लूजर
क्या पैसा, पद, प्रतिष्ठा ही व्यक्ति को महान बनाते हैं? धन-संपदा से ही किसी का जीवन सुखमय बन सकता है? क्या मेहनत, ईमानदारी, संवेदनाओं और भावनाओं की कोई अहमियत नहीं है? कोई जीवन में सफल न हो सके या अधिक पैसा न कमा सके तो क्या वह लूजर है? यही सवाल उठाती है यह कहानी।
बात छोटी सी थी, पर बित्ते भर की बेटी ने पिता हितेष को हिला कर रख दिया था। शीतल सोलह की ही थी, मगर अपने लिए नई स्कूटी लेने की जिद पकड गई। हितेष ने समझाया भी कि सही वक्त आने पर स्कूटी दिला देगा। लेकिन वह अडी रही। हितेष ने सोचा, पत्नी निशा की वजह से बेटी का स्वभाव भी अडियल हो गया है। शीतल फिर बोली, मैं स्कूटी लेकर रहूंगी। मौसा जी ने सुमन को भी तो लेकर दी है। मौसा जी मेरा ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवा देंगे?
बेटा तुम्हारी उम्र में मैं साइकिल चलाता था, हितेष झल्ला कर बोला।
मम्मी कार न लेतीं तो आप तो आज भी साइकिल ही चलाते. तपाक से बोली वह। जाते-जाते उसका आख्िारी शब्द हितेष के कानों में पडा, लूजर। अब तक तो पत्नी ही उसे यह संबोधन देती थी, अब बेटी ने भी बोल दिया।
हितेष को पुराने दिन याद आने लगे। पापा दीनानाथ स्कूल में प्रधानाचार्य थे। मां शशि घरेलू महिला। दो बडी बहनों का छोटा लाडला भाई था वह। बहनें पढाई में अच्छी थीं। उन्हें नौकरी मिल गई और एक-दो साल में विवाह भी हो गया।
हितेष का मन पढाई में कम लगता था। जैसे-तैसे बी.ए. किया और फिर मां से बोला, मुझे नौकरी नहीं करनी, बिजनेस करना है। दीनानाथ ने समझाया, बेटा तुम्हें बिजनेस का न कोई अनुभव है, न इसमें हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं। यह विचार छोड दो।
हितेष की जिद पर आखिरकार पिता ने उसके लिए प्रिटिंग प्रेस खुलवा दिया। काम में लगा ही था कि एक दिन दीनानाथ के मित्र अजय ने अपनी बेटी निशा के लिए हितेष का रिश्ता मांग लिया। दीनानाथ ने कहा भी कि अभी वह महज 23 साल का है, मगर अजय बोले, तुम बस हां कह दो। अभी सगाई कर देते हैं, शादी तो बाद में भी हो सकती है।
बात पक्की हो गई। अजय की बेटी निशा केवल दसवीं तक पढी थी। उसने आगे पढने से इंकार कर दिया था। पूरा दिन टीवी देखती और सजती-संवरती। उसकी दोनों बहनें पढाई में अच्छी थीं, लेकिन निशा को इससे फर्क नहीं पडता था।
