घर-बाहर के बीच जूझ रही हैं स्त्रियां
बाहरी दुनिया में स्त्रियों का निकलना अभी नई बात है। मगर इससे घर-परिवार सहित स्त्रियों की जिंदगी में कई समस्याएं बढ़ गई हैं। परिवार परेशान हैं कि स्त्रियों के घर में होने से जो सुविधाएं थीं, उनमें कटौती हो रही है, जबकि स्त्रियां घर-बाहर संतुलन बिठाने के लिए जूझ रही हैं। यह एक नया जेंडर इश्यू है, जिस पर बहस की गुंजाइश बनती है।
बाहरी दुनिया में स्त्रियों का निकलना अभी नई बात है। मगर इससे घर-परिवार सहित स्त्रियों की जिंदगी में कई समस्याएं बढ गई हैं। परिवार परेशान हैं कि स्त्रियों के घर में होने से जो सुविधाएं थीं, उनमें कटौती हो रही है, जबकि स्त्रियां घर-बाहर संतुलन बिठाने के लिए जूझ रही हैं। यह एक नया जेंडर इश्यू है, जिस पर बहस की गुंजाइश बनती है।
पेप्सिको लेडी और फोर्ब्स के सबसे पावरफुल लोगों की लिस्ट में 13वें पायदान पर आने वाली इंदिरा नूई एक इंटरव्यू में कहती हैं कि स्त्री भले ही प्रोफेशनल लाइफ में टॉप तक पहुंचे, घर में जिम्मेदारियों से नहीं बच सकती। दो बेटियों की मां 58 वर्षीय इंदिरा ने स्वीकारा कि उन्हें भी वर्क-लाइफ बैलेंस करने में दिक्कतें आई हैं।
पेरेंटिंग को लेकर वह अपराध-बोध से ग्रस्त भी रहीं, लेकिन इससे बाहर निकलना भी उन्होंने सीखा..।
पेप्सिको सीईओ का यह बयान एकबारग्ाी स्तब्ध कर देता है। मगर यह सच है कि बाहरी दुनिया में किले फतह करने के बावजूद स्त्री की घरेलू जिम्मेदारियां कभी कम नहीं होतीं।
सहयोगी पुरुष
नौकरीपेशा पति-पत्नी के घर में कुछ दृश्य बडे आम होते हैं। दोनों काम से घर लौटते हैं। घर लौटते ही स्त्री किचन का रुख करती है, तो पुरुष कुछ देर चाय पीते हुए टीवी देख सकता है। हां, यह सच है कि आज पुरुष सहयोगी भूमिका में है और नई लाइफस्टाइल में उसकी भी जिम्मेदारियां बढ गई हैं, मगर यह उसकी मर्जी है कि वह जिम्मेदारी निभाए या न निभाए। उसका मन न हो तो वह मुकर सकता है। लेकिन स्त्री घरेलू जिम्मेदारियों से ख्ाुद को अलग नहीं कर सकती। वह यह नहीं कह सकती कि किचन में जाने का उसका मन नहीं है, इसलिए वह खाना नहीं पकाएगी। खाना पकाना, बच्चों का होमवर्क या अन्य घरेलू कार्य उसकी प्राथमिकता हैं, जिन्हें वह किसी भी कीमत पर मना नहीं कर सकती, बशर्ते वह बीमार न हो।
बंटवारा कार्यो का
25-30 साल पहले वाली पीढी ने अपने माता-पिता के बीच कार्यो का सीधा बंटवारा देखा था। मां घर के कार्य संभालती थी और पिता बाहर के। बच्चों की पढाई इतनी बोझिल नहीं थी कि मां-बाप और ट्यूटर सभी को खपना पडे। परवरिश सहज थी। तीन-चार भाई-बहन होते थे। बडा बच्चा सबसे छोटे बच्चे की देखभाल कर लेता था। समय के साथ परिवार एकल हुए। स्त्री ने बाहर की दुनिया में पैर फैलाए। इससे बनी-बनाई सरल व्यवस्था चरमराने लगी। नियमानुसार बाहर निकलने वाली स्त्री को घर के कार्र्यो से थोडी छूट मिलनी चाहिए थी, मगर हुआ उल्टा। बाहर की जिम्मेदारियां भी उसके कंधों पर आ गई। ऑफिस से लौटते हुए बच्चे को क्रेश से लेना, सब्जी-राशन खरीदना, गैस, बिजली और फोन के बिल भरना..जैसे कार्यो के अलावा बच्चों को पढाना भी उसके हिस्से आ गया। खाना पकाना और घर के अन्य काम तो पहले ही उसके पास थे।
वर्क-लाइफ बैलेंस
एक ग्लोबल ऑनलाइन सर्वे कहता है कि पुरुष जहां करियर की ग्रोथ पैसे से तय करते हैं, स्त्रियां आज भी वर्क-लाइफ बैलेंस को प्राथमिकता देती हैं। पिछले वर्ष 33 देशों में कराए गए इस सर्वे के अनुसार अन्य देशों की तुलना में यह बैलेंस भारतीय स्त्रियां ज्यादा बिठाती हैं। इसके लिए वे कई बार करियर छोड देती हैं तो कई बार कम में ही संतुष्ट हो जाती हैं। लगभग 72 प्रतिशत स्त्री प्रतिभागियों ने स्वीकार किया कि घर-बाहर के बीच तालमेल न बिठा पाने के कारण उन्होंने जॉब नहीं की। एसोचैम द्वारा समय-समय पर कराए गए सर्वे में भी यह बात सामने आती है कि स्त्रियां घर के लिए प्रोफेशनल लाइफ छोड देती हैं।
यह एक नया जेंडर इश्यू है, जो हाल-हाल में पनपा है। स्त्रियां जब से बाहरी दुनिया में आई हैं, तभी से समस्या शुरू हुई है कि घर-बाहर के बीच तालमेल कैसे बिठाएं। जाहिर है, वर्क-लाइफ बैलेंस सैद्धांतिक तौर पर भले ही आसान नजर आए, व्यवहार में यह उतना ही मुश्किल है। कोई भी स्त्री हर स्तर पर परफेक्ट नहीं हो सकती। यह एक तरह का सी-सॉ गेम है, यानी एक स्तर पर पलडा भारी होगा तो दूसरी ओर नीचे रहेगा। इंदिरा नूई का साक्षात्कार एक नई बहस को जन्म देता है कि क्या प्रोफेशनल लाइफ में सफल मानी जाने वाली स्त्रियां भी अपनी घरेलू छवि से नहीं निकल पा रही हैं?
इंदिरा राठौर