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जीने का भी ढंग नया हो

क्या युवा पीढ़ी चुनौतियों का सामना करने में खुद  को असमर्थ पा रही है? जीने का सलीका कैसे सीखें, मुद्दा में इसी पर चर्चा।

By Edited By: Published: Mon, 06 Jun 2016 01:25 PM (IST)Updated: Mon, 06 Jun 2016 01:25 PM (IST)
जीने का भी ढंग नया हो

पिछले कुछ वर्षों में भारत में आत्महत्याओं के आंकडे तेाी से बढे हैं। इस मामले में वह दुनिया में अव्वल है। इसमें भी युवाओं की संख्या सर्वाधिक है। क्या युवा पीढी चुनौतियों का सामना करने में ख्ाुद को असमर्थ पा रही है? कौन से दबाव हैं, जो उन्हें ज्िंादगी से दूर ले जा रहे हैं? जीने का सलीका कैसे सीखें, मुद्दा में इसी पर चर्चा।

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युवा....एक प्यारा सा शब्द, जिसे सुनते ही ऊर्जा, जोश, जुनून, ज्िांदादिली का आभास होता है। सच पूछें तो इंसान की ज्िांदगी का सबसे सुनहरा समय होता है यह। यही उम्र है, जब लक्ष्य को पाने की बेचैनी होती है और मन में यह गहरा विश्वास भी होता है कि मंज्िाल मिल जाएगी। कुछ कर दिखाने की तमन्ना जितनी इस उम्र में होती है, उतनी कभी और नहीं होती। मन न सिर्फ बेहतर ज्िांदगी के सपने देखता है, बल्कि उन सपनों में किसी की साझेदारी के ख्वाब भी बुनता है। यही उम्र होती है, जब इन सपनों, ऊर्जा, क्रिएटिविटी और जुनून को सही ढंग से चैनलाइज्ा करने की ज्ारूरत भी होती है, ताकि युवा सकारात्मक कार्यों और सही दिशा की ओर बढ सकेें। ऐसा नहीं होता तो यही ऊर्जा विध्वंसक कार्यों में खपने लगती है और िांदगी का यह महत्वपूर्ण समय कुंठाओं, अवसाद और चिंताओं में डूब जाता है।

चुनौतियां बेशुमार

परिवार हो या समाज, किसी भी काम को सही ढंग से करने के लिए एक ओर जहां वयस्कों-बुज्ाुर्गों का अनुभव काम आता है, वहीं युवा जोश और उत्साह की भी ज्ारूरत होती है। हर समाज को आगे बढने के लिए अनुभवों के साथ-साथ उत्साह की ज्ारूरत होती है, जो युवाओं के पास भरपूर मात्रा में होता है। समय के साथ-साथ युवाओं के जीवन में भी बदलाव आए हैं। उनकी चुनौतियां बढी हैं लेकिन उनके सामने अवसर भी खुले हैं। उनकी दुनिया कुछ मायनों में पहले से आसान हुई है तो कई स्तरों पर वे उलझ भी रहे हैं। करियर और रिश्ते....ये दो पहलू हैं, जहां युवा सर्वाधिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

जिन्हें जल्दी थी वे चले गए

कुछ लोग चुनौतियों का मुकाबला हिम्मत से करते हैं लेकिन कुछ हार मान लेते हैं। पिछले कुछ वर्षों से लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनमें टीनएजर्स और युवा पढाई, करियर और रिश्तों में बेहतर न कर पाने के कारण मौत को गले लगा ले रहे हैं। पिछले एक महीने के दौरान ही ऐसी कई ख्ाबरें प्रकाशित हुई हैं।

सलेब्रिटीज्ा हों या आम युवा, परिस्थितियों से घबरा कर अपना धैर्य खो रहे हैं। टीवी कलाकार प्रत्यूषा बनर्जी की आत्महत्या का मामला हाल के दिनों में सुख्र्िायों में रहा। दिल्ली में एक युवा सीए ने नौकरी न मिल पाने के कारण मौत को गले लगा लिया। बीटेक की एक छात्रा ने चोरी के आरोप से आहत होकर बहुमंज्िाली इमारत से कूद कर जान दे दी तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के गढ कोटा में एक छात्रा ने सिर्फ इसलिए जान दे दी कि जेईई (मेन्स) में उसके माक्र्स कम आए। हालत यह है कि आए दिन ऐसी खबरें आ रही हैं और कोई समझ नहीं पा रहा है आिखर ऐसा क्यों हो रहा है।

