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..तो कब सेटल हो रही हो

शादी या सिंगल स्टेटस जैसे उलझाने वाले सवालों से जूझ रही है यह पीढ़ी। कभी करियर की भागदौड़ तो कभी अपनी शर्तो पर जीने की चाह शादी की उम्र को आगे खिसकाती जाती है, जबकि एक्सपायरी डेट के बाद मैरिज मार्केट के दरवाजे बंद होने लगते हैं। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में सिंगल स्टेटस एक टैबू है। इससे जुड़े कई पहलुओं को समझने की कोशिश कर रही हैं इंदिरा राठौर।

By Edited By: Published: Sat, 02 Aug 2014 11:34 AM (IST)Updated: Sat, 02 Aug 2014 11:34 AM (IST)
..तो कब सेटल हो रही हो

सिंगल हो? किराये के फ्लैट में अकेली रहती हो? उम्र क्या है? कोई पसंद नहीं आया अब तक या फिर कोई है जिंदगी में..?

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जो भी मिलता है, सवालों की झडी लगा देता है। 25 की उम्र पार हुई नहीं कि माता-पिता, बुआ, चाची, मौसी से लेकर पडोस की आंटी तक शादी की फिक्र में घुलने लगती हैं। और फिर शुरू हो जाती हैं मुफ्त की सलाहें, नसीहतें और हिदायतें। ऑफिस में जरा सी देर हो जाए तो खुर्राट लैंडलेडी ऊपर से नीचे तक सूंघती हैं मुझे, गोया ऑफिस से नहीं, ब्वॉय फ्रेंड के साथ डेट से लौट रही हूं। न फ्रेंड्स को घर बुला सकती हूं, न देर रात तक जाग सकती हूं..। आंटी अकसर पूछती हैं कि क्या मम्मी-डैडी मेरे लिए लडका नहीं ढूंढ रहे हैं? अकेले रह कर नौकरी कर रही हूं, उन्हें फिक्र होती होगी। सोचती हूं, उन्हें तीखा जवाब दे दूं कि आंटी सारी फिक्र तो आपने ले ली। मगर क्या करूं, आसानी से पीजी भी नहीं मिलते..।

लखनऊ की 27 वर्षीय रुचिता आक्रोश में बोलती हैं। आंटी उनके आने-जाने, सोने-जागने, खाने-पहनने तक पर नजर रखती हैं। गाहे-बगाहे कमरे में आ धमकती हैं।

मैथ्स के जटिल पजल्स चुटकियों में हल कर लेती थी मैं, मगर शादी का पजल मुझसे हल नहीं होता.., कहती हैं 30 साल की मधु, जो एम टेक के बाद एक आइटी कंपनी में प्रोजेक्ट लीडर हैं। मधु कहती हैं, सपनों का राजकुमार तो हर लडकी को मिल नहीं सकता। आम भारतीय शादियां तो चाचा, बुआ या फूफी के ही जरिये तय होती हैं। लव मैरिज करना चाहो तो वैसे ही पापड बेलने पडते हैं, जैसे चेतन भगत की टू स्टेट्स में देखने को मिलते हैं। मैं कहती हूं, अरे यार, लडकी से भी तो पूछ लो कि उसे किससे शादी करनी है और कैसे करनी है। करनी है भी कि नहीं..मगर हमारे समाज में तो लडकी के सिवा बाकी सबको फिक्र होती है उसकी शादी की। मैं घर से दूर रहती हूं। मच्योर हूं, जिम्मेदारी वाले पद पर काम कर रही हूं, अपना भला-बुरा समझती हूं। पुराने जमाने की तरह चाय की ट्रे के साथ लडके वालों के सामने सिर झुका कर हाजिर होना मेरे लिए नामुमकिन है। हां, कोई समझने वाला व्यक्ति मिला तो शादी भी कर लूंगी, फिलहाल तो कोई मिला नहीं..।

शादी का टिपिकल फॉम्र्युला

भारत में आज भी अरेंज्ड मैरिज का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। माता-पिता लडकी के लिए लडका ढूंढते हैं। लडका-लडकी एक-दूसरे को पसंद कर लें तो कोर्टशिप के बाद शादी हो जाती है। मैट्रिमोनियल साइट्स या अखबारों में शादी के विज्ञापनों पर नजर डालें तो कुछ खास शब्द आज भी दिखाई पडते हैं, घरेलू, परिवार के लिए सोचने वाली, सुंदर-सुशील..। इक्कीसवीं सदी के भारत में टेक्नोलॉजी, जीवनशैली और मान्यताएं बहुत तेजी से बदलीं, लेकिन शादी के बारे में अभी भी वही पुराना ढर्रा चला आ रहा है। हर परिवार बेटी को उच्च-शिक्षा देकर आत्मनिर्भर बनाना चाहता है और उसके लिए ऐसा सुयोग्य वर चाहता है, जिसकी जिम्मेदारियां कम हों। लेकिन यही परिवार बहू से अपेक्षा करता है कि वह आते ही घर की सारी जिम्मेदारियां उठा ले। भारतीय स्त्री आज भी बेटी, पत्नी, मां और बहू पहले है, करियर वुमन बाद में।

