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ये कहां आ गए..

पढ़ाई किसी और दिशा में की, पेशा कुछ और अपना लिया या फिर देश में पढ़-लिख कर सेवाएं देने विदेश चल दिए.. ये दोनों ही स्थितियां अब पलायन के रूप में देखी जाने लगी हैं। इस स्थिति के कारणों के साथ-साथ समस्या का समाधान तलाश रहे हैं इष्ट देव सांकृत्यायन।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)
ये कहां आ गए..

पहले चार साल इंजीनियरिंग में लगाया और अब जनाब चल रहे हैं फिल्म निर्माण में डिप्लोमा करने..

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युवा वर्ग में विचलन की यह प्रवृत्ति अब केवल पेरेंट्स ही नहीं, सरकार और पूरे देश के लिए समस्या बन चुकी है। बिलकुल वैसे ही, जैसे पिछले दो-तीन दशकों से भारत से विदेशों की ओर हो रहा प्रतिभा पलायन। जानकार लोग इसे भी एक तरह के प्रतिभा पलायन के रूप में देखते हैं। ऐसी स्थिति में जबकि हमारी उच्च शिक्षित प्रतिभाओं का भारत से विकसित देशों की ओर हो रहा पलायन पहले से ही एक समस्या बना हुआ है, यह प्रवृत्ति एक और समस्या के रूप में उभर रही है। विदेशों की ओर हो रहे प्रतिभा पलायन का अभी तक कोई ठोस समाधान निकाला नहीं जा सका है और दूसरी तरफ यह एक और समस्या खडी हो रही है। केवल विदेशों की ओर हो रहे प्रतिभा पलायन के संदर्भ में एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार भारत से बडी संख्या में युवाओं के पलायन के चलते देश को हर साल 95,000 करोड रुपये की चपत लग रही है। यह वह रकम है जो हमारा देश तकनीकी विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में युवाओं को दक्ष बनाने के लिए उनकी शिक्षा पर खर्च करता है। यह खर्च भारत करता है और इसका लाभ दूसरे विकसित देश उठाते हैं।

डिग्री का उपयोग नहीं

प्रश्न यह है कि क्या वही बात उस स्थिति में लागू नहीं होती, जब एक युवा हमारे देश में तकनीकी विशेषज्ञता हासिल करके यहीं रह जाता है, लेकिन उसकी विशेषज्ञता का कोई लाभ देश को नहीं मिल पाता? ऐसे युवाओं की यहां कमी नहीं है, जिन्होंने पहले तो देश के अत्यंत प्रतिष्ठित संस्थानों से इंजीनियरिंग, मेडिकल साइंस या फिर प्रबंधन की डिग्री हासिल की और बाद में करने कुछ और लगे। ऐसे कई लोग आज सिनेमा से लेकर बैंकिंग, मार्केटिंग और साहित्य तक की दुनिया में हैं। प्रशासनिक सेवाओं में तो अब ऐसे लोगों का दखल बहस का विषय बन गया है। हालांकि वहां सामान्यतज्ञ बनाम विशेषज्ञ की बहस पहले से ही चल रही है।

हाल ही में जब प्रशासनिक सेवाओं के लिए सीसैट को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे, तब यह मसला भी नए सिरे से उठा और उन्हीं दिनों सामने आए आंकडों में यह बात भी उठी कि इससे आइएएस में इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि वाले युवाओं का दखल बढा है, जबकि ह्यूमैनिटीज के छात्रों का प्रतिशत इन सेवाओं में बहुत कम हो गया है। पिछले केवल छह साल में ही यह अंतर चौंकाने वाला है। सन 2006 में जहां इंजीनियरिंग की पढाई कर आइएएस में चुने गए युवाओं की भागीदारी 29.89 प्रतिशत थी, वहीं 2011 में यह 50 प्रतिशत हो गई। दूसरी तरफ ह्यूमैनिटीज की पढाई करके इसमें आने वालों का प्रतिशत 2006 के 28.86 से घटकर 2011 में केवल 15.28 रह गया। हालांकि यह प्रश्न बार-बार उठता रहा है कि जहां सारा कामकाज सामान्यज्ञों से चलाया जाता रहा है, वहां विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में प्रशिक्षित लोगों का क्या काम। इस संदर्भ में कुछ लोग तर्क यह भी देते हैं कि सीखी हुई विद्या कभी व्यर्थ नहीं जाती, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या एक इंजीनियर या डॉक्टर बनने के लिए किसी को जो प्रशिक्षण दिया जाता है, प्रशासनिक अधिकारी बन कर वह उसका पूरा लाभ किसी तरह से समाज को दे सकता है? जाहिर है, नहीं। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक और फिलहाल नोएडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के कुलपति विक्रम सिंह कहते हैं, एक इंजीनियर बनाने पर देश के कम से कम एक करोड रुपये खर्च होते हैं और डॉक्टर बनाने पर डेढ करोड। बन जाने के बाद कुछ लोग विदेश चले जाते हैं, तो कुछ आइएएस या पीसीएस में, या फिर किसी और व्यवसाय में। यह सभी एक तरह से पलायन हैं। यह मामला केवल एक-डेढ करोड रुपये और आपके समय एवं श्रम तक ही सीमित नहीं है, आपके साथ-साथ कई और लोगों का समय खर्च होने और अवसर मारे जाने का भी है। आपको पढाने पर शिक्षक का समय खर्च हुआ, शिक्षा और परीक्षा व्यवस्था में धन और समय खर्च हुआ। साथ ही एक ऐसे युवा का अवसर भी मारा गया जो आपकी जगह प्रशिक्षण लेकर देश और समाज की बेहतर सेवा कर सकता था। क्योंकि आपने तो वह किया नहीं, जिस उद्देश्य से आपको प्रशिक्षण देकर तैयार किया गया था। तो इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा?