पढाई-लिखाई में उसका मन न लगते देख एक दिन मां ने निशा को ब्यूटीशियन का कोर्स करने की सलाह दी। बेमन से निशा ने हां कहा कि इस बहाने ख्ाुद भी सजने-संवरने का मौका मिलेगा। लेकिन आशा के विपरीत निशा का मन कोर्स में लग गया। दोनों बहनों की शादी के बाद उसके लिए वर खोजा जाने लगा। मगर वह इतनी जिद्दी और चिडचिडी थी कि माता-पिता के लिए उसकी शादी करना भी टेढी खीर था। ऐसे में उन्हें दोस्त दीनानाथ याद आया। वह जानते थे, दोस्त प्रस्ताव ठुकराएगा नहीं।
हितेष पढाई में भले ही कम मन लगाता हो, लेकिन स्वभाव से बहुत सीधा था। प्रिंटिंग प्रेस खुलने के बाद उसकी दिनचर्या भी व्यस्त हो गई थी। निशा से औपचारिक मुलाकात के बाद उसने भी शादी के लिए हां कह दिया।
..एक वर्ष भी नहीं बीता कि अजय ने दीनानाथ पर शादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। अंतत: शादी हो गई। शुरुआत में हितेष को नवविवाहिता की हर बात भली लगती। उसका रूठना, तुनकना, वक्त-बेवक्त घूमने या मूवी देखने की जिद करना उसे भाता, मगर धीरे-धीरे वह परेशान होने लगा। बिजनेस पर ध्यान दे या निशा को संभाले। निशा हर समय मायके के ठाट-बाट का वर्णन करती। हितेष की मां निशा से घरेलू कार्यो में सहयोग की अपेक्षा करतीं, लेकिन देर से सोकर उठना और फिर आलस में बैठे रहना निशा की दिनचर्या में शुमार था। सास चाहती कि निशा रसोई में जाए, मगर यह सब निशा करना न चाहती। इस कारण सास-बहू की खटपट शुरू हो गई। हितेष कभी बिजनेस की उलझनें निशा से बांटना चाहता तो वह चिढ जाती और जवाब में अपने मायके का गुणगान गाने लगती।
सास-बहू के झगडे बढे तो एक दिन निशा ने ऐलान कर दिया कि वह सास से अलग रहना चाहती है। दीनानाथ अपने दोस्त अजय से उनकी बेटी की शिकायत नहीं करना चाहते थे। रिटायरमेंट करीब था, लिहाजा उन्होंने समझदारी दिखाते हुए बहू-बेटे के लिए अलग व्यवस्था कर दी।
..तीन महीने भी नहीं बीते कि निशा पुराने ढर्रे पर लौट आई। अब शिकायतें हितेष से होने लगीं, न जाने क्या सोचकर पापा ने मेरी शादी की। दिन भर अकेली रहती हूं। घूमने तक नहीं जा सकती। तुम्हें तो मेरी कोई फिक्र ही नहीं है।
एक बार फिर दीनानाथ की सलाह काम आई। उन्होंने निशा को घर में पार्लर खोलने की सलाह दी। इस बात से वह उत्साहित हो उठी। कुछ पैसा लगा कर हितेष ने फ्लैट के एक कमरे को पार्लर में बदला। विज्ञापन दिया गया। इस तरह निशा का काम शुरू हो गया। जैसे-जैसे निशा का काम बढा, हितेष का काम मंदा होता गया। अकसर लोग उसकी उदारता और ईमानदारी का फायदा उठा लेते। परिवार में भी ऐसा कोई न था, जिससे हितेष मदद मांगता। खर्च बढने लगे। परेशानियों ने हितेष को बीमार बना दिया। कई महीने बिस्तर पर पडा तो पिता की नसीहतें याद आने लगीं। बिजनेस चौपट हो गया.। निशा ने सलाह दी कि प्रेस छोड कर उसके जीजा जी के प्रॉपर्टी बिजनेस में पार्टनर बन जाए। निशा के जीजा चालाक थे, उन्हें मालूम था कि हितेष मेहनती व ईमानदार है। पैसे के लेन-देन के अलावा अन्य सभी काम उन्होंने हितेष को सौंप दिए।