..मुझे नहीं लगता, ऐसे समाज में मुझे कोई मिस्टर राइट मिलेगा। मैं स्पिंस्टर (अविवाहित) ही ठीक हूं.., कहती हैं रिचा तिवारी, जो 32 की उम्र पार करने वाली हैं और मैरिज मार्केट के लिए खुद को ओवरएज मानती हैं। मेडिकल प्रोफेशन से जुडी रिचा छोटे शहर से निकल कर दिल्ली में पिछले छह वर्षो से करियर बनाने-बढाने में जुटी हैं। बोल्ड हैं और अपनी आजादी की कीमत पर कोई रिश्ता बनाने के पक्ष में नहीं हैं। कुछ गुस्से, आक्रोश मगर स्पष्टता से वह अपनी बात रखती हैं, ऐसा नहीं है कि मैं शादी से भाग रही हूं, लेकिन मैं परिवार की परंपरागत परिभाषा में खुद को फिट नहीं पाती हूं। इन्हीं सवालों को लेकर एक रिश्ता कुछ वर्ष पहले टूट गया। मैं अपने कलीग को पसंद करती थी। हम शादी करना चाहते थे और मेरे घर वालों को कोई एतराज भी नहीं था। लेकिन आडे आई टिपिकल पुरुष मानसिकता। जब उसे लगा कि मैं इमोशनली उससे अटैच्ड हो गई हूं तो उसने मुझे कंट्रोल करना शुरू कर दिया। उसे मेरा रहन-सहन, खानपान, आदतें, स्वभाव व व्यवहार बुरा लगने लगा। मैं क्या पहनूं, कैसे रहूं, कैसे लोगों से घुलूं-मिलूं.. वह हरेक बात पर मुझे टोकने लगा। एकाध बार उसने यहां तक कहा कि मैं उसके टाइप की लडकी ही नहीं हूं। कभी कहता कि मुझे उसके परिवार के हिसाब से ढलने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि उसके परिवार को एक होमली बहू चाहिए। मुझे जींस-टी शर्ट के बजाय साडी या सलवार-सूट पहनना चाहिए। तंग आकर मैंने उससे अलग होने का फैसला ले लिया। हालांकि उसने मुझसे माफी मांगी और कहा कि मैं जैसी भी हूं, उसी तरह रहूं। लेकिन मुझे लगा कि एक बार मन में खटका हो जाए तो भविष्य में शायद मैं रिश्ते का सम्मान नहीं कर पाऊंगी। मैंने उससे संबंध तोड लिए और जॉब चेंज कर ली। आसान नहीं था, लेकिन पूरी जिंदगी झेलने से अच्छा है, एक-दो साल का दर्द झेलना।

शादी बैरियर भी है

दिल्ली की मनोवैज्ञानिक अनुजा कपूर कहती हैं, हम खुशहाल दांपत्य की बात करते हैं। लेकिन क्या ऊपरी तौर पर अच्छे दिखने वाले रिश्ते उतने ही अच्छे हैं, जितने वे बाहर से दिखते हैं? सच तो यह है कि शादी कहीं न कहीं अपनी कीमत वसूलती है। अब तो यह पवित्र रिश्ते के बजाय एक कॉन्ट्रैक्ट बन चुकी है। लडकियों के सामने भी कई विकल्प खुल गए हैं। वे पढी-लिखी हैं, आत्मनिर्भर हैं। शादी न चली तो जीवन भर झेलने के बजाय अलग राह चुनना पसंद करती हैं। शादी में भावनात्मक लगाव कम हो रहा है। समस्या यह है कि शादी और इससे जुडी जिम्मेदारियां स्त्रियों पर थोपी गई हैं। आज भी अमूमन शादियों में स्त्री की आजादी छिन जाती है और उसका पर्सनल स्पेस खत्म हो जाता है। घर और उससे जुडी जिम्मेदारियों को स्त्रियों के ही खाते में डाला जाता है। ऐसे में इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लडकियां शादी के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने लगी हैं।

