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अधीर होते बच्चे

कड़ी प्रतियोगिता के दबाव ने आज के बच्चों को इतना अधीर बना दिया है कि जल्द से जल्द कामयाबी हासिल करने के लिए वे शॉर्टकट अपनाने को आतुर रहते हैं। किसी भी कार्य को लेकर अब उनमें दृढ़ निश्चय और निष्ठा की भावना दिखाई नहीं देती। ऐसे में पेरेंट्स की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे छोटी उम्र से ही उनमें ऐसे गुण विकसित करें।

By Edited By: Published: Tue, 01 Jul 2014 07:15 PM (IST)Updated: Tue, 01 Jul 2014 07:15 PM (IST)
अधीर होते बच्चे

यह सच है कि आज के बच्चे बेहद चुस्त और स्मार्ट हैं। उनके पास सूचनाओं का असीमित भंडार है। किसी नई टेक्नोलॉजी को समझना उनके बाएं हाथ का खेल है। पेरेंट्स उन्हें आगे बढता देखकर बेहद खुश हैं, लेकिन परीक्षा में हर बार 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक लाने की होड और एक्स्ट्रा कैरिकुलर एक्टिविटीज में ज्यादा से ज्यादा पुरस्कार बटोरने की जद्दोजेहद में आज के बच्चे बेहद अधीर हो रहे हैं। दरअसल कामयाबी की राह में आने वाली बाधाओं को कुशलता के साथ पार करने के लिए जरूरत होती है- दृढ निश्चय और गहरी निष्ठा की।..पर आज के बच्चों में बार-बार प्रयास करने का धैर्य नहीं है। मशहूर अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस एडिसन के दो हजार प्रयासों के बाद बिजली के बल्ब का आविष्कार संभव हुआ था। दो हजार बार मिलने वाली असफलता भी उनके दृढ निश्चय को डिगा नहीं पाई, क्योंकि उन्हें अपने इरादों पर पूरा भरोसा था। इस बारे में उनका कहना था कि मैं दो हजार बार असफल नहीं रहा, बल्कि बल्ब के आविष्कार की प्रक्रिया में दो हजार स्टेप्स थे, जिन्हें पार करना जरूरी था। यह उनका दृढ निश्चय ही था, जिसने एक औसत दर्जे के विद्यार्थी को विश्व का महान वैज्ञानिक थॉमस एडिसन बना दिया।

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माहौल से बनती है बात

बच्चे का व्यक्तित्व संवारने में परिवार के माहौल की खासी अहमियत होती है और इसे बनाने का काम सिर्फ पेरेंट्स ही कर सकते हैं। इसलिए उनका यह फर्ज बनता है कि वे छोटी उम्र से ही अपने बच्चों में दृढ निश्चय की भावना विकसित करें। सात से दस साल के बीच बच्चे का भावनात्मक विकास तेजी से हो रहा होता है। उसे जैसा माहौल मिलता है, उसी के अनुरूप उसका व्यक्तित्व ढलने लगता है। पारिवारिक और नैतिक मूल्यों से ही उसके संस्कार विकसित होते हैं, जो ताउम्र उसके साथ बने रहते हैं। उम्र के इसी दौर में बच्चे सहज रूप से सीखते-समझते हैं। टीनएज में पहुंचने के बाद उनके विचारों में दृढता आने लगती है। ऐसे में पेरेंट्स के लिए उनके व्यक्तित्व को बदल पाना मुश्किल होता है। इसलिए अपने बच्चे के इरादों को मजबूत बनाने की तैयारी उन्हें पहले से ही शुरू कर देनी चाहिए।

उत्साह से बढते कदम

किसी कार्य को पूरा करने के दौरान भले ही बच्चे से गलतियां हुई हों, पर उसकी कोशिश की प्रशंसा करना न भूलें। उससे बातचीत के दौरान सकारात्मक वाक्यों का प्रयोग करें। जैसे- इस बार तुमने बहुत मेहनत की है, अगली बार भी कोशिश करना..। इससे उसे एहसास होगा कि आप केवल अच्छे परिणाम हासिल करने पर ही उसकी प्रशंसा नहीं करते, बल्कि उसके प्रयासों को भी सच्चे दिल से स्वीकारते हैं। इससे वह अपने हर कार्य को सही ढंग से पूरा करने की कोशिश करेगा। उसे यह एहसास होगा कि हमेशा जीतना महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि किसी नाकामी से कुछ नई बातें सीखना भी काफी अहमियत रखता है।

बनें रोल मॉडल

अपनी सोच और व्यवहार से बच्चे के सामने खुद को उदाहरण के रूप में पेश करें, क्योंकि पेरेंट्स बच्चे के पहले रोल मॉडल होते हैं। आप उससे जैसे व्यवहार की उम्मीद रखते हैं, पहले उसे अपने भीतर उतारने की कोशिश करें। आसपास के माहौल की छोटी-छोटी बातों को भी बच्चे बडे गौर से देखते-समझते हैं और उनके मन पर इसका गहरा असर पडता है। वे इस बात को बडे ध्यान से देखते हैं कि उनके माता-पिता जीवन में आने वाली हर स्थिति का सामना किस तरह करते हैं और अपनी मुश्किलों का हल कैसे ढूंढते हैं। वे पेरेंट्स के व्यवहार से ही सीखते हैं। अगर आप बाधाओं की परवाह किए बगैर किसी काम को अच्छी तरह पूरा करते हैं तो इससे बच्चे के मन में भी छोटी उम्र से ही दृढ निश्चय की भावना विकसित होगी।

