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कुछ तो लोग कहेंगे

हमारे आसपास कई ऐसे लोग होते हैं, जो नकारात्मक बातों से दूसरों का मनोबल तोडऩे की कोशिश करते हैं, पर समझदार लोग इससे नहीं घबराते।

By Edited By: Published: Tue, 05 Jul 2016 10:58 AM (IST)Updated: Tue, 05 Jul 2016 10:58 AM (IST)
कुछ तो लोग कहेंगे
इरादे पर डटी रही बचपन से ही पढऩे -लिखने में मेरी गहरी दिलचस्पी रही है। शुरू से ही मेरी आदत ऐसी रही है कि अगर मैं कुछ करने की ठान लूं तो उसे पूरा करके ही दम लेती हूं। इस संदर्भ में मैं अपना एक अनुभव आपके साथ शेयर करना चाहूंगी। उन दिनों की बात है जब मैं पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी, उसमें हमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी जा रही थी। जब इंटर्नशिप की बात आई तो मैंने अपनी सहेलियों से कहा कि हमें दूरदर्शन जाकर काम सीखना चाहिए। यह सुनकर वे मुझसे कहने लगीं कि तुम अपने मन से यह खयाल निकाल दो, वहां काम मिलना इतना आसान नहीं है और कोई भी लडकी मेरे साथ वहां जाने को तैयार नहीं हुई पर मैं अपने इरादे पर डटी रही। अगले दिन मैं अकेली ही दूरदर्शन के कार्यालय जाकर अपना रेज्य़ूमे दे आई। उसके बारह दिनों बाद वहां से मेरे लिए कॉल आया। जब मैं वहां गई तो मेरा स्क्रीन टेस्ट लिया गया, जिसमें मेरा चयन हो गया। फिर मुझे एक सप्ताह की ट्रेनिंग दी गई। इसके बाद एक परिचर्चा में मुझे एंकरिंग की जिम्मेदारी सौंपी गई। अगले दिन शाम चार बजे जब उस कार्यक्रम का प्रसारण हुआ तो उसे मेरी उन दोस्तों ने भी देखा जो मुझे वहां जाने से रोक रही थीं। उस वक्त अगर मैं उनकी बातों में आ जाती तो कामयाबी के एक अच्छे अवसर से वंचित रह जाती। अगर हम अपने इरादे पर डटे रहें तो हमें निश्चित रूप से कामयाबी मिलती है। पल्लवी अग्रवाल, गाजियाबाद मनसेजुडेमुहावरे एक पंथ दो काज खेल-खेल में पढाई जब भी मैं यह कहावत सुनती हूं, मन में बचपन से जुडी कुछ यादें ताजा हो जाती हैं। बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र लगभग दस वर्ष की रही होगी। तब हमारे छोटे से कसबे में लडकियों के लिए कोई स्कूल नहीं था। घर पर भी उनकी पढाई के लिए किताबें और पेन-पेंसिल जैसे जरूरी साधन आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते थे। लिहाजा हम बहनें घर पर ही सिलाई-बुनाई व घर के काम सीखतीं थीं। तब पापड-मुंगौडी जैसी सारी चीजें घर पर ही बनाने का रिवाज था। हां, मेरी मां अवश्य शिक्षित थीं और वह अपनी बेटियों को भी पढाना चाहती थीं। हमें घर पर ही प्रारंभिक शिक्षा देने का उन्होंने बडा ही अनूठा तरीका ढूंढ निकाला था। जब मुंगौडिय़ां बनाने के लिए मूंग की दाल का पेस्ट तैयार होता था तो वह हमें छोटी-छोटी कटोरियों में थोडी-थोडी पिसी दाल दे देती थीं और हमें उसी दाल से ए, बी, सी और क, ख, ग लिखना सिखातीं। हमें इस खेल में बडा मजा आता था और इससे हम बहुत जल्दी सीख भी जाते थे। आज मैं सोचती हूं कि हमें पढाने का यह तरीका कितना रोचक था कि इससे उनकी मुंगौडिय़ां भी बन जातीं और हमें अक्षर ज्ञान भी मिल जाता था। इसे ही कहते हैं- एक पंथ दो काज। मनोरमा दयाल, नोएडा परवाह नहीं करती साहित्य में मेरी गहरी अभिरुचि है। इसलिए जॉब की व्यस्तता के बावजूद मैं पढऩे-लिखने के लिए समय जरूर निकाल लेती हूं। संयोगवश हमारे आसपास के ज्य़ादातर लोगों को ऐसे कार्यों में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए वे जब भी मुझे पढते-लिखते देखते हैं तो अकसर मेरे सामने नकारात्मक बातें करके मुझे हतोत्साहित करते हैं। मेरी परिचित स्त्रियां अकसर मुझसे कहतीं हैं कि वे घर के कामकाज और बच्चों की देखभाल में इतनी व्यस्त रहती हैं कि उन्हें ऐसे कार्यों के लिए फुर्सत ही नहीं मिलती। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इनके पास और कोई काम नहीं है। इसीलिए यह लेखन में जुटी रहती हैं। फिर भी मैं ऐसी बातों पर ध्यान दिए बिना अपने कार्य में लगी रहती हूं और आगे बढऩे की कोशिश करती हूं। मैं अपने बेटे को भी अच्छी पुस्तकें पढऩे के लिए प्रेरित करती हूं क्योंकि किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं और साहित्य हमारी सोच को सकारात्मक बनाता है। मायारानी श्रीवास्तव, मिर्जापुर बेशकीमती बातें प्रत्येक व्यक्ति को अपने आचरण का परिणाम धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए -विलियम शेक्सपीयर

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