रूपांतरण की कीमिया देता है गुरु
भारतीय संस्कृति में हर पर्व के मूल में किसी न किसी विषय विशेष को ध्यान में लाने, उस पर चिंतन-मनन का उद्देश्य है। सबके लिए जो तिथियां चुनी गई हैं, उनमें भी गहरे प्रतीक छिपे हुए हैं। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण पर्व गुरु पूर्णिमा के आध्यात्मिक रहस्य पर प्रकाश।
भारतीय संस्कृति में हर पर्व के मूल में किसी न किसी विषय विशेष को ध्यान में लाने, उस पर चिंतन-मनन का उद्देश्य है। सबके लिए जो तिथियां चुनी गई हैं, उनमें भी गहरे प्रतीक छिपे हुए हैं। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण पर्व गुरु पूर्णिमा के आध्यात्मिक रहस्य पर प्रकाश।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुछ विशेष दिनों को प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय दिवसों के रूप में मनाए जाने के लिए घोषणा कर रखी है - जैसे 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, 21 मार्च को विश्व काव्य दिवस तथा विश्व वन-दिवस, 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस, 5 जून को पर्यावरण दिवस आदि। इनका प्रयोजन है दुनिया भर के लोगों को कुछ विषयों का स्मरण दिलाना, लोगों को जागृत करना, बोध देना।
भारत में भी हम कुछ ऐसी ही जागृति लाने के लिए विशेष दिवसों को मनाते हैं; जैसे 5 सितंबर को शिक्षक दिवस, 14 नवंबर को बाल दिवस। इनके अतिरिक्त और भी कुछ ऐसे दिवस होते हैं, जिनकी तारीख्ा अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार नहीं होती, बल्कि पूर्णिमा या विक्रमी सवंत के अनुसार होती है, जैसे आषाढ के महीने की पूर्णिमा को हम हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं। यह पूर्णिमा जुलाई के महीने में आती है। इस बार एक और बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 2015 के जुलाई महीने में पहली तारीख्ा और तीस तारीख्ा को हमें दो पूर्णिमाएं देखने को मिलेंगी, लेकिन भारत में हम तीस तारीख्ा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाएंगे।
यह विचारणीय है कि हमने इस देश में अन्य पूर्णिमाओं को छोडकर केवल आषाढ की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा की संज्ञा दी है? ओशो ने इसका रहस्य समझाते हुए कहा है : सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें ख्ायाल में आए तो आषाढ की पूर्णिमा बडी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा, एक तो आषाढ, पूर्णिमा दिखाई भी न पडेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश तो खुला न होगा, चांद की रोशनी पूरी तो पहुंचेगी नहीं। और प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों न चुन लिया?
अगर किसी और पूर्णिमा को चुना होता तो बात उतनी रहस्यपूर्ण न होती। आषाढ की पूर्णिमा को चुनने में एक गहरा रहस्य है, वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा के चांद जैसा और शिष्य है आषाढ जैसा। शिष्य, जिन्हें अभी ज्ञान का प्रकाश उपलब्ध नहीं हुआ है, वह गुरु के पास प्रकाश की खोज में आए हैं। वे प्रार्थना करते हैं: तमसो मा ज्योतिर्गमय! गुरुदेव, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। गुरु का अर्थ भी यही है: 'गु यानी अंधकार और 'रु यानी हटाने वाला। जो शिष्य को अंधकार से मुक्त होने का उपाय बताए वह गुरु।