इस बीच उनके घर में एक नन्हा मेहमान भी आने वाला था, इसलिए निशा की देखभाल के लिए फुलटाइम मेड की व्यवस्था की गई, पार्लर में भी स्टाफ रखना पडा।
निशा प्रेग्नेंट थी, तभी घर में एक अनहोनी हो गई। हितेष की मां बाथरूम में ऐसी फिसली कि बिस्तर पर ही पड गई। एक महीना भी नहीं बीता कि वह चल बसीं। हितेष ने पिता को अपने साथ रहने को कहा। लेकिन वह आश्चर्य से भर गया, जब उसकी बहन ने उसे बताया कि पापा ने मकान बेच दिया है। उनका इरादा निशा और दोनों बहनों को पैसे देने का है। हितेष को पता चल गया कि यह सब निशा का किया-धरा है। उसने ससुर के सामने हितेष की विफलताओं का इतना रोना गाया कि उन्हें निशा पर दया आ गई। उसकी प्रेग्नेंसी का ख्ायाल रखते हुए उन्होंने घर बेचने और स्वयं पैतृक गांव जाने का संकल्प ले लिया। पैसे मिलते ही निशा ने मेन मार्केट में पार्लर खोल लिया। काम बढा तो स्टाफ भी बढा। इसी बीच बेटी शीतल का जन्म हुआ। इस खुशी में हितेष हर विफलता भूल गया। हालांकि हितेष का प्रॉपर्टी बिजनेस बहुत अच्छा नहीं था, मगर खर्च निकल जाता था।
बच्ची कुछ बडी हुई तो निशा रोज पार्लर जाने लगी। घर में हितेष बच्ची का ध्यान रखता। पार्लर का सामान लाना और उसके मेंटेनेंस की जिम्मेदारी हितेष की थी, मगर निशा जब-तब उसे ताने देने से बाज न आती। ..यूं ही दिन कट रहे थे। एक दिन उसे पता चला कि उसकी मां की घनिष्ठ सहेली कमला मौसी के इकलौते बेटे कपिल की सडक दुर्घटना में मौत हो गई है। ख्ाबर मिलते ही वह वहां गया। मौसी तो उसे देख कर रोने लगीं मगर मौसा जी भावशून्य से कुर्सी पर धंसे थे। इस उम्र में इकलौते बेटे को खोने का दुख उनके लिए असहनीय हो गया। चंद दिन ही बीते कि हार्ट अटैक में मौसा जी भी चल बसे। अब अकेली मौसी की जिम्मेदारी हितेष ने अपने कंधे पर ले ली।
बेटी शीतल बडी हो रही थी। तुनकमिजाजी उसे मां से मिली थी। टीनएजर होते ही उसकी हठ बढती चली गई। कई बार पिता को जवाब दे देती। ननिहाल में उसने लोगों को पिता का मखौल उडाते देखा था। ऐसे लोगों के बीच रहते-रहते उसके दिमाग में भी यह बात घर कर चुकी थी कि उसके पिता कमजोर व विफल हैं। ..आज तो उसने साफ-साफ हितेष को लूजर ही कह दिया। हितेष सोचने लगा, क्या पैसा ही सब कुछ है? मैं मेहनत करके घर चला रहा हूं। अपना काम करता हूं, फिर क्यों पत्नी व बेटी के सामने मैं इतना मजबूर हूं?