पलायन अपने हालात से

यही प्रश्न उन लोगों के लिए भी उठाए जाते हैं जो भारत में प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद अपनी सेवाएं देने विदेश चले जाते हैं। कुछ लोग इन दोनों ही स्थितियों को एक तरह का पलायनवाद मानते हैं। पलायन अपनी स्थितियों से और देश व समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से। वहीं कुछ लोग इसे भटकाव मानते हैं। करियर काउंसलर जितिन चावला इसे भारतीय युवाओं द्वारा अपना लक्ष्य तय न कर पाने का नतीजा मानते हैं। इसके मूल में वह पूरे समाज में व्याप्त असुरक्षा की भावना को देखते हैं, यहां अपने भविष्य को लेकर कोई भी सुरक्षित महसूस नहीं करता। अच्छे काम के लिए सम्मान-पुरस्कार न मिले, यहां तक तो लोग बर्दाश्त कर लेते हैं, लेकिन उसे आसानी से स्वीकृति भी नहीं मिलती। तब क्या करें?

सराहना तो दूर, यहां अच्छे काम को मान्यता दिलाना भी आसान काम नहीं है। मौलिक प्रतिभा से संपन्न एक इंजीनियर या डॉक्टर, जो नए शोध करके देश को ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढा सकता है, देखता है कि यहां कदम-कदम पर रोडे हैं। कानून हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं होता। छोटे से छोटे काम के लिए लालफीताशाही के इतने चक्करों से जूझना पडता है कि कुछ लोग तो तंग आकर हार मान लेते हैं। चाहे कोई समाज की व्यापक भलाई के लिए कितना भी महत्वपूर्ण काम क्यों न कर रहा हो, अपने छोटे से छोटे काम के लिए वह देश की नौकरशाही के सामनखुद को असहाय पाता है। तकनीकी दक्षता वाले क्षेत्र छोडकर प्रशासनिक सेवाओं की ओर भाग रहे युवाओं का मन टटोलें तो मालूम होता है कि कुछ की यही हार कुछ के लिए लोभ का कारण बन जाती है। जब उन्हें लगता है कि उनसे कमतर लोग देश का शासन चला रहे हैं और अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए खुद उन्हें भी उनकी ही कृपा पर निर्भर रहना पडता है, क्योंकि उनके हाथ में शासन की सत्ता है, तो उनके लिए अपनी अभिरुचि, अपना शौक और सेवा भावना सब कुछ गौण हो जाता है। फिर इसी आवेग में कुछ लोग सत्ता और उससे मिलने वाली सुख-सुविधाएं हासिल करने की ओर बढ चलते हैं, तो कुछ विदेश का रुख कर लेते हैं।

