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देवत्व

कई बार छोटी-छोटी घटनाएं कुछ सिखा जाती हैं। कहानी के नायक ने अपने प्यार को पाने के लिए बड़ी हिम्मत जुटाई मगर क्या वह अपनी महानता के साथ न्याय कर सका?

By Edited By: Published: Fri, 14 Oct 2016 12:17 PM (IST)Updated: Fri, 14 Oct 2016 12:17 PM (IST)
देवत्व
आज मेरा फिर उससे झगडा हो गया था। मेरे लिए बात मामूली थी पर अल्पना के लिए नहीं। हमारी शादी की पांचवीं सालगिरह थी। हमने कुछ दोस्तों को पार्टी दी थी। वे घर के पास ही रहते थे, हालांकि दिल के पास भी हों, ऐसा नहीं था। कुल मिला कर यह एक रस्म अदायगी थी। पार्टी में अल्पना मेरे कुछ दोस्तों से ज्य़ादा ही घुल-मिल कर बात कर रही थी। यह मुझे गवारा न था क्योंकि इन दोस्तों की रग-रग से मैं वाकिफ था। सहा न गया तो मैंने बहाने से अल्पना को बुलाया और अलग ले जाकर धीरे से बोला, 'अपने व्यवहार पर थोडा कंट्रोल रखो यार, बात का अफसाना बनते देर नहीं लगती....। कल को कुछ हो गया और लोग बातें बनाने लगे तो? कुछ तो सीखो अपनी गलतियों से...,' इतना सुनते ही अल्पना भडक उठी, 'विनीत, तुमने मुझसे शादी करके बडा नेक काम किया है। तुम देवता हो लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मेरी भावनाओं की कद्र भी न कर सको।' पार्टी खत्म हो चुकी थी। घर का कामकाज समेट कर हम बेडरूम में आ गए। अल्पना शायद सो गई थी मगर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मन उस घटनाक्रम को याद करने लगा, जहां से कहानी शुरू हुई थी...। ...तब मैं एमएससी अंतिम वर्ष का छात्र था। घर में सबसे छोटा और पढाई में औसत से अच्छा। बडे भाई और दीदी अपनी घर-गृहस्थी में सुखी थे। मैं उम्र के उस दौर में था, जहां पढाई और प्रेम संबंधों के बीच किसी एक को प्राथमिकता देना मुश्किल होता है। यह भी पता नहीं होता कि आखिर जिंदगी से हमें क्या चाहिए। मैं भी उधेडबुन में रहता था। भविष्य अनदेखा सा था, क्या करूंगा, कुछ भी मालूम न था। जिंदगी उतार-चढावों से गुजर रही थी कि हमारी कॉलोनी में मिस्टर जोसफ का परिवार किराये पर रहने आया। वे लोग मेरे घर के ठीक सामने रहते थे। उस परिवार में सिर्फ तीन लोग थे। पति-पत्नी और उनकी इकलौती बेटी अल्पना, जो ग्रेजुएशन कर रही थी। वह बेहद खूबसूरत थी। उसके बात करने का अंदाज निराला था। शब्दों में इस तरह चाशनी घुली होती कि मन करता उसे सुनते ही जाएं। बीच-बीच में अंग्रेजी के दो-चार शब्द जरूर बोलती, जिससे बातचीत का स्टाइल और प्रभावशाली हो जाता। कुल मिला कर उसके व्यक्तित्व में बहुत कुछ ऐसा था, जो लोगों को उसकी ओर आकर्षित कर सके। वे सर्दियों के दिन थे। धूप सेंकने मैं छत पर जाता तो सामने वाले घर में चहलकदमी करती अल्पना दिखती। कई बार वह भी छत पर होती तो मेरा भाग्य खुल जाता। मेरे हाथ में किताब तो होती थी लेकिन उसकी ओट से मैं अल्पना को ही देखता रहता। उसका चलना, बैठना, नजरें घुमाना...एक-एक क्रिया मुझे लुभाती। उसके गोरे हाथ, बडी सी पलकें...