जब बहुत उदास हो जाता तो मौसी के पास चला जाता। कुछ घडी उनसे बात करके उसे सुकून मिलता था। कब मौसी से रिश्ता मां-बेटे का हो गया, उसे पता न चला।
दूसरी ओर पत्नी-बेटी के साथ उसे परायापन महसूस होता। बेटी के शब्द सुन कर तो हितेष का सब्र ही खत्म होने लगा था। कमला मौसी के यहां जाने को तैयार हो ही रहा था कि उसका फोन घनघना उठा। मौसी के पडोसी थे, बेटा जल्दी आओ, मौसी का ब्लड प्रेशर बढ गया है, उन्हें हॉस्पिटल लेकर आए हैं..।
फोन सुनते ही वह अस्पताल भागा। मौसी को एक दिन के लिए एडमिट करना पडा। रात में उसे वहीं रुकना पडा। उसने निशा को फोन पर मौसी की स्थिति और वहां रुकने की जानकारी दी तो हमेशा की तरह उसने ताना मारते हुए कहा, तुम्हारे वहां रुकने से घर में कोई काम रुकने नहीं वाला। तुम खुशी से वहां रहो.. निशा ने फोन खट से काट दिया। वह चाहता था कि पत्नी व बेटी भी मौसी से मिलने आएं, लेकिन उनके मन की सारी संवेदनशीलता ही जैसे मर चुकी थी। अगले दिन मौसी की तबीयत संभली तो वह उन्हें घर लाया। हेल्पर को जरूरी हिदायतें देकर वह घर लौटने को हुआ तो निशा के कहे शब्द उसके कानों में बजने लगे और वह वहीं रुक गया।
हितेष दो दिन मौसी के ही घर में रुका। दूसरे दिन निशा ने फोन किया और बेटी हाल-चाल लेने आ गई। तब जाकर उसका गुस्सा शांत हुआ और वह घर लौटा। ।
ठीक होने के बाद एक दिन कमला मौसी ने हितेष को बुलाया और बोलीं, बेटा, कई सालों से घर की मेंटेनेंस नहीं कराई है। लेकिन यह काम तुम्हें ही कराना होगा..।
हितेष ने सारा काम कॉन्ट्रेक्ट पर दे दिया। बीच-बीच में खुद भी काम देखता। एक दिन वहां पहुंचा तो देख कर दंग रह गया कि मौसी ने कोठी के सामने वाले हिस्से को कमर्शियल लुक दे दिया था। हैरानी से उसने मौसी को देखा तो वह बोलीं, यह जगह तेरे लिए है। यहां ऑफिस बनाओ, मुझे लगता है तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी। मौसी, मैं आप पर बोझ नहीं बनना चाहता. बेटा, पिछले 10 वर्षो से तुम मेरी सेवा कर रहे हो। क्या मेरी इतनी सी बात नहीं मानोगे?
हितेष जानता था कि पॉश इलाके में ऑफिस बन जाए तो उसका काम चल निकलेगा। लेकिन मन मौसी का उपकार लेने से इंकार कर रहा था।
दूसरी ओर शीतल बडी हो रही थी और निशा ने हितेष को बताए बिना ही उसके रिश्ते की बात भी चलाई थी। इसे लेकर दोनों में खटपट भी हो गई। निशा का काम भी खास नहीं चल रहा था। गली-मुहल्लों में खुलते जा रहे पार्लर्स के कारण उसके पास काम की कमी हो गई थी। हितेष नए ऑफिस में बैठने लगा। आश्चर्यजनक ढंग से हफ्ते भर में ही एक बडी डील फाइनल हो गई और इसके दो-तीन दिन बाद ही उसने मौसी के हाथ में पांच लाख का चेक रखा, जो उसे मिला था। भाव-विभोर मौसी बोलीं, ईश्वर करे, तुम्हें यूं ही तरक्की मिलती रहे बेटा।
एक वर्ष के भीतर ही वह शहर का नामी प्रॉपर्टी डीलर हो गया। सफलता मिली तो पत्नी व बेटी का व्यवहार भी बदला। हितेष का जीवन अब शांत था। ..लेकिन कमला मौसी की सेहत बिगडती जा रही थी। हितेष ने उनकी देखभाल के लिए फुलटाइम नर्स रखी थी। निशा और शीतल भी रोज उन्हें देखने आते। हितेष बहुत-कुछ देख-समझ रहा था।
.. एक दिन मौसी चल बसीं। तेरहवीं के बाद हितेष को मालूम हुआ कि वह अपनी वसीयत में सब कुछ हितेष को देकर गई हैं। हितेष जानता था, इस खबर को सुन कर पत्नी और बेटी खुशी से नाचने लगेंगे। उसकी आंखों में आंसू भर आए। मौसी के जाने के बाद एक बार फिर से उसने अपनी मां को खो दिया और अब वह भीड में निपट अकेला था। हालांकि उसे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह तो करना था। शायद अब कोई कभी उसे लूजर न कहे, लेकिन सच्चे प्रेम के बिना तो आज भी वह लूजर ही है..।
इंद्रा रानी