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शांति का शत्रु है अहंकार

स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने की मनोवृत्ति मनुष्य को अहंकारी बना देती है, जिसके नशे में वह अपनी जि़म्मेदारियों को भूलकर पतन के मार्ग पर चलने लगता है।

By Edited By: Published: Fri, 19 Aug 2016 03:04 PM (IST)Updated: Fri, 19 Aug 2016 03:04 PM (IST)
शांति का शत्रु है अहंकार
श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते है, 'हे अर्जुन! अहंकार, बल और कामना के अधीन होकर प्राणी परमात्मा से ही द्वेष करने लगता है क्योंकि अहंकार उसे जीत लेता है। अहंकारी पुरुष यह भूल जाता है कि परमात्मा स्वयं उसमें ही बसा है। जो परमात्मा के अस्तित्व को नकारते हैं, उनमें भी वही बसा है।' यहां गीता के श्लोक से अहंकार की बात इसलिए शुरू की गई है कि इस महाकाव्य में ऐसी जटिल नकारात्मक भावना का विश्लेषण बडे ही सरल ढंग से किया गया है। हम कई बार यह भूल जाते हैं कि हमारा अहंकार जब दूसरे को पीडा पहुंचाता है तो वह पीडा दरअसल, उस मनुष्य में बसे परमात्मा को भी होती है। अब सवाल यह उठता है कि इससे मुक्ति का मार्ग क्या है? इसका समाधान भी हमें गीता के ही अठारहवें अध्याय में मिल जाता है। वहां श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, 'हे अर्जुन, अपने अहंकार को पूरी तरह ईश्वर को समर्पित कर दो, तुम्हारे समर्पण से, जो कि सिर्फ ध्यान से उत्पन्न होगा, तुम परम शक्ति एवं परमधाम को प्राप्त कर लोगे।' यहां गौर करने वाली बात यह है कि ध्यान अपने हृदय से निकलेगा, उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। अहंकार का त्याग ध्यान से होगा लेकिन एक बात परेशान करने वाली है कि आखिर इस अहंकार का जन्म कैसे हुआ? हम वेद-पुराणों में बार-बार यही सुनते हैं कि इस अहंकार का त्याग करो। महापुरुषों द्वारा भी हमेशा यही बात क्यों दोहराई जाती है कि अहंकार हमें विनाश की तरफ ले जाता है। अहंकार का मनोविज्ञान इसका जवाब हमें मनोविज्ञान में मिलता है कि अहंकार का निर्माण और उसका पोषण तीन स्तरों पर होता है। मनोवैज्ञानिक फ्रायड का मानना है कि अहंकार के तीन स्वरूप होते हैं-इड, ईगो और सुपरईगो। इड मनुष्य में जन्मजात रूप से होता है और यह उसके अवचेतन मन में बसा हो होता है। बाद में हमारा मस्तिष्क इसकी मदद से ही इगो और सुपरइगो के लिए नींव का निर्माण करता है। चूंकि, इड हमारे अवचेतन मन में बसा होता है इसलिए इसके ऊपर वास्तविकता और तर्कों का कोई प्रभाव नहीं पडता। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है कि छोटे बच्चों के मन में जब किसी चीज को पाने की इच्छा जाग उठती है तो वे उसी वक्त उसे हासिल करना चाहते हैं। उनमें स्थितियों और दूसरों की परेशानी समझने की क्षमता नहीं होती। फ्रायड के अनुसार ईगो इड का ही संशोधित स्वरूप है। उम्र के विकास के साथ जब बच्चा बाहरी दुनिया के संपर्क में आता है तो धीरे-धीरे उसमें तर्क-शक्ति और अच्छे-बुरे में फर्क करने की समझ विकसित हो जाती है। ईगो की अवस्था में व्यक्ति अपनी इच्छाएं पूरी करना तो चाहता है पर उन्हें तर्क की कसौटी पर परखने के बाद। फ्रायड ने इड और ईगो को एक सरल उदाहरण से समझाया है। उनका मानना है कि इड घोडा है और ईगो घुडसवार। सवार की यह जिम्मेदारी है कि वह घोडे की शक्ति को वश में रखते हुए उसका सही उपयोग करने के साथ उसकी इच्छा भी पूरी करे लेकिन कई बार इड यानी घोडा, घुडसवार पर भारी पडता है और मुसीबत खडी हो जाती है। अगर इड ईगो के काबू से