सत्ता की ताकत ही नहीं

एक बडा वर्ग उनका भी है, जिन्हें सत्ता की ताकत आकर्षित नहीं करती। इनके लिए सुविधाएं और अपने श्रम का अधिकतम प्रतिफल महत्वपूर्ण है। ये विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में काम करने वाले कुशल प्रोफेशनल्स हैं। सन 2010 में यूरोपियन यूनियन द्वारा दूसरे देशों से आए ऐसे लोगों को कुल 40,786 रेजिडेंस परमिट जारी किए गए। इनमें से 12,852 केवल भारतीय थे। भारत छोडकर जाने वालों में केवल उच्च दक्षता प्राप्त प्रोफेशनल्स ही नहीं, शोधकर्ता भी शामिल हैं। इसी अवधि में यूरोपीय संघ द्वारा दूसरे देशों से आए शोधकर्ताओं को जारी किए गए आवासीय परमिटों की कुल संख्या 7,172 थी और इनमें 724 भारतीय थे। हालांकि पिछले दिनों रिवर्स ब्रेन ड्रेन की चर्चा भी रही, लेकिन यह संख्या बहुत मामूली रही। भारत से हो रहे प्रतिभाशाली लोगों के पलायन की तुलना में और उसी संदर्भ से जोड कर देखें तो न तो आंकडे संतोषजनक मिलते हैं और न वजहें ही। सच्चाई यही है कि हम अपनी प्रतिभाएं खो रहे हैं।

खासकर शोध के स्तर पर काम करने वाले लोगों का भारत छोड कर बाहर जाना चिंताजनक है। यह बात सभी कहते हैं और रोकने पर भी बात होती है, लेकिन उन कारणों के निवारण के लिए प्रभावी इंतजाम आज तक कुछ नहीं हुआ।

अध्ययन बताते हैं कि इसकी एक बडी वजह यहां शोध के लिए सुविधाओं का अभाव और बाद में अपेक्षित स्वीकृति का न मिल पाना है। जहां सरकारी संस्थान केवल कामचलाऊ ढंग से काम चलाते रहने के अभ्यस्त हो गए हैं, वहीं निजी क्षेत्र में भी नए प्रयोगों को कोई खास प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। यहां नए से नए शोध निष्कर्ष पर भी तब तक अमल करने से परहेज किया जाता है, जब तक कि उस पर पश्चिम की मुहर न लग जाए। जिम्मेदार लोगों की यह प्रवृत्ति प्रतिभाओं को हतोत्साहित करती है। यह जहां एक तरफ उन्हें विदेश जाने के लिए प्रेरित करती है, वहीं दूसरी तरफ ऐसे क्षेत्रों में जाने के लिए भी प्रवृत्त करती है जो उनकी शिक्षा और रुचि के विपरीत हैं।

आने नहीं देतीं सुविधाएं

विचलन की इस प्रवृत्ति के शिकार केवल शोधार्थी और विशेषज्ञ ही नहीं, छात्र भी हैं। छात्रों में विचलन और विदेश जाने की प्रवृत्ति बढने का एक बडा कारण यहां अनावश्यक रूप से बढती प्रतिस्पर्धा भी है। ऐसी स्थिति में जबकि किसी की प्रतिभा के आकलन के अंतिम मानक प्राप्तांक ही हों और प्रतिष्ठित संस्थानों में कट ऑफ 100 प्रतिशत तक जा रहा हो, अपनी रुचि के क्षेत्र में जगह बनाने के लिए उनके पास और रास्ता ही क्या बचता है? इसका ही नतीजा है जो पिछले वर्षो में विकसित देशों में शिक्षा भारत की तुलना में बहुत महंगी होने के बावजूद बाहर जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या तेजी से बढी है। इस मामले में विश्व स्तर पर चीन के बाद भारत का ही नंबर है। जितिन के अनुसार, एक बार विकसित देशों की सुविधाओं का आदी हो जाने के बाद कोई युवा वहां से लौटना भी नहीं चाहता। एक तो अपने देश में मनचाही शिक्षा न मिल पाने की टीस ही अपने देश के प्रति उसका मोह तोड देती है, ऊपर से वह यह भी महसूस करता है कि जो धन उसकी शिक्षा पर खर्च हुआ है, उसकी भरपाई भारत में मिलने वाली परिलब्धियों से नहीं हो सकेगी। सबसे ज्यादा जो चीज उन्हें आकर्षित करती है, वह है व्यवस्था की साफ-सुथरी कार्यप्रणाली और उसकी पारदर्शिता। शोध-अनुसंधान जैसे कार्यो के लिए वहां लॉबिंग या जी हुजूरी की जरूरत नहीं होती। न ही आपसे वहां किसी नए प्रोजेक्ट के लिए अपने काम का वॉल्यूम दिखाने की अपेक्षा की जाती है। अगर आपका आइडिया उन्हें मौलिक लगे और काम में क्वॉलिटी हो तो ग्रांट या सुविधाओं को लेकर भी समस्या नहीं आती।