डटे रहें इरादे पर

इरादे को मजबूत बनाने के लिए सबसे पहले बच्चे के मन में यह भावना पैदा करनी होगी कि चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं, पर मुझे अपना कोई भी काम अधूरा नहीं छोडना। मैं हर हाल में उसे पूरा करके ही मानूंगा/मानूंगी। अपनी बातों से उसे यह भी एहसास दिलाएं कि कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं होता। यह भी जरूरी नहीं है कि हमारे हर प्रयास का रिजल्ट अव्वल दर्जे का हो, फिर भी हमें अपनी कोशिश नहीं छोडनी चाहिए। यहां पेरेंट्स के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना बहुत जरूरी है। ध्यान रहे कि आप बच्चे के लिए जो भी लक्ष्य निर्धारित करें, वह उसकी रुचि और क्षमता के अनुकूल हो।

खुद पर हो विश्वास

बच्चे को प्रेरित करें कि वह अपनी समस्याओं का हल खुद ढूंढने की कोशिश करे। अगर गणित का कोई सवाल हल करने में दिक्कत आ रही हो तो पहले उसे खुद कोशिश करने के लिए प्रेरित करें। जब तमाम कोशिशों के बावजूद वह अपनी समस्या का हल ढूंढ न पाए तभी उसकी मदद करें, लेकिन उसे यह भी बता दें कि अगली बार उसे खुद ही कोशिश करनी होगी। इससे उसमें जिम्मेदारी की भावना विकसित होगी। वह खुद को योग्य समझेगा और उसका आत्मविश्वास बढेगा। यह उसके लिए जीवन का सबसे बडा सबक होगा, जो ताउम्र उसके काम आएगा।

डर न हो नाकामी का

बच्चे के मन से नाकामी का डर निकालना बहुत जरूरी है। पेरेंट्स को फ्रेंड, फिलॉसफर, गाइड बनकर अपने बच्चे का मार्गदर्शन करना चाहिए। उसे यह एहसास दिलाना बहुत जरूरी है कि भले ही मुझसे कितनी भी गलतियां हों, लेकिन मम्मी-पापा हर हाल में मेरे साथ हैं। अगर माता-पिता सकारात्मक दृटिकोण अपनाएंगे तो बच्चे में भी ऐसी ही सोच विकसित होगी।

जरा गौर कीजिए कि एक नवजात शिशु पहले दिन से ही कितना कुछ सीखने की कोशिश कर रहा होता है और तीन साल बाद वह प्ले स्कूल जाने के काबिल बन जाता है। सीखने की यह प्रक्रिया ताउम्र चलती रहती है। हमें नाकामी तभी मिलती है, जब हम प्रयास करना छोड देते हैं। इसलिए हमें अपने बच्चे को शुरू से ही निडर होकर प्रयास करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, लेकिन कामयाबी के लिए केवल मेहनत ही काफी नहीं होती। इसके लिए समझदारी भी जरूरी है। प्यासे कौव्वे की कहानी इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। उसे प्यास लगी थी। पानी उसकी पहुंच से बाहर था। ऐसे में उसने सूझबूझ के साथ सही दिशा में लगातार कोशिश की, तभी उसे कामयाबी मिली।

इसी तरह जब बच्चे को यह एहसास होगा कि समझदारी और कडी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है तो शॉर्टकट अपनाने के बजाय वह खुद-ब-खुद सीधे और सही रास्ते पर चलने लगेगा।

कुछ जरूरी बातें

-बच्चे के साथ बातें करने का समय जरूर निकालें। उसे सहज ढंग से समझाएं कि मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है।

-केवल पढाई के मामले में ही नहीं, बल्कि रोजमर्रा के व्यवहार में भी उसे धैर्यपूर्वक अपनी बारी का इंतजार करना सिखाएं।

-बच्चे के दोस्तों पर भी नजर रखें, क्योंकि कई बार पीयर प्रेशर की वजह से भी वे अधीर हो जाते हैं और मेहनत से जी चुराने लगते हैं। अगर आपके बच्चे पर संगति का गलत प्रभाव पड रहा हो तो किसी न किसी बहाने उसे नए दोस्त बनाने के लिए प्रेरित करें।

-अगर कभी उसकी परफॉर्मेस अच्छी नहीं होती तो उसे डांटने के बजाय दोबारा उत्साहपूर्वक तैयारी करने में उसकी सहायता करें। उसे समझाएं कि हर असफलता हमें कुछ न कुछ नया सिखाती है।

-माता-पिता के व्यक्तित्व और व्यवहार का बच्चे पर गहरा प्रभाव पडता है। इसलिए उसे कुछ भी सिखाने से पहले खुद में बदलाव लाने की कोशिश करें। अगर आपके सामने कोई मुश्किल आए तो उससे घबराने के बजाय हिम्मत के साथ उसका सामना करें।

-उसे कुछ प्रेरक कहानियां सुनाएं। डीवीडी पर कुछ ऐसी फिल्में दिखाएं, जिसमें मेहनत और धैर्य की सराहना की गई हो।

-उसके साथ अपने बचपन के कुछ ऐसे अनुभव शेयर करें, जब मेहनत से जी चुराने पर आपको नाकामी मिली हो।

-उसे स्पो‌र्ट्स के फील्ड में आगे बढने के लिए प्रेरित करें। इससे बच्चे हार को सहजता से स्वीकारना सीख जाते हैं और उनमें स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना विकसित होती है।

-लक्ष्य निर्धारित करने में उसकी मदद करें।

-जब किसी कार्य के दौरान उसे कोई दिक्कत आ रही हो तो उसकी मदद करने के बजाय उसे बार-बार प्रयास करने के लिए उत्साहित करें।

-अपने प्रयासों से अगर बच्चे को छोटी सी भी कामयाबी मिलती है तो उसे शाबाशी देना न भूलें।

(चाइल्ड काउंसलर पूनम कामदार से बातचीत पर आधारित)

विनीता


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