बाहर हो जाए और कुछ ऐसी हरकतें करने लगे जो समाज में अमान्य हों तब वहीं से सुपरईगो का काम शुरू हो जाता है, जो इंसान के मन को यह समझता है कि हमारे समाज में ऐसा नहीं चल सकता। हालांकि, मनोवैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि सुपरईगो का निर्माण और विकास आमतौर पर बच्चे की परवरिश और परिवार से मिले संस्कारों पर निर्भर करता है। सर्वथा त्याज्य है अहंकार अहंकार की नकारात्मक भावना हर हाल में त्यागने के योग्य है। इसीलिए दर्शन और मनोविज्ञान से जुडे विद्वान इसे सर्वथा गलत बताते हुए समझने के बाद अपनी बुद्धि-विवेक से इस बुरी भावना को त्यागने की सलाह देते हैं लेकिन इसके लिए इंसान को चैतन्य अवस्था में आना होगा। जैसा कि आजकल कहा जाता है कि 'उसने अहंकार की वजह से अपने संबंध खराब कर लिए।' ऐसा तभी होता है, जब व्यक्ति अवचेतन में रहकर कोई निर्णय लेता है। दार्शनिकों का ऐसा मनाना है कि जब अहंकार बलवान हो जाता है, तब वह मनुष्य की चेतना को अंधेरे की परत की तरह घेरने लगता है। यह कुछ ऐसा ही है, जैसे किसी फूल को कांटों ने घेर रखा हो। इसमें फूल खुद को सुरक्षित महसूस करने लगता है। सुरक्षा की यह भावना अहंकार को और भी प्रबल बना देती है। आज की आपाधापी भरी जिंदगी में इंसान को ऐसा लगता है कि उसका अहंकार ही सर्वोपरि है लेकिन हमारे जीवन में प्यार और अहंकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते। प्यार की रोशनी को पाने के लिए अंधकार रूपी अहंकार की परत को तोडऩा ही होगा। ताकत नहीं कमजोरी है यह आजकल लोगों की बातचीत में अकसर हमें यही सुनने को मिलता है कि उस व्यक्ति का ईगो हर्ट हो गया। यह सुनकर बडा ही अजीब लगता है कि किसी व्यक्ति के अहं को इतनी आसानी से चोट कैसे लग सकती है? इस सवाल का एक ही जवाब है कि अहंकार एक कमजोर भावना है, जो कि एक छोटे से धक्के से भी ध्वस्त हो सकती है। अगर हम गीता में दिए गए श्रीकृष्ण के उपदेशों पर गौर करें तो अहंकारी सिर्फ वही नहीं है जो धन, पद, प्रॉपर्टी और बडी गाडिय़ों का संग्रह कर रहा है। अहंकारी तो वह आध्यात्मिक व्यक्ति भी है, जो अपनी अंतर-यात्रा पर चल पडा है लेकिन इस अहंकार के साथ कि मैं ईश्वर को प्राप्त करके रहूंगा। किसी आम सांसारिक व्यक्ति और इस संन्यासी के अहंकार के स्तरों में बहुत ज्य़ादा अंतर नहीं है। शायद इसीलिए हमारी सारी धार्मिक पुस्तकें अहंकार से मुक्ति की बात करती हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि व्यक्ति को साक्षी भाव से देखने की जरूरत है। मेरा अहंकार क्या है? इस पर ध्यान देने की जरूरत है। जब आप एक प्याज को छीलते हैं तो पाते हैं कि पूरे का पूरे प्याज में सिर्फ छिलका ही होता है, जो परत-दर-परत खुलता जाता है। वैसे ही जब आप अपने अहंकार को छीलना शुरू कर देते हैं तो उसकी सारी परतें खुल जाती हैं और, कुछ भी नहीं बचता। जब घमंड चला गया तब सिर्फ ईश्वर ही रह जाता है। अहंकार का यह रोग बाहर की आंखों से नहीं, अपितु अंतर्मन की आंखों से दिखाई पडेगा। चाहे रावण हो या सिकंदर, अहंकार के इस रोग ने दोनों को जकड कर रखा था। अंतत: उनके अहंकार की परिणति मृत्यु के रूप में हुई। अत: हमारे लिए अपने सचेत प्रयास से अहंकार की निरर्थकता को समझते हुए उसे त्यागना बहुत जरूरी है। त्याग करने से पहले उसकी निरर्थकता को समझना होगा। जब व्यक्ति का अहंकार दूर हो जाता है तो वह अपने सुविचारों के साथ आत्मा की गहराइयों की यात्रा पर निकल पडता है और वही अनंत शांति का मार्ग है।

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