व्यापक बदलाव जरूरी

विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों से पलायन की इस प्रवृत्ति को रोकना प्रतिभाशाली लोगों के लिए केवल साधन और सुविधाएं बढा देने से संभव नहीं है। इसके लिए व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन भी जरूरी है। नियम-कानून तो हमारे यहां ढेरों हैं, लेकिन उनके काम करने का ढंग समझना बडे से बडा वैज्ञानिक अनुसंधान करने से भी टेढा काम है। वे कब किसके लिए बेहद कडे हो जाएं और कब किसके लिए निहायत कोमल, कुछ कहा नहीं जा सकता। विक्रम सिंह कहते हैं, इस स्थिति से जितनी जल्दी संभव हो, हमें बाहर आ जाना चाहिए। किसी रिसर्च प्रोजेक्ट की स्वीकृति के लिए आधार खुशामद नहीं, उसकी गुणवत्ता को बनाया जाए और यह सबके लिए पारदर्शी हो। साथ ही, आर्थिक स्तर पर भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि प्रतिभाशाली लोग सामाजिक हैसियत के मामले में अपने को किसी से कमतर महसूस न करें। व्यवस्था की कार्यप्रणाली में जरूरी बदलाव किए जा सकें तो प्रतिभाओं के इस विचलन को रोकना बहुत मुश्किल नहीं है। इससे न केवल देश और समाज को लाभ मिलेगा, बल्कि राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी भी रुकेगी। करती हूं गणित का उपयोग प्रियंका चोपडा निश्चित रूप से पढाई-लिखाई का जीवन में एक फायदा होता है। मैं गणित में बहुत अच्छी थी। उच्च शिक्षा के लिए जाती तो उसी से संबंधित कोई पढाई करती। जीवन में कुछ ऐसा हुआ कि मैं फिल्मों में आ गई। अभी इस पेशे में भी गणित के ज्ञान और सोच का मैं पूरा इस्तेमाल करती हूं। मैं पूरे दिन गणित-गणित तो नहीं करती, लेकिन अपने सारे कामों में गणित का उपयोग करती हूं। गणित के साथ विज्ञान, हिंदी और अंग्रेजी में भी मैं अच्छी थी। आज उन सभी से मुझे फायदा होता है। हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाएं अच्छी बोलती हूं। सोच मेरी वैज्ञानिक है और शूटिंग शेड्यूल से लेकर अपने आय-व्यय के हिसाब तक को जल्दी समझ लेती हूं। इन दिनों फिल्मों में काम करना सिर्फ एक्टिंग और डांसिंग नहीं है। हमें इतने सारे संतुलन बना कर चलने पडते हैं। उस संतुलन को बनाए रखने में गणित और विज्ञान बहुत मदद करते हैं। मैं तो यही कहूंगी कि मैंने जितनी या जो भी पढाई की, उसका लाभ इस प्रोफेशन में उठा रही हूं।

हर जगह अर्थशास्त्र का इस्तेमाल शाहरुख खान मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के हंसराज कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक की पढाई पूरी की। मैं मन बना चुका था कि अदाकारी में ही उम्दा काम करना है तो बैरी जॉन से उसके गुर सीखे। फिर जामिया मिलिया के मास कम्युनिकेशन कोर्स में दाखिला लिया। मेरे खयाल से अर्थशास्त्र की बारीकियां फिल्मों को लेकर बिजनेस की समझ बढाने तक में सहायक साबित हुई। अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों का इस्तेमाल मैं अपनी फिल्मों की मार्केटिंग में करता रहा हूं। मेरे दिमाग में एनआरआइ मार्केट का आइडिया भी कौंधा। फिर करण जौहर के संग वहां की ऑडिएंस को भी हमने भुनाना शुरू किया।

समझती हूं किरदारों का मनोविज्ञान

विद्या बालन

मैंने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से समाजशास्त्र में एमए किया। उससे मुझे किरदारों का मनोविज्ञान समझने में आसानी होती है। मेरा एक स्ट्रॉन्ग इनसाइट डेवलप हुआ, जो मेरे काफी काम आता है। वैसे भी आप पढाई किसी भी स्ट्रीम में करें और पेशा कोई भी हो, वह किसी न किसी हद तक काम आता ही है।

