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खेल के बहाने रिश्तों की बात लाहौर

भारत-पाक संबंधों को लेकर कई फिल्में बनी हैं। वर्ष 2010 में आई फिल्म लाहौर खेल, टीम भावना और मानवीय संवेदनाओं की कहानी है। किसी भी खेल में जीतना या हारना नहीं, उसमें हिस्सा लेना महत्वपूर्ण होता है। इसी विषय को कुछ अलग ढंग से पिरोया गया है इस फिल्म की कहानी में। फिल्म से जुड़े प्रसंगों के बारे में बता रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 03:30 PM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 03:30 PM (IST)
खेल के बहाने रिश्तों की बात लाहौर

संजय पूरण सिंह चौहान की फिल्म लाहौर वर्ष 2010 में आई थी। भारत-पाकिस्तान रिश्तों के साथ खेल, खेल भावना और खिलाडियों की मनोदशा और उत्तेजना को रचती यह फिल्म मानवता और दोस्ती का संदेश देती है। फिल्म में एस.के. राव की सटीक भूमिका के लिए फारूख शेख को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। देश-विदेश के अनेक फिल्म फेस्टिवल्स का हिस्सा रह चुकी यह फिल्म मौलिकता, सहजता व मानवता के लिए उल्लेखनीय है।

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कुछ ऐसे शुरू हुई कहानी

संजय पूरण सिंह चौहान का करियर संयोगों की सफल दास्तान है। वे किसी के सहायक नहीं रहे। शुरू में कुछ समय के लिए दूसरे लेखकों के लिए लिखा। फिर एक फिल्म शुरू हुई, लेकिन निर्माता से रचनात्मक अनबन हो गई। संजय सीने पर पत्थर रख कर काम नहीं करना चाहते थे। मनमुटाव के बावजूद निर्माता भले थे, खुद ही फिल्म से अलग हो गए। उन्होंने संजय से कहा कि तुम्हें कोई निर्माता मिल जाए तो मेरे खर्च हुए पैसे वापस दिलवा देना। बाद में दिल्ली-हरियाणा के निर्माता मिले। उन्होंने संजय की सोच पर भरोसा दिखाया। इसके बाद लाहौर जैसी फिल्म वजूद में आई।

छोटे बजट में बडा काम

संजय उन दिनों को याद करते हैं, निर्माता मिलने के बाद भी लाहौर के निर्माण में दिक्कतें थीं। मैं गैर-पारंपरिक तरीके से अपनी कहानी कहना चाह रहा था। सीमित बजट के बावजूद कथ्य का स्केल बडा था। मैंने ऐसे ऐक्टर लिए, जिन्होंने भारी फीस नहीं ली। हमने खर्च में खुद को समेटा। कहानी और कथ्य के स्तर पर मैं कटौती नहीं कर सकता था। मुझे भारत-पाकिस्तान की जो कहानी कहनी थी, उसे दो कमरों में नहीं कहा जा सकता था। इसमें टूर्नामेंट, स्टेडियम और पाकिस्तान के लोकेशन की जरूरत थी। मैंने एक हसीन दुनिया की कल्पना की थी। मुझे वही दुनिया दिखानी थी। उन दिनों तो यूनिट के सदस्य रोज एक जंग लडते थे। कई बार लगता था कि क्या हम पूरी कायनात के खिलाफ जाकर फिल्म बना रहे हैं। मगर अब कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है, वह लाहौर से ही मिला है। मेरी पहचान लाहौर से है।

जुनून एवं जज्बे का समागम

लाहौर में संजय ने नौसिखियों की टीम के साथ काम करके एक चुनौती ली थी। संजय टीम के सदस्यों को फिल्म का श्रेय देते हैं, हमारा सामूहिक जुनून ही पर्दे पर नजर आया। कोई कहता था कि यह नहीं हो सकता या इसमें छह दिन लगेंगे तो उसे हम एक दिन में करके दिखा देते थे। हिंदी फिल्मों के ढांचे का हमने पालन ही नहीं किया। ऐसा नहीं था कि हम विद्रोह कर रहे थे। हम तो जानते ही नहीं थे। हम पर धुन चढी थी। कोशिशों से राह बनती जा रही थी। सभी नए थे, इसलिए यह आसान भी रहा। लाहौर पागलों का समागम रहा। गडबडी रह जाती तो पता नहीं आज हम कहां होते?