हार स्वीकार्य नहीं

आज से 20-30 वर्ष पहले तक करियर की मार इतनी नहीं थी। पढ-लिख कर सरकारी नौकरी मिलने का ख्वाब पूरा न हो तो भी कोई न कोई काम करके घर चला लिया जाता था। बेरोज्ागारी को भी लोग इतनी हिकारत से नहीं देखते थे, जितना आज देखते हैं। संसाधन सीमित थे तो ज्ारूरतें भी आसमान नहीं छूती थीं। जीवन सहज गति से चलता रहता था। आज के समय में परिवार सिकुड चुके हैं। एक या दो संतानें हैं। बचपन से सफलता और जीत की कहानियां घुट्टी की तरह पिला दी जाती हैं, जिस कारण विफलता और हार जैसे शब्द युवाओं की डिक्शनरी में आ ही नहीं पाते। माता-पिता साये की तरह बच्चों के साथ रहते हैं। यूं तो अभिभावकों का संबल युवाओं के सुरक्षित जीवन की गारंटी होता है मगर इसका नुकसान यह होता है कि उनमें अपने फैसले लेने, अपने कार्यों की ज्िाम्मेदारी लेने, जीवन में धीरे-धीरे आगे बढने जैसी समझ ज्ारा देर से आती है। उन्हें हर चीा जल्दी चाहिए और इस जल्दबााी में उनके अभिभावकों और समाज की भी बडी भूमिका है। बडा आदमी बनने का दबाव युवाओं पर इतना गहरा होता है कि मनमुताबिक सफलता हासिल न कर पाने पर वे ख्ाुद को ज्लूज्ार मानने लगते हैं। यह एक नया शब्द है, जो पिछले 5-7 वर्षों में टीनएजर्स और युवाओं के शब्दकोश में प्रमुखता से दर्ज हुआ है।

दबाव से जूझती ज्िांदगी

हर दौर की अपनी अच्छाइयां और कठिनाइयां होती हैं। अतीत का गुणगान करते हुए यह भी नहीं भूला जा सकता कि उस दौर में जीवन भले ही सहज रहा हो लेकिन लोगों के सामने अवसरों की कमी थी।

दरअसल हर समय में लोगों के सामने ज्िांदगी को बेहतर बनाने, करियर में विकास करने और रिश्तों को सही ढंग से चलाने का दबाव रहा है। फर्क बस इतना है कि पहले लोग बरसों तक संघर्ष की मानसिकता में रहते थे, आज योजना बना कर चलने वाली पीढी के पास इतना धैर्य नहीं है कि वह एक चीा हासिल करने में कुछ साल गंवा दे। उसे मालूम है कि उसे उम्र के इस हिस्से में यह काम कर लेना है। हर चीा के लिए उसके पास समय निर्धारित है। अगर तय सीमा में वह मंज्िाल हासिल न हो तो फ्रस्ट्रेशन होता है। सच्चाई यह भी है कि कुंठाएं केवल इसलिए नहीं पनपतीं कि लक्ष्य हासिल नहीं हुआ, इसलिए भी पनपती हैं कि कई बार लोग अवास्तविक ढंग से लक्ष्य हासिल करने की होड में जुट जाते हैं।

जीने का सलीका

जीने का सीधा सा तरीका है : अपने लक्ष्य यथार्थवादी बनाएं, ख्ाुद को चुनौतियों के लिए तैयार रखें और मन में यह भावना भी रहे कि जो होगा-देखा जाएगा। अगर कोई चीज्ा ऐसी है, जो विकास को बाधित कर रही है, दबाव में डाल रही है तो उस पर भावावेश में आकर निर्णय लेने के बजाय ठहर कर सोचें कि क्या वाकई वह इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके आधार पर किसी का जीना-मरना तय हो?

धैर्य की कला सीखें

धैर्य वह हुनर है, जिसे युवाओं को सीखना चाहिए। इसी से समस्याओं के समाधान मिलते हैं। कई बार ज्छोडो यार, जाने दो वाला मेथड भी कारगर साबित होता है। जो मिल गया, उसे मुकद्दर भले ही न समझें लेकिन जो खो जाए, उसे भुलाने की क्षमता होनी चाहिए। अंत में जीवन ही महत्वपूर्ण है। वही सर्वोपरि है। उसे हर हाल में जीने लायक बनाना और उसका सम्मान करना सबसे ज्ारूरी है, जिसे बडे-बडे सपनों और महत्वाकांक्षाओं के आगे भुला दिया जा रहा है।

पेरेंटिंग के सामने भी बहुत चुनौतियां हैं। बच्चों को ऐसा सुरक्षा कवच न दें कि वे पंगु बन जाएं और न अपनी अपेक्षाओं के बोझ तले उन्हें दबा दें। आख्िार उन्हें क्यों और किसके लिए ख्ाुद को साबित करना है? हर किसी की अपनी क्षमता, योग्यता और समझदारी होती है, उसी के हिसाब से वह ज्िांदगी में मुकाम भी हासिल करता है।

जीवन सबसे बडा इम्तिहान है। इस परीक्षा में पास होने का सलीका सीखना सबसे बेहतरीन कला है। क्यों न पाठ्यक्रम में अन्य विषयों के साथ-साथ जीवन को सहजता से जीने का ढंग भी सिखाया जाए! क्या यह सबसे ारूरी ज्ञान नहीं है?

यहां भारत है नंबर वन

विकिपीडिया के आंकडों के अनुसार दुनिया में हर साल लगभग 8 लाख आत्महत्याएं होती हैं, जिनमें से एक लाख 35 हज्ाार अकेले भारत में हैं। भारत नंबर वन पर है। इनमें भी 15 से 29 वर्ष की आयु वाले लोग सर्वाधिक हैं। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2013 में परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने के कारण लगभग ढाई हज्ाार और प्रेम संबंधों के कारण साढे चार हज्ाार लोगों ने आत्महत्या की। वर्ष 2014 में नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स के आंकडे बताते हैं कि भारत में हर एक घंटे में लगभग 15 आत्महत्या के मामले हो रहे हैं। डब्ल्यूएचओ ने भी माना है कि भारत में सर्वाधिक आत्महत्याएं हो रही हैं।

इंदिरा राठौर


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