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फेरीटेल मूवीज़ घटता रुझान

एक दौर था जब फिल्में गुलामी और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ झंडा बुलंद करती थीं। फिर देश ने आज़ादी का सूरज देखा। समय के साथ फिल्मों के विषय भी बदलते गए। एक समय ऐसा भी आया जब नाटकीयता के आगे वास्तविकता गुम सी हो गई।

By Edited By: Published: Fri, 23 Jan 2015 11:58 AM (IST)Updated: Fri, 23 Jan 2015 11:58 AM (IST)
फेरीटेल मूवीज़ घटता रुझान

एक दौर था जब फिल्में गुलामी और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ झंडा बुलंद करती थीं। फिर देश ने आजादी का सूरज देखा। समय के साथ फिल्मों के विषय भी बदलते गए। एक समय ऐसा भी आया जब नाटकीयता के आगे वास्तविकता गुम सी हो गई। लेकिन समय का चक्र एक बार फिर घूमा है। युवा निर्देशकों ने मानसिक रूप से वयस्क हो चुके दर्शकों की नब्ज पहचानी है। अब वे युवाओं को सपने नहीं दिखाते, बल्कि उन्हें हकीकत से रूबरू कराते हैं। इस विषय पर सखी ने युवाओं की राय जानी।

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मास मीडियम है सिनेमा इशप्रीत भल्ला

मुझे लगता है कि बॉलीवुड फिल्म मेकर्स को कुछ स्टुपिड फिल्में बनानी चाहिए ताकि वे लोगों का मनोरंजन करें। लेकिन इनकी संख्या सीमित होनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश में सिनेमा एक मास मीडियम है जो लोगों में संवेदनाएं जगाने में अहम भूमिका निभाता है। पिछले कुछ सालों में फिल्म मेकर्स ने अर्थपूर्ण फिल्मों की तरफ रुख्ा भी किया है जो एक अच्छा संकेत है। दिबाकर बनर्जी हों, अनुराग कश्यप हों या इम्तियाज अली- वे यह जानते हैं कि अब टिपिकल मसाला फिल्मों का दौर जा चुका है। लोग ऐसी फिल्में देखना चाहते हैं जिनमें कुछ नयापन हो।

जा रहा है ड्रीम वल्र्ड का दौर वसुंधरा

हीरो की एंट्री, नाच-गाना, विलेन की ख्ाुराफात, गुंडों से फाइट और हैप्पी एंडिंग। एक दौर ऐसा था जब ज्य़ादातर फिल्मों में कंटेंट के नाम पर यही चीजें होती थीं। पर अब ऐसा नहीं रहा। अब फिल्मकार भी यह समझते हैं कि जिंदगी में हमेशा सब कुछ अच्छा ही नहीं होता। दर्शकों को ड्रीम वल्र्ड में ले जाने की जगह वे उन्हें हकीकत के धरातल पर ले जाते हैं। आज का दर्शक बेहद जागरूक है। वह प्रैक्टिकल व आर्टिस्टिक अप्रोच को समझता और सराहता है। आज साहित्य फिल्मों की प्रेरणा का प्रमुख

स्रोत है।

पसंद आता है किरदारों से जुडाव प्रेम कुमार बघेल

आधुनिक फिल्मकार जानते हैं कि किस िकस्म के िकरदारों से दर्शक ख्ाुद को जोड पाएंगे। फिल्म 'टू स्टेट्स में कृष का किरदार मुझे अपने जैसा लगा क्योंकि जिस तरह उसके और उसके पिता के संबंधों में खटास और गलतफहमियां थीं, वैसी समस्याएं अकसर युवाओं और उनके अभिभावकों के बीच होती हैं। फिल्म में तो अंत तक सब अच्छा हो गया था। लेकिन असल जिंदगी में भी ऐसा ही हो, यह जरूरी तो नहीं।

स्त्रीप्रधान फिल्मों का ट्रेंड यामिनी कौशिक

पिछले कुछ सालों में स्त्री प्रधान हिंदी फिल्मों का ट्रेंड जोरों पर है। 'मर्दानी, 'मैरीकॉम जैसी फिल्मों में स्त्रियां शोपीस के तौर पर नहीं बल्कि लीड रोल में नजर आईं। लंबे समय से उपयोग की वस्तु के रूप में दर्शाई जा रही स्त्री का यह नया मेकओवर सबको रास आ रहा है। इस तरह की फिल्में बनाकर इनके निर्देशक मुश्िकलों से जूझती और विजेता बन कर उभरती स्त्रियों की कहानियां दिखाकर एक तरह से स्त्री सशक्तीकरण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

लुभा रहे बदलाव श्रद्धा पराशर

मैं बॉलीवुड फिल्मों की बहुत बडी प्रशंसक नहीं हूं क्योंकि वे वास्तविकता से परे होती हैं। पर इधर ऐसी कई फिल्में रिलीज हुईं जिनका ट्रेलर देखकर मैं उन्हें देखने के लिए मजबूर हो गई। हैदर ऐसी ही एक फिल्म थी। बॉलीवुड सिनेमा में कई बदलाव आए हैं जिन्होंने समसामयिक मुद्दों को बेहद रचनात्मक तरीके से पेश किया। इन बदलावों को युवा काफी पसंद कर रहे हैं।

ख्ाास काम करने वाला आम युवा समक्ष

युवाओं की जिंदगी में फिल्मों का बडा प्रभाव होता है। चलने के अंदाज से लेकर हेयरस्टाइल, कपडों और भाषा तक के मामले में वे फिल्मी किरदारों से प्रेरणा लेते हैं। ऐसे में अगर फिल्मों में बाहरी रूप-रंग की जगह आंतरिक ख्ाूबसूरती वाले िकरदार होंगे तो युवा उनके जैसा बनने की कोशिश करेंगे। यह समाज के हित में होगा। वे किसी हीरो को नहीं देखना चाहते। अपने जैसे आम युवा को देखना चाहते हैं जो ख्ाास काम करता हो।

हॉलीवुड है बेहतर

वंदना शर्मा

मुझे लगता है कि व्यवहारिकता के मामले में बॉलीवुड के फिल्मकारों को हॉलीवुड फिल्मों से प्रेरणा लेनी चाहिए। उनमें कई बार हीरो-हीरोइन अंत तक नहीं मिल पाते, कई बार हीरो ही विलेन साबित होता है तो कई बार पूरी फिल्म में एक भी गीत नहीं होता। जिंदगी भी तो ऐसी ही है। अप्रत्याशित और अनोखी। पिछले कुछ समय से बॉलीवुड में भी ऐसी फिल्में बनाई जा रही हैं।

मूल विषय पर बनी फिल्में ज्य़ादा प्रभावी शिवानी यादव

आजकल हॉलीवुड और दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल कर कई हिंदी फिल्में बनाई जा रही हैं। लेकिन उनमें से ज्य़ादातर सफल नहीं हो पातीं क्योंकि उनमें कुछ अर्थपूर्ण या नया नहीं होता। वह बात नहीं होती जो किसी नए विषय पर बनी फिल्म में होती है। हालांकि कई नए निर्देशक अब मैरीकॉम जैसे असल जिंदगी के चैंम्पियंस पर आधारित फिल्में बना रहे हैं। सच्चाई से इनकी करीबी इन्हें सफलता भी दिला रही है।


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