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समझ नहीं पाई अहमियत

अकसर हम अपने करीबी लोगों की अहमियत समझ नहीं पाते और उनसे ज्यादा दूसरों की बातों पर भरोसा करने लगते हैं। यहां रूबरू होते हैं एक पाठिका के ऐसे ही अनुभव से।

By Edited By: Published: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)Updated: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)
समझ नहीं पाई अहमियत

बात उन दिनों की है, जब मैं कॉलेज  में पढती थी। मेरे पिताजी के एक करीबी मित्र होम्योपैथी के डॉक्टर थे। जब भी हमारे परिवार में किसी को सेहत संबंधी कोई परेशानी होती तो वह इलाज के लिए उन्हीं के पास जाता था। वह अतिशय विनम्र और सहयोगी प्रवृत्ति के थे। इसी वजह से हमारे मुहल्ले में काफी लोकप्रिय थे।

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इलाज पर भरोसा नहीं

डॉक्टर अंकल मुझे बेटी की तरह प्यार करते थे और सर्दी-जुकाम जैसी मामूली तकलीफों के लिए मैं उन्हीं से दवा लेती थी। जब मैं ग्रेजुएशन  कर रही थी, उन्हीं दिनों पेटदर्द और पाचन संबंधी समस्याओं से अकसर परेशान रहती थी। जब मैंने अंकल को अपनी इस परेशानी के बारे में बताया तो उन्होंने मुझे कुछ दवाएं देते हुए कहा कि तुम तत्काल फायदे की उम्मीद मत रखना। इस समस्या को जड से दूर करने में वक्त लगेगा। पहली बार उन्होंने मुझे 15  दिनों की दवा दी और दोबारा आने को कहा। मेरी सेहत में धीमी गति से सुधार हो रहा था, पर उस वक्त मुझ में जरा भी धैर्य नहीं था। मैं छोटी-छोटी बातों से भी बहुत जल्दी घबरा जाती थी। दो महीने बीत जाने के बाद मैंने अपने पिताजी से कहा कि अंकल की दवाओं का मुझ पर कोई असर नहीं हो रहा। इसलिए अब मैं किसी बडे डॉक्टर से सलाह लेना चाहती हूं। पिता जी ने मुझे बहुत समझाया कि वह बहुत काबिल डॉक्टर हैं और होम्योपैथिक दवाएं समस्या को जड से दूर करती हैं। इसलिए उनका असर धीरे-धीरे होता है, पर मैं तो जिद पर अड गई कि अब मैं उनसे इलाज नहीं करवाऊंगी।

परेशानियों भरा दौर

इसके बाद मैं बडे अस्पतालों के चक्कर काटती रही। परिचितों की सलाह पर कई बार डॉक्टर भी बदल चुकी थी, पर मेरी सेहत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। एक बार किसी ने पिताजी को बताया कि इलाहाबाद में एक बहुत अच्छे डॉक्टर हैं। यह सुनकर मैं वहां भी गई, पर कोई फायदा नहीं हुआ।

हमेशा रहेगा अफसोस

हर जगह से निराश होकर वापस लौटने के बाद मैं अंतत: डॉक्टर अंकल के पास गई। संयोग कुछ ऐसा था कि इस बार मुझ पर उनकी दवाओं का असर होने लगा था और धीरे-धीरे मैं पूर्णत: स्वस्थ हो गई। इसके कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया। मुझे आज भी इस बात का बेहद अफसोस होता है कि उनके जीवित रहते मैं उनकी अहमियत को समझ नहीं पाई।

अकसर हम अपने करीबी लोगों की बातों को गंभीरता से नहीं लेते। आज छठी कक्षा में पढने वाला मेरा बेटा भी मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करता है। मैं पेशे से शिक्षिका हूं। दूसरे बच्चे मेरी हर बात मानते हैं, पर बेटा मेरी कोई भी बात मानने को तैयार नहीं होता, लेकिन जब कोई दूसरा व्यक्ति वही बात कहता है वह तुरंत मान लेता है। सच, घर की मुर्गी दाल बराबर होती है।

मनोविज्ञान की नजर में

बचपन से ही हमारे दिलोदिमाग में अपने करीबी लोगों की एक खास छवि अंकित होती है और उस व्यक्ति को हम उसी रूप में देखने के आदी हो चुके होते हैं। किसी भी इंसान के व्यक्तित्व के कई आयाम होते हैं, लेकिन करीबी लोग ज्यादातर उसके निजी जीवन से ही जुडे होते है और उसकी दूसरी खूबियों के बारे में नहीं जानते। जब हमारे परिवार का कोई सदस्य डॉक्टर, टीचर या वकील होता है तो हम उसकी प्रोफेशनल खूबियों से वाकिफ नहीं होते। अपने करीबी लोगों को हम उसी खास भूमिका में देखना पसंद करते हैं, जिसमें वे शुरू से हमारे साथ होते हैं। अपने लोग हर पल हमारा खयाल रखते हैं। उनकी यह आदत हमारे रुटीन का जरूरी हिस्सा बन चुकी होती है। इसी वजह से हम उनकी अहमियत समझ नहीं पाते और उन्हें फॉर ग्रांटेड लेने लगते हैं। मिसाल के तौर पर होममेकर स्त्रियों से उनके पति अकसर यही कहते हैं, तुम दिन भर करती क्या हो?.. लेकिन जब वह कुछ दिनों के लिए मायके चली जाती है तो उन्हें पत्नी की अहमियत का एहसास होता है। यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि जो सुख-सुविधाएं हमें यूं ही मिल जाती हैं, हमें उसकी कद्र नहीं होती। इसके विपरीत जिन चीजों को पाने के लिए हमें मेहनत या पैसे के रूप में कीमत चुकानी पडती है, हमारे लिए उनकी बहुत ज्यादा अहमियत होती है। अगर परिवार कोई सदस्य डॉक्टर हो तो व्यक्ति उसकी सलाह को गंभीरता से नहीं लेता, लेकिन दूसरे डॉक्टर को फीस चुकाने के बाद वह उसकी सारी बातें मानता है। यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है, लेकिन इसे बढावा देना अनुचित है। हमें करीबी लोगों की प्रशंसा करके उन्हें उनकी अहमियत का एहसास दिलाना चाहिए। इससे रिश्तों में मधुरता बनी रहती है।

गीतिका कपूर, मनोवैज्ञानिक सलाहकार


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