मालूम होना चाहिए अपना रुझान इमरान हाशमी मेरा मानना है कि परिजनों के संग-संग विद्यार्थियों को भी बहुत जल्द अपनी दिलचस्पी पता लग जानी चाहिए। मैं जब अतीत के पन्नों को पलटता हूं तो मुझे एहसास होता है कि मुझे इंटरमीडिएट के बाद ही अदाकारी या फिर किसी डायरेक्टर को असिस्ट करना शुरू कर देना चाहिए था। अकादमिक तौर पर भी सशक्त मौजूदगी के लिए जरूरी है कि दसवीं के दौरान ही ओलंपियाड या उस स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया जाए। पढाई को हल्के या बेपरवाही में लेने के चलते आगे कन्फ्यूजन की स्थिति पनपती है। बच्चों के संग-संग परिजनों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चे की दिलचस्पी को गंभीरता से लें। कोशिश यह होनी चाहिए कि जिस फील्ड में बच्चे करियर बनाना चाहते हैं और वे वाकई बेसिक अर्हता पूरी करते हैं, उन्हें उसी ओर भेजें। संसाधनों की कमी है तो क्रमिक तौर पर पसंदीदा फील्ड में आएं। मैंने कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया था। वह अदाकारी में बहुत ज्यादा काम तो नहीं आ रही, मगर सिनेमा के कॉमर्स से मैं पूरी तरह वाकिफ हुआ। दिमाग के दरवाजे पूरी तरह खुले रहते हैं कि कमर्शियल फिल्में क्या हैं और उन्हें करते वक्त किन चीजों की सावधानी बरतनी चाहिए।

सीधा अदाकारी ही करने लगी

करीना कपूर

मेरा बचपन से रुझान फिल्मों में था। मैं अदाकारी ही करना चाहती थी। लिहाजा मैं हायर स्टडीज के लिए कहीं बाहर नहीं गई। मैं बेसिक पढाई पूरी कर सीधा ग्लैमर जगत में आ गई। मैं ऑन द जॉब ट्रेनिंग की खूबिया ं गिना सकती हूं, पर चूंकि किसी प्रोफेशनल कोर्स का हिस्सा नहीं रही तो यह कह पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है कि पढाई किसी स्ट्रीम और जॉब किसी और फील्ड में करने की क्या खूबी-खामी है।

लेखन में काम आई पढाई

चेतन भगत

आम युवकों को लगता है कि आइआइटी व आइआइएम से निकले लोगों को जिंदगी और करियर में किसी किस्म की दिक्कत नहीं होती। वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। वहां भी सुसाइड होते हैं। अभ्यर्थियों की महत्वाकांक्षाएं होती हैं। उनमें भी इमोशन होता है। उनकी सोच उन्हें किन मायनों में अलग बनाती है, वह अगर मैं वहां का छात्र नहीं होता तो शायद कभी न जान पाता। मेरे खयाल से थ्री इडियट्स व काई पो चे के जरिये युवा मन को बारीकी से टटोलने और उनकी समस्याओं को यथोचित हल देने में मैं कामयाब इसलिए ही हुआ, क्योंकि वहां की पढाई मेरे काम आई।

अर्हताओं में हासिल करें महारत अनुष्का आज की तेज भागती जिंदगी में बहुत अहम है कि आप जिस फील्ड में करियर बनाना चाहते हैं, उसके लिए जरूरी अर्हताओं को पूरा करें। जिन अर्हताओं की वहां मांग है, उनमें महारत हासिल करें। मैं अपना उदाहरण देना चाहूंगी कि मुझे ग्लैमर जगत में आना था तो मैंने अपने दोस्तों की तरह साइंस या कॉमर्स के बजाय आ‌र्ट्स में ग्रेजुएशन किया। फिर बिना वक्त बर्बाद किए मुंबई आ गई मॉडलिंग करने। रैंप से फिल्म इंडस्ट्री तक का सफर मैंने जल्दी तय कर लिया। जब मुझे बताया गया था कि मैं रब ने बना दी जोडी में हूं, उसके एक महीने पहले ही मैंने दिल्ली फैशन वीक में पार्टिसिपेट किया था। इस तरह दिल्ली फैशन वीक के एक महीने बाद ही मुझे फिल्म में साइन कर लिया गया। मैंने ज्यादातर रैंप मॉडलिंग ही की है। इसलिए कैमरा एंगल से मैं ज्यादा वाकिफ नहीं थी। मुझे खुद को तैयार करना पडा। मैंने डांस ट्रेनिंग ली श्यामक डावर से। उनकी कोरियोग्राफी में ही मैंने डांस किया। जिम भी रेगुलर जाने लगी थी, खुद को टफ बनाने के लिए। स्क्रिप्ट रीडिंग भी मैंने की। इस तरह मैंने धीरे-धीरे इस फील्ड के लिए अपने को तैयार कर लिया।

इंटरव्यू : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज एवं अमित कर्ण


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