सत नहीं होती। मेरी जिंदगी भी लगभग इसी ढर्रे पर चल रही थी।
मैं मूलत: कैथल (हरियाणा) की रहने वाली हूं। बचपन से ही पढाई में मेरी विशेष रुचि थी और मेरे पेरेंट्स ने मुझे हमेशा आगे पढने के लिए प्रोत्साहित किया। हिस्ट्री में एमए और एमफिल करने के बाद वहीं एक कॉलेज में मुझे लेक्चररशिप मिल गई।
वह मुश्किल दौर
अपनी इस उपलब्धि से मैं बेहद खुश थी, पर मेरी यह खुशी ज्यादा समय तक टिक नहीं पाई। जल्द ही मेरी शादी हो गई। ससुराल का महौल बिलकुल अलग था। वहां भरापूरा संयुक्त परिवार था। सब मेरा बहुत खयाल रखते थे, लेकिन मेरे पति का मानना था कि मैं जॉब के साथ घरेलू जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभा नहीं पाऊंगी। मेरे लिए परिवार की सुख-शांति करियर से कहीं ज्यादा अहमियत रखती है। इसीलिए मैंने जॉब छोड दी। मुझे इस निर्णय पर बहुत अफसोस हो रहा था, फिर भी मन मसोस कर मैं अपने तीनों बच्चों की परवरिश में जुटी रही। समय अपनी रफ्तार से चलता रहा। मैं अपने सपनों को भूलने लगी थी। अब अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्षय था। मेरे तीनों बच्चे परीक्षा में हमेशा बहुत अच्छे मार्क्स लाते थे। उनका अनुशासित और शालीन व्यवहार देखकर अकसर लोग मेरी पेरेंटिंग की प्रशंसा करते तो मुझे ऐसा लगता कि मेरी मेहनत सफल हो गई। अगर हमारे साथ कुछ बुरा भी होता है तो उसमें कहीं न कहीं हमारी भलाई ही छिपी होती है। मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं जॉब में होती तो शायद अपने बच्चों पर इतना ध्यान नहीं दे पाती।
एक नई शुरुआत
जब मेरे बच्चे बडे हो गए तो वे अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहने लगे। अब मेरे पास समय की कमी नहीं थी। हमारे घर से कुछ दूरी पर एक ऐसी बस्ती थी, जहां कई जरूरतमंद परिवार रहते थे। उनके बच्चे शिक्षा और सेहत की देखभाल जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित थे। जब भी मैं उन मासूम बच्चों को देखती तो यही इच्छा होती कि काश! मैं इनके लिए कुछ कर पाती। जब मैंने इस बारे में अपने पति से बात की तो वह इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। फिर मैं नए उत्साह के साथ इस कार्य में जुट गई। उस बस्ती में उन्हीं बच्चों के लिए एक स्कूल था। मैं वहां जाकर स्वैच्छिक और नि:शुल्क सहयोग देने लगी। अब ये बच्चे मेरी जिंदगी का अटूट हिस्सा बन चुके हैं। उनके चेहरे पर खिली मुस्कान देखकर मुझे जो संतुष्टि मिलती है, उसकी कीमत पैसों से नहीं आंकी जा सकती। अब मैंने अपनी खुशियों के लिए जीना सीख लिया है। देर से ही सही, लेकिन मुझे मेरी मंजिल मिल गई। देर का मुझे जरा भी अफसोस नहीं। जब जागो तभी सवेरा।
मनोविज्ञान की नजर में
कई ऐसे मुद्दे होते हैं, जिन पर बहुत से लोग एक ही ढंग से सोच रहे होते हैं। ऐसी ही बातों को लेकर किसी व्यक्ति द्वारा की गई सटीक टिप्पणी आपसी बातचीत के जरिये पूरे समाज में प्रचलित हो जाती है। इस तरह लंबे अरसे बाद वही बात मुहावरे या कहावत का रूप ग्रहण कर लेती है। जब जागो तभी सवेरा एक ऐसा मुहावरा है, जिसमें जीवन का सकारात्मक संदेश छिपा है। संभवत: जब कोई व्यक्ति अपने किसी जरूरी कार्य में होने वाले देर की वजह से पछता रहा होगा तो किसी ने उसका मनोबल बढाने के लिए यह बात कही होगी, जो समय के साथ मुहावरे में तब्दील हो गई। यह बिलकुल सही है कि अच्छे कार्य की शुरुआत के लिए कोई देर नहीं होती। अगर हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक हो तो देर से ही सही, लेकिन हमें हमारी मंजिल मिल ही जाती है। यह सच है कि बीता हुआ वक्त कभी वापस नहीं आता, पर अफसोस करने के बजाय हमें बुलंद हौसले के साथ अपने कार्य में जुट जाना चाहिए। अतीत की गलतियों से सीख लेते हुए भविष्य को आसानी से संवारा जा सकता है। अगर हम अपने जीवन में एक छोटा सा सकारात्मक बदलाव लाते हैं तो उसका असर हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर पडता है। फिर एक साथ कई अच्छे बदलावों की शुरुआत हो जाती है। हर इंसान के जीवन में मुश्किलें आती हैं। जो लोग उनका सामना करने में सक्षम होते हैं, उन्हें कामयाबी जरूर मिलती है। हमें छोटी-छोटी बातों से ही शुरुआत करनी चाहिए और देर को लेकर अपने मन में पछतावे की भावना नहीं रखनी चाहिए। जब जागो तभी सवेरा यह मुहावरा हमें अतीत की कडवी यादों को भूलकर उत्साह के साथ आगे बढने का संदेश देता है। अगर स्पष्ट नजरिया और अच्छी सोच हो तो नई शुरुआत कभी भी की जा सकती है।
डॉ. अशुम गुप्ता, मनोवैज्ञानिक सलाहकार