गुल्लक में जमा खुशियां
परिवार के बाद दोस्त ही होते हैं, जिनसे अपना हर सुख-दुख बांटा जा सकता है। अच्छे-बुरे समय में दोस्त ही काम आते हैं।
परिवार के बाद दोस्त ही होते हैं, जिनसे अपना हर सुख-दुख बांटा जा सकता है। अच्छे-बुरे समय में दोस्त ही काम आते हैं। विपरीत परिस्थिति में ही दोस्ती की परख होती है। कई बार हमारी छोटी सी मदद दूसरे के लिए बडी खुशी बन जाती है और जब यह मदद सामूहिक तौर पर की जाती है तो दूसरे की जिंदगी में बडा योगदान भी बन जाती है।
अगर अपने आसपास नजर डालें तो ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो अपनी पीडाओं को चुपचाप सहन करते हुए भीड में मुस्कराते हैं। कई बार हम छोटी-छोटी परेशानियों में धैर्य खो बैठते हैं या जीवन में जरा सा अभाव होते ही शिकायतें करने लगते हैं। ऐसे में उन लोगों को देखें जो रोज अपनी परेशानियों या अभावों से लडते हैं तो शायद थोडा हौसला मिल सके।
मैं 57 वर्ष की हो चुकी हूं, मगर आज भी जब कभी परेशान होती हूं, बरसों पुरानी अपनी सहेली याद आती है, जिसने विपरीत स्थितियों में हार नहीं मानी। यह घटना लगभग चालीस साल पहले यानी वर्ष 1975 की है। मैं दसवीं कक्षा में पढती थी। हमारी फीस तब बहुत थोडी थी, महज दो रुपये। हम रिक्शे से स्कूल आते-जाते थे और कभी-कभार हमें घर से 1-2 रुपये पॉकेटमनी के रूप में भी मिल जाते थे।
उन्हीं दिनों मेरी एक सहेली बनी। धीरे-धीरे उससे दोस्ती गहरी हुई। एक दिन उसने बताया कि उसके माता-पिता की कुछ वर्ष पहले आकस्मिक मृत्यु हो गई थी। वह और उसका छोटा भाई दुनिया में अकेले थे। कुछ रिश्तेदार थे, जो कभी-कभार थोडी मदद कर दिया करते थे। मेरी सहेली किसी तरह अपने भाई के साथ गुजर-बसर कर रही थी। साथ ही उसने पढाई भी जारी रखी थी।
एक बार हम दोस्तों ने उसके घर जाने के बारे में सोचा। हम वहां गए तो उसकी स्थितियां देख कर परेशान हो गए। हमारी सहेली एक घर की छोटी सी गैलरीनुमा जगह में रहती थी। वहीं कोने में उसने छोटा सा मंदिर बना रखा था। मंदिर के आगे एक गुल्लक रखा था। वह पढाई के साथ-साथ कुछ काम भी करती थी। जो भी पैसा बचता, गुल्लक में डाल देती।
उसकी स्थितियां देखने के बाद हम सहेलियों ने निश्चय किया कि कुछ पैसे हम भी उसकी गुल्लक में डालेंगे। हम अपनी पॉकेटमनी और रिक्शे के कुछ पैसे बचाने लगे। जब भी उसके घर जाते, एकत्र हुए पैसे गुल्लक में डाल देते। एक बार सहेली ने बताया कि उसके भाई का जन्मदिन है और वह उसे कुछ उपहार देना चाहती है, मगर उसके पास पैसे ज्य़ादा नहीं हैं। हम उसकी मदद करना चाहते थे, लेकिन घर पर यह बात नहीं बताना चाहते थे, वर्ना डांट पडऩे का डर था। बहुत सोचने के बाद हमने कहा, चलो गुल्लक तोड कर देखते हैं कि इसमें कितने पैसे होंगे। गुल्लक तोडा तो अप्रत्याशित रूप से उसमें काफी पैसे निकले, जो उसके भाई का जन्मदिन मनाने के लिए काफी थे। उन पैसों को देखकर मेरी सहेली के चेहरे पर जो खुशी आई, उसे मैं आज भी महसूस कर सकती हूं।
हम सबने मिल कर भाई का जन्मदिन मनाया और छोटे-छोटे तोहफे भी दिए। इसके बाद तो हमने यह नियम बना लिया कि जो भी पैसे बचेंगे, उसे गुल्लक में डालेंगे। यह नियम तब तक जारी रहा, जब तक कि हम सब बडे नहीं हो गए और उसका भाई पढ-लिख कर आत्मनिर्भर नहीं बन गया। इस छोटी-छोटी बचत से हमें असुविधा नहीं हुई, लेकिन सहेली की छोटी-छोटी जरूरतें पूरी होती रहीं।
आज इस स्तंभ को पढा तो बरसों पुरानी वह घटना फिर से याद हो आई। जाने-अनजाने हमने एक नेक काम किया, यह बात मुझे राहत व सुकून देती है।
अगर हम अपने दायरे में क्षमता भर किसी के लिए कुछ कर सकें, जरूरतमंद की थोडी सी मदद कर सकें और अपने भीतर थोडी सी संवेदनशीलता बचा सकेें तो हमारे सामाजिक रिश्ते बेहतर हो सकते हैं और आत्मिक खुशी भी मिलती है।
श्रीमती संतोष अग्रवाल, नोएडा (उप्र)
अच्छा लगता है....
अब तक हमने स्त्री विमर्श पर आपसे संवाद किया। आपके पत्रों ने हमें प्रोत्साहित किया कि इस संवाद को जारी रखें। इसलिए नया स्तंभ 'अच्छा लगता है' शुरू कर रहे हैं। खुशी वह एहसास है, जिसे पैसे से नहीं खरीदा जा सकता। किसी की पीडा बांटने, किसी के चेहरे पर मुस्कान लाने और किसी को प्रेरित करने का एहसास बहुत सुखद होता है। क्या कभी आपके प्रयासों से किसी की जिंदगी संवर सकी? या विपरीत स्थिति में किसी ने आपके कंधे पर हाथ रख कर कहा 'मैं हूं ना...'? अगर हां तो अपने विचार हमें पूरे नाम, पते, फोन नंबर्स के साथ लगभग पांच सौ शब्दों में भेजें। हमारा पता है-
अच्छा लगता है....
जागरण सखी, डी-210, सेक्टर-63, गौतमबुद्ध नगर, नोएडा, उप्र-201301