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मुश्किलों ने बढ़ाया हौसला

कई बार आम लोग भी नेक इरादों के बल पर कुछ ऐसा कर गुज़रते हैं कि वे ख़्ाास बन जाते हैं। गा़जि़याबाद की डॉरिस फ्रांसिस भी एक ऐसी ही साधारण घरेलू स्त्री हैं, जिनके संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी दूूूसरों को भी निरंतर आगे बढऩे का हौसला देती है।

By Edited By: Published: Sat, 24 Oct 2015 04:07 PM (IST)Updated: Sat, 24 Oct 2015 04:07 PM (IST)
मुश्किलों ने बढ़ाया हौसला

कई बार आम लोग भी नेक इरादों के बल पर कुछ ऐसा कर गुजरते हैं कि वे ख्ाास बन जाते हैं। गाजियाबाद की डॉरिस फ्रांसिस भी एक ऐसी ही साधारण घरेलू स्त्री हैं, जिनके संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी दूूूसरों को भी निरंतर आगे बढऩे का हौसला देती है।

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समझ नहीं आता कि अपने जीवन के बारे में कहां से बताना शुरू करूं। इसे संयोग कहा जाए या दुर्भाग्य, पिछले 58 वर्षों से मुश्किलें मेरी साथी रही हैं। अब तो मुझे उनकी आदत सी पड गई है। जब तक उनसे दो-दो हाथ न कर लूं, चैन नहीं पडता।

मुफलिसी भरा बचपन

तीन भाई-बहनों में मैं सबसे बडी हूं। मेरे पिता आर्मी में ड्राइवर थे। परिवार की माली हालत ज्य़ादा अच्छी नहीं थी। जबसे होश संभाला, अपने पेरेंट्स को हमेशा झगडते देखा था। एक रोज इसी झगडे से तंग आकर हमारी मां अचानक घर छोडकर चली गईं। पिता ने ढूंढने की बहुत कोशिश की, मगर कुछ भी पता नहीं चला। मात्र दस साल की उम्र में मुझ पर दो छोटे भाई-बहनों की देखभाल की जिम्मेदारी आ गई। मेरी पढाई बीच में ही छूट गई। तब मेरा भाई ढाई वर्ष का और बहन महज्ा एक साल की थी। पडोस में रहने वाली स्त्रियों की मदद से मैंने अपनी छोटी बहन को संभालना और खाना बनाना सीखा। तब पिताजी की पोस्टिंग जम्मू में थी। 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच जंग छिड गई। उसी दौरान पाकिस्तानी सैनिकों ने पिता जी को बंदी बना लिया। ऐसे में मैं अपने छोटे भाई-बहनों के साथ बिलकुल अकेली पड गई। पास-पडोस की औरतों से जो भी बन पडता, वे थोडी-बहुत मदद कर देतीं, पर अपना घर संभालने की जिम्मेदारी तो मुझ पर ही थी। जब छोटे भाई-बहन पिता को याद करके रोते, उन्हें समझाना मुश्किल हो जाता। बहुत बुरा वक्त था वह। ख्ौर, एक साल बाद जब युद्ध-बंदियों की रिहाई हुई तो पिताजी घर लौट आए और जिंदगी अपनी पटरी पर लौटने लगी। लंबे समय तक घर पर रहने की वजह से स्कूल में जो कुछ भी थोडा-बहुत सीखा था, मैं वह सब भूलने लगी थी। हां, छोटे भाई-बहन स्कूल जरूर जाते थे। उन्हीं की किताबों से घर पर ही पढकर बडी मुश्किल से दोबारा साक्षर बनी। फिर रिटायरमेंट के बाद हमारे पिता हमें साथ लेकर दिल्ली आ आए। यहां आने के बाद पहली बार तिलक मार्ग पर एक डॉक्टर के घर पर मुझे घरेलू सहायिका की नौकरी मिली। वह परिवार बेहद दयालु था। वहीं सर्वेंट्स क्वॉर्टर में हमें रहने की जगह भी मिल गई। जब मैं घर के सारे काम निबटा लेती तो आंटी (डॉक्टर अंकल की पत्नी) मुझे पढाने बैठ जातीं। उनकी बेटी अनु दीदी भी डॉक्टर थीं। उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। वह मुझे अपने क्लिनिक ले जातीं। वहां उनके साथ रहकर मैं मरीजों की देखभाल और प्राथमिक उपचार में पारंगत हो गई। मेरे पास कोई प्रोफेशनल डिग्री नहीं है। मेरे लिए जिंदगी ही सबसे बडी पाठशाला है, जिसके अनुभवों ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया। उन दीदी के साथ रह कर मैंने दो वर्षों तक मरीजों की सेवा की।