मैं सोचता, सुंदर लडकियों की हर चीज इतनी सुंदर कैसे होती है! मैं अल्पना की हर अदा का दीवाना था। धीरे-धीरे मेरी दीवानगी एकतरफा प्यार में कब बदली, मैं जान भी न सका। वैसे इस उम्र में प्यार का एहसास कोई नई बात नहीं है। इससे पहले भी मेरा दिल कई बार धडका था मगर इस बार कुछ ज्य़ादा ही तेज धडक रहा था। यह सब मेरे लिए किताब के नए अध्याय की तरह था, जिसे पढऩे से पहले घबराहट, उत्साह, बेचैनी....सब होता है। ...अब गाहे-बगाहे अल्पना मुझसे बातें करने लगी थी। हमारे बीच बातचीत का कॉमन विषय था विज्ञान क्योंकि हम दोनों साइंस बैकग्राउंड के थे पर उसमें मुझे उस आत्मीयता की झलक नहीं मिलती थी, जिसकी मुझे तलाश थी। वह सामान्य दोस्त की तरह बात करती। मैं था कि हर हाव-भाव उसके प्रति आकर्षण से भरा नजर आता था। अल्पना इससे अनजान थी या जान-बूझ कर अनजान दिखती थी, मैं नहीं जानता। वक्त बीतता चला जा रहा था मगर मेरी चाहत में कोई कमी नहीं आई। मैं फाइनल परीक्षा की तैयारियों में जुटा था। एक अलग सी जिद थी खुद को साबित करने की। मुझे लगता था, यही एक बात है, जिससे मैं अपनी कीमत उसे बता सकता हूं। कई बार हम दूसरों के लिए खुद को साबित करने में लगे रहते हैं, हालांकि इसका कोई मतलब नहीं होता। यहां तक कि जिनका हमारी जिंदगी से कोई मतलब नहीं होता, हम उनके सामने भी खुद को साबित करना चाहते हैं। फिर एक दिन वह हुआ, जिसका डर मुझे शायद सबसे बुरे सपने में भी नहीं आया था। अल्पना घर से गायब थी। उडती सी खबर सुनी कि वह अपने कथित प्रेमी के साथ घर से भाग गई है, क्योंकि घर वाले उसके रिश्ते पर अपनी मुहर नहीं लगा रहे थे। पूरी कॉलोनी में यह चर्चा आम थी। एक मैं ही था अकेला, नि:शब्द, निष्प्राण...। मैं न तो किसी से कुछ पूछने की हिम्मत कर पाता और न किसी को कुछ बता पाता। फिर पता चला कि चार दिन बाद वह खुद घर लौट आई। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई, जिसमें उसके कथित प्रेमी और उसके दोस्तों पर दुष्कर्म का आरोप लगाया गया था। फिर वही हुआ, जैसा फिल्मों में दिखाया जाता है। कोर्ट ने घिनौने सवाल पूछे, माता-पिता का मान-सम्मान खो गया। एक स्त्री के लिए दुष्कर्म से भी भयावह शायद कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटना होता हो। कुछ समय बाद ही आरोपी छूट भी गए। इस घटना के बाद से अल्पना गुमसुम हो गई। वह मुझसे भी बात नहीं करती थी। रिश्तेदारों ने भी उसके परिवार से नाता तोड लिया था। यहां तक कि उसके माता-पिता भी उसके प्रति निरपेक्ष हो गए। इन्हीं सारे घटनाक्रम के बीच एक अच्छी बात यह हुई कि मैंने एमएससी में टॉप किया और मुझे गोल्ड मेडल मिला था। इसके कुछ समय बाद ही लखनऊ के ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट में मुझे जॉब मिल गई। वीकेंड पर घर आता तो उदास अल्पना दिखती। मैं उसकी उदासी से टूट जाता। फिर एक दिन मैंने बडा फैसला लिया। मेरे घर वाले इसे कभी न मानते। मैं अल्पना के घर गया और उसके माता-पिता से उसका हाथ मांग लिया। उन्होंने मुझसे इतना ही पूछा, 'सब कुछ जानने के बाद भी तुम उससे शादी करना चाहते हो?' 