इसलिए वह शिक्षक या अध्यापक से बहुत भिन्न है। अध्यापक तो विद्यार्थी को पाठ्यक्रम अथवा निर्धारित कोर्स की जानकारी देते हैं, लेकिन गुरु का वह कार्य नहीं है। गुरु तो शिष्य के जीवन को रूपांतरित करने की कीमिया देता है। शिष्य अपने गुरु की उपस्थिति में स्वयं रूपांतरित होने लगता है। इसलिए शिक्षक तो सदा लाखों करोडों की संख्या में होते हैं, लेकिन गुरु करोडों में एक होता है; जैसे गुरु नानक देव, संत कबीर, गुरु गोरखनाथ, अष्टावक्र, पतंजलि, तथागत बुद्ध, रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, जलालुद्दीन रूमी, रैदास, फरीद, दादू, बुल्लेशाह इत्यादि। इन गुरुओं के सानिध्य में शिष्य को आत्मबोध होता है। वह अपने मस्तिष्क को उधार ज्ञान से बोझिल करने नहीं आता अपने गुरु के पास, बल्कि वह तो अपने अहंकार और अंधकार से मुक्त होने के लिए आता है। यह महान घटना केवल उसी व्यक्ति के सत्संग में घटती है जो पहले स्वयं अहंकार से मुक्त हो गया हो, जो स्वयं प्रदीप्त हो गया है। गुरु होना कोई अकड की बात नहीं है, यह तो शून्य की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपने अहं की भांति मिट जाता है और उसमें परम भगवत्ता झलकती है। वह परमात्मा का पारदर्शी रूप है।
गुरु के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह एक शिक्षक की भांति पढा-लिखा हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो, वेदों का ज्ञानी हो। नहीं, आज गूगल के युग में ऐसे ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। यह तो बाहरी ज्ञान है और सर्वत्र सुलभ है। गुरु विद्वता की बात नहीं है -आत्मबोध और अंत:प्रज्ञा की घटना है। एक बहुत मीठी कहानी है। एक सम्राट ने अपने दरबार के बुद्धिमानों को कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि ब्रह्म इस जगत में, कहते हैं लोग, इस भांति समाया है कि जैसे नमक सागर के जल में। दिखाओ मुझे, यह समाया हुआ ब्रह्म कहां है?
विद्वान थे दरबार में लोग। लेकिन दरबार में जैसे विद्वान हो सकते हैं, वैसे ही थे। दरबार में कोई ज्ञानी होगा, इसकी आशा तो मुश्किल है। दरबारी विद्वान थे। सब जगह मिलते हैं। उनका काम दरबार की शोभा बढाना होता है। शृंगारिक उपयोग है उनका, डेकोरेटिव। तो सभी सम्राट अपने दरबार में विद्वान रखते थे, नहीं तो सम्राट मूढ समझा जाए।
विद्वान मुश्किल में पडे। बहुत समझाने की कोशिश की। बडे उद्धरण दिए। लेकिन सम्राट ने कहा - नहीं, मुझे दिखाओ निकालकर। जो सभी जगह छिपा हुआ है, थोडा-बहुत तो निकाल कर कहीं से दिखाओ! हवा से निकाल दो, दीवाल से निकाल दो, मुझसे निकाल दो, ख्ाुद से निकाल दो! कहीं से तो निकालकर थोडी तो झलक दिखाओ! मुश्किल में पड गए। सम्राट ने कहा, नहीं बता सकोगे कल सुबह तक, तो छुट्टी! फिर लौटकर मत आना। बडी कठिनाई हो गई।
द्वारपाल भी खडा सुन रहा था। दूसरे दिन सुबह जब विद्वान नहीं आए, तो उस द्वारपाल ने कहा, महाराज! विद्वान तो आए नहीं, समय हो गया। जहां तक मैं समझता हूं, वे अब आएंगे भी नहीं, क्योंकि उत्तर होता तो कल ही दे देते। रात भर में उत्तर खोजेंगे कैसे? कहीं रखा हुआ थोडे है उत्तर कि वे ढूंढ लेंगे और उठाकर ले आएंगे, या तैयार कर लेंगे। अनुभव होता उन्हें, तो कल ही बता दिए होते। अगर हो इजाजत तो मैं उत्तर दूं।
राजा ने कहा, विद्वान हार गए, तू उत्तर देगा! डसने कहा, मैं उत्तर दूंगा। राजा ने कहा, भीतर आ, उत्तर दे। उसने कहा, पहले नीचे उतरो सिंहासन से। मैं सिंहासन पर बैठता हूं। दंडवत करो नीचे। राजा ने कहा, पागल, किस तरह की बातें करता है! उसने कहा, तो फिर तुम्हें उत्तर कभी नहीं मिलेगा। जो तुम्हारे चरणों में बैठते हैं, उनसे तुम्हें उत्तर कभी नहीं मिलेगा। क्योंकि वे उत्तर देने योग्य होते तो तुम्हें चरणों में बिठा लिया होता।
राजा एकदम घबरा गया! दरबार में कोई था भी नहीं। घबराकर नीचे बैठ गया। द्वारपाल सिंहासन पर बैठ गया। द्वारपाल ने कहा, दंडवत कर! राजा ने सिर झुकाया। और जीवन में पहली बार उसे सिर झुकाने के आनंद का अनुभव हुआ, पहली बार!