छोटा सा आशियाना हमारा

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था। इस बीच मेरी मुलाकात विक्टर फ्रांसिस से हुई। वह हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में कार्यरत थे। कुछ मुलाकातों के बाद हमें ऐसा लगा कि हम एक-दूसरेको बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। इसलिए हमने शादी कर ली। मैं थोडी निश्चिंत सी हो गई। बचपन में मैंने बहुत बुरा वक्त देखा था। इसलिए अपनी नई गृहस्थी में बेहद ख्ाुश थी। इस बीच मैं पांच बेटियों और एक बेटे की मां बन चुकी थी। बच्चों की परवरिश में पच्चीस साल कैसे बीत गए इसका हमें पता ही नहीं चला। अपनी दो बेटियों की शादी के बाद उनकी ख्ाुशहाल गृहस्थी देखकर मैं थोडा निश्चिंत सी हो गई, पर मैं अपने अभावग्रस्त बचपन को भुला नहीं पाई थी।

मेरा मानना है कि बुरा वक्त हमें बहुत कुछ सिखा जाता है। इसीलिए उसे कभी नहीं भूलना चाहिए। इसी सोच की वजह से मैं आसपास रहने वाले जरूरतमंद परिवारों की हर तरह से मदद की कोशिश करती। यथासंभव उन्हें आर्थिक सहायता देती। उन स्त्रियों को सेहत, स्वच्छता और शिक्षा की अहमियत समझाती।

जिंदगी का दूसरा इम्तिहान

तब मुझे मालूम नहीं था कि नियति दोबारा मेरा इम्तिहान लेने की योजना बना रही है। 2008 में मेरी बडी बेटी डेजी को टाइफाइड हो गया था। बहुत इलाज कराया, पर हमारी कोशिश नाकाम रही। इसी सदमे की वजह से मेरे दामाद का मानसिक संतुलन बिगड गया। लिहाजा अब अपने दो नातियों विपिन और वरुण की देखभाल हमें ही करनी थी। हम इस दुख से बाहर निकलने की कोशिश में जुटे थे, तभी एक रोज मेरी छोटी बेटी निक्की को अचानक सांस लेने में दिक्कत महसूस होने लगी। हम उसे हॉस्पिटल ले जा रहे थे। हम तीनों ऑटो में सवार थे। नेशनल हाइवे नंबर-24 के एक चौराहे पर तेजी से आती हुई वैगन आर कार हमारे ऑटोरिक्शा से टकरा गई। हम तीनों को चोट आई। पंद्रह दिनों बाद हमें तो अस्पताल से छुट्टी मिल गई, लेकिन मेरी बेटी के लंग्स में इतनी गहरी चोट लगी थी कि तमाम कोशिशों के बावजूद डॉक्टर्स उसे बचा नहीं पाए। तब मेरी नातिन एलिशा छह महीने की थी। अब तीनों बच्चों की परवरिश का जिम्मा हम पर था।

लिया एक नया संकल्प

मैं जिंदगी से हारने लगी थी। बच्चों के उदास चेहरे देखकर मुझे बहुत दुख होता, लेकिन उन्हीं की ख्ाातिर मैंने ख्ाुद को संभाला। तब बार-बार यही ख्ायाल आता कि अगर उस रोज वह कार वाला ऑटो को गलत ढंग से ओवरटेक नहीं करता तो शायद आज हमारी बेटी जीवित होती। तभी मेरे मन में यह इच्छा पैदा हुई कि क्यों न मैं कुछ ऐसा करूं, जिससे ऐसे हादसों को रोका जा सके। फिर जनवरी 2009 में मैंने यह तय किया कि जिस जगह पर कार वाले ने हमारे ऑटो को टक्कर मारी थी, अब मैं रोजाना वहीं खडी होकर ट्रैफिक को नियंत्रित करूंगी।

