रसोई की सेहत भरी परंपराएं
खाने की ख़्ाुशबू से ही उसके स्वाद का पता चल जाता है। भोजन का स्वादिष्ट होना जितना ज़्ारूरी है, उतना ही ज़्ारूरी है उसका पौष्टिक होना। खानपान की पुरानी विधियों में स्वाद और सेहत का यही तालमेल नज़्ार आता था। इसीलिए तो आज भी हम दादी-नानी की पाक-कला के नुस्ख़्ो
खाने की ख्ाुशबू से ही उसके स्वाद का पता चल जाता है। भोजन का स्वादिष्ट होना जितना ज्ारूरी है, उतना ही ज्ारूरी है उसका पौष्टिक होना। खानपान की पुरानी विधियों में स्वाद और सेहत का यही तालमेल नज्ार आता था। इसीलिए तो आज भी हम दादी-नानी की पाक-कला के नुस्ख्ो याद करने लगते हैं। कहीं किसी छौंक या बघार की ख्ाुशबू हमें बचपन की याद दिला देती है। तो फिर क्यों न लौट जाएं एक बार फिर उन्हीं पारंपरिक रसोइयों की तरफ!
आज हमारे खाने की परिभाषा सिर्फ आयन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विटमिंस तक सिमट कर रह गई है। इतना पौष्टिक खाना खाने के बाद भी हम स्वास्थ्य के मामले में कमजोर होते जा रहे हैं। वहीं अगर हम दादी-नानी के खाने के बारे में बात करें तो स्वाद से भरपूर उनके खाने में पौष्टिक तत्वों का समावेश भी होता था। चूल्हे की धीमी आंच में पकता खाना, ताजे पिसे मसाले में पकाई हुई सब्ज्िायां, ताजे आटे की बनी रोटियां और ताजे दूध की बनी मिठाई खाने के स्वाद को बढाने के लिए काफी होते थे। खाने को स्वादिष्ट बनाने के लिए हर पकवान बनाने की अलग विधि थी और उनके कुछ ख्ाास मसाले थे, जो हर हाल में इस्तेमाल करने होते थे। आज जब हम व्यस्त लाइफस्टाइल के कारण स्वास्थ्य समस्याओं से परेशान हैं तो जरूरत है अपने पुराने समय की विधियों को एक बार फिर अपनाने की। आइए उन नियमों, विधियों और जानकारियों पर डालें
एक नजर।
रसोई की बातें
दादी-नादी की रसोई की कुछ ख्ाास बातें होती थीं जिन्हें स्वाद की परख और सेहत के पैमाने से परखा जा चुका है। उनकी रसोई में हमारे पोषण का ख्ाजाना छुपा होता था। न्यूट्रिशनिस्ट डॉ. संध्या पांडेय बताती हैं, 'पुराने समय में हर चीज ताजी होती थी। इस कारण खाने के पोषक तत्व बचे रहते थे। अब हम फ्रोजन फूड खाते हैं। खाना एक बार बनाकर फ्रिज में रख देते हैं और इसे बार-बार गर्म करके खाते हैं। इससे खाने के स्वाद के साथ ही उसके पोषक तत्वों में भी कमी आ जाती है। पहले सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक सब ताजा होता था। पका कर रख देने की परंपरा नहीं थी। खाना पकाने के लिए कई तरह के मेटल के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी काफी उपयोगी होते थे। जैसे- लोहे की कडाही में सब्जियां बनाना और नियमित रूप से गुड का सेवन आयन की प्राप्ति का एक आसान तरीका था, जिससे लोगों को एनीमिया की समस्या कम होती थी। तांबे के बर्तन में पानी पीना शरीर के विषैले तत्वों को बाहर निकालने में मददगार होता था। उडद की दाल भारी होती है, इसलिए इससे बने व्यंजनों में हींग, लहसुन और अदरक डालना अनिवार्य रहा है। शरीर में वात बढाने वाली उडद के इस हानिकारक गुण को लहसुन और अदरक से कम किया जा सकता है और खाने का पोषण भी बढ जाता है। इसी तरह भिंडी का छौंक अनिवार्य रूप से अजवाइन और मेथी से होगा, शिमला मिर्च की सब्जी में जीरा जरूर पडेगा और सीताफल और अरबी की सब्ज्ाी में अजवाइन का छौंक खाना बना रहे व्यक्ति की बुद्घिमत्ता का प्रतीक माना जाता है।