सिर अकडाए रखने की बडी पीडा है। सही बात तो यह है कि सारी पीडा ही सिर अकडाए रखने की है। लेकिन जिंदगी भर अकडाए रखने से पैरालिसिस हो जाती है। अकड ही जाता है। फिर उसको झुकाना हो तो बडी कठिनाई होती है।
बडी मुश्किल से तो झुकाया। लेकिन सिर झुकाकर जब उसके पैरों में पड रहा, तो उस द्वारपाल ने थोडी देर बाद कहा कि अब ऊपर भी उठा! पर सम्राट ने कहा, थोडी देर रुक। मैंने तो यह सुख कभी लिया नहीं। थोडा रुक। जल्दी नहीं है उत्तर की।
आधी घडी, घडी बीतने लगी। द्वारपाल ने कहा, अब सिर उठाओ। जवाब नहीं लेना है? उस सम्राट ने ऊपर देखा और उसने कहा, जवाब मुझे मिल गया। अकडा था, इसीलिए मुझे पता नहीं चला उस ब्रह्म का, आज झुका तो मुझे पता लगा कि कहां खोजता हूं बाहर!
जब सब जगह है, तो भीतर भी तो होगा ही। झुके-झुके मैं उसी में खो गया। उत्तर मुझे मिल गया। तुम मेरे गुरु हो।
बिना कहे उत्तर मिल गया! बिना उत्तर दिए उत्तर मिल गया! हुआ क्या? विनम्रता गहरे में उतार देती है और वहां से जो अंतध्र्वनियां सुनाई पडती हैं, वही उत्तर बन जाती हैं।
जीवन का बोध प्राप्त करने के लिए झुकना आवश्यक है। जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड कर खडा है, द्वार बंद है, वहां उत्तर भी प्रवेश नहीं कर सकता।
ओशो का निष्कर्ष है : शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, वह जैसा प्रचलित है वैसा नहीं है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। शिष्य शब्द का एक अलग रूप है सिक्ख। सिक्ख का मतलब है, सीखने को जो तैयार है। शिष्य होने का मतलब है जो कि सीखने को, विनम्र होने को राजी है, क्योंकि विनम्रता में ही द्वार खुलता है। अकड कर खडे हुए आदमी के द्वार बंद होते हैं। अहंकार झुका हुआ चाहिए, क्योंकि जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले द्वार में ग्राहकता पैदा होती है और गुरु की चेतना का, भगवत्ता का उसमें प्रवेश होता है। गुरु द्वार है।
बात एक बार की
एक सुबह एक प्रख्यात लेखक एक जेेन गुरु के पास पहुंचे। वे गुरु से जेन के विषय पर कुछ बातचीत करना चाह रहे थे। थोडी देर के बाद गुरु से उनकी मुलाकात हुई और सामान्य परिचय के बाद बातचीत शुरू हुई।
'अगर जेन को परिभाषित करने के लिए आपसे कहा जाए तो इसकी परिभाषा आप किस तरह देंगे? लेखक ने पूछा।
'जेेन प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान है, जेेन गुरु ने कहा.
'वह तो ठीक है, लेकिन दूसरों के अनुभव से ज्ञान प्राप्त करने में भी क्या बुराई है? लेखक ने प्रश्न उठाया, 'पुस्तकालयों में ज्ञान भरा पडा है!
जेन गुरु ने उसके उत्तर में कुछ कहा नहीं। कुछ देर बाद उन्होंने लेखक से पूछा, 'आपको भोजन कैसा लगा?
'मैंने अभी कुछ खाया ही नहीं है! अभी तो सुबह के दस ही बजे हैं, लेखक ने कहा।
'मैं जानता हूं। मैंने आपके लिए कुछ बनवाया था, पर वह मैंने ही खा लिया, जेन गुरु ने कहा, 'भोजन बहुत बढिय़ा था। आप मेरे अनुभव से यह जान सकते हैं।
स्वामी चैतन्य कीर्ति