आसान नहीं था यह

भावुकता में पडकर कोई भी निर्णय लेना जितना आसान होता है, उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल। उस वक्त मैंने ट्रैफिक संभालने का निर्णय ले तो लिया था, पर शुरुआत में आने-जाने वाले मेरी बात नहीं मानते थे। मुझे पागल समझकर लोग अकसर मेरा मजाक उडाते। आदतन ट्रैफिक पुलिस वाले गाडी वालों से जबरन पैसे की उगाही करते थे लेकिन मेरे खडे होने की वजह से उनके इस काम में बाधा पहुंचने लगी। इसी वजह से उन्होंने मुझे वहां से हटाने की पूरी कोशिश की। उन्होंने मुझसे कहा कि आप हमारे काम में दखलंदाजी कर रही हैं। आसपास के कुछ लोगों ने मेरे पति को धमकी दी। मेरे बेटे के साथ मारपीट की, लेकिन इन बाधाओं के बावजूद मैं पूरी निष्ठा के साथ अपने काम में जुटी रही और इसमें मेरे पति ने हमेशा मेरा साथ दिया।

कोशिश को मिली कामयाबी

मेरे इस प्रयास से आने-जाने वालों को बहुत राहत महसूस हुई और वे मेरी बात मानने लगे। जब तक मैं चौराहे पर ख्ाडी रहती हूं कोई भी ट्रैफिक पुलिस वाला लोगों को परेशान करने की जुरर्त नहीं करता। मैं किसी भी गाडी वाले को गलत ढंग से ओवरटेक नहीं करने देती। समय बचाने के लिए लोग रॉन्ग साइड से आने की कोशिश करते हैं, जिससे ट्रैफिक जाम हो जाता है। मैं उन्हें ऐसा करने से रोक देती हूं। ज्य़ादातर लडके हेलमेट साथ लेकर चलते हैं, पर सिर में नहीं पहनते। ऐसे लडकों की बाइक रोक कर मैं पहले उनसे हेलमेट पहनने को कहती हूं। बुजुर्गों और बच्चों को सुरक्षित ढंग से सडक पार करवाती हूं।

मन के सुकून के लिए

अगर कभी कोई दुर्घटना हो जाती है तो घायल व्यक्ति कोख्ाुद अस्पताल ले जाती हूं। मुझे आज भी याद है। लगभग दो साल पहले सिर में चोट लगने की वजह से एक बाइक सवार बेहोश हो गया था। पास जाकर देखा तो उसके दिल की धडकन सुनाई नहीं दे रही थी। जब मैंने मुंह के ज्ारिये उसे सांस दी तो कुछ ही पलों में उसका दिल धडकने लगा और नाडी की गति भी सामान्य हो गई। उसके सिर से बहुत ज्य़ादा ख्ाून बह रहा था। जब मैंने मदद के लिए एक कार वाले को रोका तो वह कहने लगा कि इससे मेरी कार ख्ाराब हो जाएगी। तब मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने उस व्यक्ति से कहा कि मैं आपकी कार की सीट कवर बदलवा दूंगी, पर अभी आपको हमारी मदद करनी पडेगी। ख्ौर, उस लडके की जान बच गई। वह आज भी मुझे मां की तरह इज्जत देता है। ऐसे कार्यों के लिए यूपी ट्रैफिक पुलिस मुझे प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित कर चुकी है। लोगों का प्यार और प्रोत्साहन पाकर अब मैंने शाम को भी ड्यूटी देने का निर्णय लिया है। अपनी औलाद को खोने का गम तो हमेशा रहेगा, पर ऐसे कार्यों से दिल को जो सुकून मिलता है, वह मेरे लिए बेशकीमती है।

प्रस्तुति : विनीता


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