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इतिहास ने खुद को दोहराया

कुछ लोग बुजुर्ग माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुकर जाते हैं। ऐसा करने वालों को बुढ़ापे में खुद भी बहुत मुश्किलें उठानी पड़ती हैं। यहां सखी की एक पाठिका ऐसा ही अनुभव बांट रही हैं आपके साथ।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)
इतिहास ने खुद को दोहराया

वर्षो पहले की बात है। हमारे पडोस में एक बेहद खुशहाल परिवार रहता था। उनके साथ हमारे करीबी संबंध थे। उस परिवार की मुखिया एक बुजुर्ग स्त्री थीं, जिन्हें लोग प्यार से बेबे कहते थे। वह बहुत भली स्त्री थीं। बेबे अपने बेटे-बहू और पोते-पोतियों के साथ चैन की जिंदगी गुजार रही थीं। वह अपनी बहुओं को भी बेटी की तरह प्यार करती थीं।

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वक्त ने ली करवट

सब कुछ अच्छा चल रहा था, पर नियति को शायद यह मंजूर नहीं था। एक साल के ही भीतर ही बेबे के पति और बडे बेटे का स्वर्गवास हो गया। उनका पूरा परिवार बिखर गया। इसी बीच उनका छोटे बेटा अपने परिवार सहित दूसरे मुहल्ले में शिफ्ट हो गया। बडी बहू भी उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव करने लगी। एक बार मैं उनसे मिलने गई तो वह बेहद कमजोर लग रही थीं। तभी उनकी बडी बहू मेरे पास आई। वह मुझे अंदर ले गई और कहने लगी, आओ यहां आराम से बैठो। बेबेजी के पास तो बैठा ही नहीं जाता। उनके शरीर से बडी दुर्गध आती है। उनकी बहू की ऐसी बातें सुनकर मैं हैरान थी क्योंकि मैं काफी देर तक बेबे के पास बैठी थी, लेकिन मुझे ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ। इसके बाद मैं बेबे से अकसर मिलने चली जाती थी। अकेलापन उन्हें अंदर से खोखला कर रहा था। इसी बीच मेरे पति का तबादला नागपुर हो गया। वहां जाने के बाद भी मैं फोन पर बेबे से बातें करती थी। एक रोज मुझे खबर मिली कि यूट्रस के कैंसर की वजह से उनका निधन हो गया। इस घटना को अरसा बीत गया। तब तक बेबे की बहू विमला (परिवर्तित नाम) भी वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुकी थीं। एक बार की बात है, मैं किसी काम से दिल्ली आई थी। उसी दौरान उनके घर में बच्चे की बर्थडे पार्टी थी और वहां मैं भी आमंत्रित थी।

जैसे को तैसा

जब मैं वहां पहुंची तो मेरी निगाहें अपनी पडोसन विमला को ढूंढ रही थीं, पर वह मुझे कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थीं।

जब मैं उनसे मिलने उनके कमरे में पहुंची तो उनकी दयनीय हालत देखकर मुझे बडा दुख हुआ। कल तक पूरे घर पर अपना हुक्म चलाने वाली मालकिन आज लाचार होकर घर के एक कोने में पडी थीं। वह मुझसे कहने लगीं, मेरे शरीर में जगह-जगह फोडे हो गए हैं, जो डायबिटीज की वजह से जल्दी ठीक नहीं हो पा रहे। मुझे इतनी तकलीफ होती है कि मैं साडी या सलवार-सूट पहन नहीं पाती। हमेशा नाइटी में ही रहना पडता है। मेरी वजह से बेटे-बहू को शर्मिदगी न उठानी पडे, इसीलिए वे मुझे मेहमानों के सामने आने नहीं देते। अब तो हमेशा यहीं पडी रहती हूं।

यह दृश्य देखते ही मुझे बेबे की याद आ गई। ऐसा लगा कि वर्षो बाद आज इतिहास खुद को दोहरा रहा है। सच, हर इंसान को उसके अच्छे या बुरे कर्मो का फल यहीं भुगतना पडता है।

मनोविज्ञान की नजर में

इस मुहावरे में नैतिकता का संदेश छिपा है। हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि हमेशा दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए। ऐसे मुहावरे बचपन से ही हमें अच्छी सीख देने में कारगर साबित होते हैं। हमारे भीतर नैतिक मूल्यों को बढावा देने के लिए ही इस मुहावरे का प्रचलन हुआ होगा। अगर तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो जब हम किसी की मदद करते हैं तो इस उपकार का बदला चुकाने के लिए आमतौर पर दूसरा व्यक्ति भी हमारी मदद को तैयार रहता है। हमें ऐसा करते देखकर आसपास के अन्य लोगों के मन में हमारी अच्छी छवि बन जाती है और वे भी हमारी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। इसी तरह अगर कोई व्यक्ति सभी के साथ शालीनता से पेश आता है तो उसके शिष्ट व्यवहार को देखकर गुस्सैल या झगडालू किस्म के लोग भी उसके साथ अच्छी तरह बात करते हैं। इन्हीं वजहों से समाज में यह धारणा बन गई है कि अगर हम कुछ अच्छा करते हैं तो उसका परिणाम हमेशा अच्छा ही होता है। इसी तरह बच्चे भी माता-पिता की आदतों का अनुसरण करते हैं। अगर वे दूसरों के साथ बुरा व्यवहार करते हैं तो बाद में उनकी संतान भी केवल दूसरों के साथ ही नहीं, अपने माता-पिता के साथ भी वैसा ही करने लगती है। इससे यह धारणा और दृढ हो गई है कि बुरा करने वालों के साथ हमेशा बुरा ही होता है। हालांकि, हर नियम के कुछ अपवाद भी होते हैं। भला करने वालों के साथ भी कभी-कभी बुरा हो जाता है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि वे सही रास्ते पर चलना छोड दें। ऐसा होने पर उन्हें अपनी गलतियों से सबक लेने की कोशिश करनी चाहिए। बुरे व्यवहार के साथ नकारात्मक भावनाएं जुडी हैं, जो व्यक्ति को चिडचिडा बना देती हैं। इसीलिए ऐसा करने वाले कभी भी खुश नहीं रह पाते।

गीतिका कपूर, मनोवैज्ञानिक सलाहकार


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