जिंदगी के बहाव की कहानी

लाहौर हिंदी की पारंपरिक फिल्म नहीं है। इधर खेल पर आधारित ढेर सारी फिल्में आ रही हैं। इस फिल्म की प्रेरणा संजय को अपने अनुभवों और जीवन से मिली थी। वे बताते हैं, मेरी फिल्म मुख्य रूप से भाईचारा, दोस्ती और खेल भावना पर केंद्रित है। खेल कोई भी हो सकता था। किक बॉक्सिंग चुनने की वजह यह थी कि मैं उसके बारे में जानता था। इस खेल में जीत पर फोकस रहता है। भारतीय समाज में जीतने पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाता। सभी खेल भावना की बातें करते हैं। हार के साथ जिंदगी खत्म नहीं होती। जीत का जज्बा रहना चाहिए। जिस जिंदगी को देखा हो, उसे पर्दे पर उतारो तो सच्चाई झलकती है। वह फिल्म दर्शकों के दिलों को छूती है, क्योंकि बात दिल से निकल रही है। किक बॉक्सिंग की दुनिया मेरी देखी-सुनी थी। मुझे फिल्म में नौसिखिए का गुस्सा दिखाना था। वह खेल से ज्यादा भावना के जोश में है। प्रेरणा रही एक टूर्नामेंट के समय पाकिस्तानी टीम की सोहबत। खेल के समय दुश्मन मगर बाद में सांस्कृतिक निकटता की वजह से साथ-साथ हंसना और मौज-मस्ती करना, हिंदी फिल्मों के गानों पर नाचना। मुझे वह अच्छा विषय लगा। हरिद्वार में एक टूर्नामेंट के दौरान एक बच्ची का देहांत हो गया था। अगले साल उसकी बहन रिंग में आ गई थी। मुझे वह आधार मिला।

मानवता की जीत

भारत-पाकिस्तान की पृष्ठभूमि रखने की भी वजह थी। बचपन से खेल, राजनीति, दोस्ती-दुश्मनी में सबसे ज्यादा कवायद पाकिस्तान के साथ ही रही है। संजय स्वीकार करते है, पाकिस्तान हमारे लिए अप्रासंगिक नहीं हो सकता। दोनों एक-दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। इगो का आवरण है, जबकि अंदर से सब एक हैं। किसी और देश का संदर्भ दर्शकों के लिए कारगर नहीं होता।

लाहौर वीरेंदर और धीरेंदर दो भाइयों की कहानी है। दोनों एक-एक कर रिंग में आते हैं। उनके साथ और लोग भी हैं, भारत और पाकिस्तान की खेल समिति के सदस्य हैं। वे साज्िाशों और रंजिशों में लीन हैं। संजय ने कोशिश की है कि राष्ट्रीय भावना के साथ खेल भावना व मानवता की झलक भी मिले। इस फिल्म की संरचना सरल नहीं है। मगर घटनाक्रम दर्शकों की रुचि बनाए रहते हैं।

फारूख शेख की वापसी

लाहौर में कोच की भूमिका फारूख शेख ने निभाई है। चौदह साल के बाद वे किसी फिल्म में नजर आए। यह भी अलग किस्सा है। फारूख न केवल राजी हुए बल्कि उन्होंने अपने जीवन का श्रेष्ठ प्रदर्शन भी किया। संजय बताते हैं, इस रोल के लिए मैंने पहले कुछ लोकप्रिय अभिनेताओं से संपर्क किया था। उन्हें रोल पसंद आता था, लेकिन वे दृश्यों में चेंज की बातें करने लगते थे। मुझे अपने कोच को इसी तरह दिखाना था। खैर, फारूख शेख तैयार हुए और उन्होंने बगैर किसी तब्दीली के मेरी सोच को शिद्दत से पर्दे पर उतारा। बाकी कलाकारों के चुनाव में भी मैंने खयाल रखा कि वे मेहनत और लगन के साथ जुडें। फिल्म सीमित बजट में पूरी करनी थी। मुख्य भूमिकाओं में ऐसे ऐक्टर चाहिए थे, जो ट्रेनिंग के लिए समय दे सकें। किक बॉक्सिंग सीखे बगैर वे भूमिका नहीं निभा सकते थे। मुकेश ऋषि, सुशांत सिंह, केली दोर्जी जैसे सभी कलाकारों को आठ-नौ महीने का अभ्यास करना पडा।

फिल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग लाहौर में की गई। भारतीय डायरेक्टर को वहां अनुमति नहीं मिल सकती थी, लिहाजा विदेशी क्रू रखा गया। डॉक्यूमेंट्री शूट करने के बहाने फिल्म के लोकेशन शूट किए गए। उन्हें बाद में किरदारों के साथ जोडा गया।

अजय ब्रह्मात्मज


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