'जी अंकल! मुझे अल्पना के वर्तमान से मतलब है। अतीत में क्या हुआ है, इसे जानने में मेरी कोई रुचि नहीं। मैं आज की अल्पना को जीवनसाथी बनाना चाहता हूं...,' मैंने उसके पिता से कहा। अल्पना की मौन स्वीकृति भी मुझे मिल गई मगर जो नहीं मिला, वह था मेरे घर वालों का आशीर्वाद और हमें कोर्ट मैरिज करनी पडी। गवाह के तौर पर सिर्फ चंद मित्र थे। ऐसे मौकों पर ही दोस्ती की परख होती है। शादी के बाद मेरे घरवालों ने उसे स्वीकार कर लिया। मैं वीकेंड पर घर आता तो वह बेसब्री से मेरा इंतजार करती मिलती। हम दीन-दुनिया से बेखबर भविष्य की कल्पनाओं में खो जाते। मेरे परिवार ने उसे बाहरी तौर पर तो बहू मान लिया था मगर उनके व्यंग्य-बाण उसे छलनी करते रहते थे। उसकी सहनशक्ति कम हो गई तो कुछ ही महीने बाद मैं उसे अपने साथ लखनऊ ले आया। इस तरह वक्त गुजरता रहा। आज शादी का पांचवां साल था। ...मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा हूं मगर नींद आंखों से कोसों दूर है। सोच रहा हूं, आखिर अल्पना ने एक देवता से क्यों शादी की? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं ही देवता बन कर उस पर उपकार करना चाहता था? मुझे अपने देवत्य से नफरत थी और यह तब और बढ जाती थी, जब अल्पना मुझे इसका एहसास दिलाती थी। यह बात मुझे इंसान में तब्दील नहीं होने देती थी। विचारों की आंधी सी दिमाग में चल रही है। मेरे तकिये का एक कोना गीला हो चुका है। जानता हूं, मेरी बगल में लेटी अल्पना भी बंद आंखों में जाग रही है। मैं सोच रहा हूं कि कल सुबह अपने इस देवत्व के साथ उससे आंखें कैसे मिलाऊंगा? अपनी मासूम चाहत को कैसे मनाऊंगा? तकिये का गीलापन मेरे कंधे तक पहुंच चुका है...। मालूम नहीं, ये आंसुओं का खारापन है या मन का गीलापन....मगर काफी देर की उधेडबुन के बाद धीरे-धीरे दिमाग से एक बोझ सा उतरने लगा है। मुझे अपने भीतर मजबूती का एहसास हो रहा है। ऐसा लग रहा है, मानो मेरे दिमाग ने देवता का चोगा उतार फेंका है और अब मैं इंसान बनने की तरफ बढ रहा हूं। मेरा दिल रो रहा है और बांहें कसमसा रही हैं....। एकाएक मेरी बांहें फैल गईं और मेरी चाहत उसमें समा गई। कहानी के बारे में : कई बार छोटी-छोटी घटनाएं कुछ सिखा जाती हैं। कहानी के नायक ने अपने प्यार को पाने के लिए बडी हिम्मत जुटाई मगर क्या वह अपनी महानता के साथ न्याय कर सका? क्या नायिका उसे समझ सकी? रिश्तों में त्याग और बलिदान की अहमियत को समझने की एक कोशिश है यह कहानी। लेखक के बारे में : वाराणसी (उप्र) में जन्म, काशी हिंदू विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट के बाद चार साल तक यूएस के विस्कॉन्सिन मेडिकल कॉलेज में शोध, हिंदी साहित्य में गहरी रुचि, समय-समय पर लेखन। सखी में यह पहली कहानी। संप्रति : गुडग़ांव (हरियाणा) की एक कंपनी में वैज्ञानिक पद पर।

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