यूं होती थी शुरुआत
पुराने समय में रसोई की पूरी दिनचर्या पहले से ही तैयार रहती थी। घरों की चक्की पर पिसे आटे में गेहंू के दाने के हरेक भाग का पोषण मिलता था। आटे में स्वास्थ्यकारी क्षारीयता होती है, जबकि मशीन की चक्की या रिफाइंड आटे में अम्लीयता ज्य़ादा होती है। सब्जियों के लिए खडा मसाला रोज भिगो कर पीसा जाता था। इससे मसालों का अधिकतम फायदा मिलता था। आटा गूंध कर कुछ देर रखने की एक सामान्य आदत थी। इससे उसमें पोषक तत्व बढते हैं। दूध, दाल और हाथ से बेली रोटियों को धीमी आंच पर सेंकना कोई मजबूरी नहीं, बल्कि सेहत का नुस्ख्ाा था। तेज आंच पर खाना पकाने से उसके पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं, इसलिए पुरानी रसोइयों में खाना हमेशा धीमी आंच पर पकाया जाता था ।
स्वाद न हो जाए बेस्वाद
नैचरोपैथडॉ. ईश्वर शर्मा बताते हैं कि आज के समय में हम किसी भी मौसम में कोई भी सब्जी या फल खा सकते हैं, लेकिन मौसम के अनुसार ही फल और सब्जियों का सेवन किया जाता था। जैसे- गोभी सर्दियों की पसंदीदा सब्जी
है तो भिंडी गर्मियों में खाई जाने वाली सब्जी है। दरअसल हर मौसम में उगने वाले फल और सब्जियों का स्वभाव उनके पोषक तत्वों से जुडा है, इसलिए इन्हें बेमौसम नहीं खाना चाहिए।
स्वाद से दिल तक
आज एकल परिवारों का चलन है। नौकरीपेशा परिवारों में समय की कमी के कारण स्वाद और स्वास्थ्य दोनों की कमी लगातार महसूस की जाने लगी है। आधुनिक समय में ग्रुप एक्टिविटी का भाव कम होता जा रहा है, जो संयुक्त परिवारों की ख्ाूबी हुआ करती थी। हमारी पुरानी परंपराएं जीवन में प्यार का संचार करती थीं। परिवार के लोग एक साथ ज्ामीन पर बैठकर खाना खाते थे। इससे उनके बीच एकता और प्यार बढता था, साथ ही भोजन आसानी से पचता भी था। भोजन में घुले प्यार और स्वाद का असर सेहत को दुरुस्त रखता था।
ज्ारूरत है कि ज्ाायके की इस परंपरा को आगे बढाएं और अपनों को परोसें प्यार, विश्वास और स्वाद की पौष्टिक थाली।
छौंक सेहतमंद स्वाद की
भारत के हर प्रांत में खाना बनाने की विधियां अलग हैं। एक ही व्यंजन को अलग जगहों पर अलग ढंग से पकाया जाता है। उसी तरह दाल-सब्जी में लगने वाले छौंक या तडके का भी अपना अलग अंदाज है। खाने का स्वाद बढाते ये छौंक व्यंजन से होने वाले विकारों को भी दूर करते हैं। जैसे अरहर दाल की तासीर गर्म होती है, इसलिए इसे घी, अदरक-लहसुन और जीरे से छौंका जाता है। सरसों के साग से गैस की परेशानी हो सकती है। इससे बचने के लिए इसमें प्याज, लहसुन और अदरक का छौंक लगाया जाता है। सफेद चने, फूलगोभी, उडद, राजमा सभी देर से पचने वाले भोजन हैं और इनसे गैस की परेशानी हो सकती है। इसलिए इसे दूर करने के लिए इन्हें लहसुन-अदरक से छौंका जाता है। कढी खाने में बेहद स्वादिष्ट लगती है, लेकिन यह गरिष्ठ हो सकती है, इसीलिए सुपाच्य बनाने के लिए इसे मेथी दाने, राई, करी पत्ते आदि से छौंका जाता है। कद्दू, अरबी, भिंडी जैसी सब्जियां देर से पचती हैं, इसलिए इन्हें सुपाच्य बनाने के लिए मेथी दाने, सौंफ या अजवायन से छौंका जाता है। जीरे में आयरन, कॉपर, कैल्शियम, पोटैशियम जैसे तत्व होते हैं। ये मसाले खाने के स्वाद को बढाते हैं और अपनी ढेरों ख्ाूबियों से सेहत का भी पूरा ख्ायाल रखते हैं।
वंदना यादव