दिल्ली-एनसीआर में रहने वाली प्रियंका विवाहित और दो बच्चों की मां हैं। कहती हैं, परिवार आज भी स्त्रियों की प्राथमिकता है। शादी के बाद अगर कोई अपने सपनों या करियर का त्याग करता है तो वह स्त्री है। मैंने भी किया। अगर कहूं कि अफसोस नहीं है तो गलत होगा। मेरे सामने दूसरा विकल्प भी नहीं था। करियर को चुन कर मैं परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकती थी। कोई भी लडकी शादी को तभी चुनौती दे सकती है, जब उसके पास एक बेहतरीन करियर हो, माता-पिता का 100 प्रतिशत सपोर्ट हो। उसे अपने फैसले पर पूरा यकीन हो, बेखौफ-मजबूत व्यक्तित्व हो और कुछ ऐसे फ्रेंड्स हों जो जिंदगी के हर मोड पर साथ खडे रहें..। तभी कोई लडकी अकेले रहने का निर्णय ले सकती है और उसे एंजॉय भी कर सकती है। हममें से कितनी लडकियों में है यह हिम्मत?

शादी कोई समझौता नहीं

प्रियंका का सवाल शादी या परिवार के ढांचे पर सवाल खडे करता है, साथ ही चिंतित भी करता है। कई बार सिर्फ ओवरएज होने के डर से या सामाजिक दबाव में आकर लडकी शादी कर लेती है। इसके बाद शुरू होता है समझौतों का सिलसिला। बुरी शादी से बाहर निकलना स्त्री के लिए आज भी मुश्किल है।

रूमा अली (काल्पनिक नाम) अपनी नन्ही बेटी के साथ पिछले एक वर्ष से पिता के घर पर हैं। मां नहीं हैं, छोटी बहन की शादी हो चुकी है। रूमा की लेट मैरिज हुई। ससुराल वालों से पटरी नहीं बैठी। पति से अलग होने को कहा तो उसने साफ इंकार कर दिया। कई बार ससुराल आई, मगर हर बार ताने-उलाहने और लडाई-झगडे के बाद वापस मायके चली गई। तलाक जैसा शब्द उन्हें डराता है, क्योंकि वह अकेली नहीं हैं। बेटी का भविष्य भी उन्हें देखना है। नौकरी भी नहीं है कि कोई निर्णय ले सकें। कहती हैं, हमारे समाज में विवाहित लडकी माता-पिता के घर रहे तो हजारों सवाल खडे होते हैं। मेरी तो शादी ही देर से हुई। एडजस्टमेंट की बहुत कोशिश की लेकिन एक सीमा के बाद सहनशक्ति जवाब दे गई। आखिर कोई कितने समझौते कर सकता है? मुझे लगता है कि ओवरएज होने के डर से कभी शादी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा मेरी जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। इससे तो अच्छा था कि शादी ही न करती। उच्च शिक्षित हूं, आत्मनिर्भर होकर अकेली भी सकती थी..।

अनुजा कपूर कहती हैं, अकेली, तलाकशुदा स्त्री आज भी टैबू है समाज में। लडकियों पर कई तरफ से मार पड रही है। एक ओर शिक्षा, नौकरी से मिली आजादी और नई मान्यताएं हैं तो दूसरी ओर पुराने मूल्यों व संस्कारों का दबाव। इन सबके बीच आज की स्त्री घिरी है। अगर वह हाइ प्रोफाइल जॉब में है, उसके पास जीवन जीने के तमाम संसाधन मौजूद हैं तो वह बुरी शादी के बजाय अकेले रहना अफोर्ड कर सकती है।

अभिनेत्री सुष्मिता सेन को देख लें। सिंगल स्टेटस के साथ मां की भूमिका भी निभा रही हैं। स्थिति साफ है। आज की लडकियों के सामने प्राचीन काल के मापदंड नहीं रखे जा सकते। उनकी रीअल हीरो सुष्मिता सेन जैसी अभिनेत्रियां हैं। वे शिक्षित हैं, नौकरी कर रही हैं, अपने फैसले खुद ले रही हैं। माता-पिता भी उनकी परवरिश बेटों की तरह ही कर रहे हैं। लडकियां भी लडकों की तरह संघर्ष करने के बाद करियर बना रही हैं। क्या वे सिर्फ शादी के लिए उस पहचान को खो दें जो उन्हें कठिन परिश्रम और बरसों के इंतजार के बाद मिलती है? आज की लडकी मजबूत है, वह घरेलू हिंसा नहीं झेलती, लडने का हौसला रखती है, भेदभाव नहीं सहन करती। लेकिन अन्याय के खिलाफ बोलने वाली लडकी सबको विद्रोही लगती है। उन्हें लगता है, अरे यह लडकी कैसे इतनी मुखर हो गई? पहले स्त्रियां इसलिए बर्दाश्त करती थीं कि उनके पास विकल्प नहीं था, पर अब वे बर्दाश्त नहीं करतीं। विद्रोह का एक तरीका यह भी है कि शादी ही न करो। शायद इसलिए लडकियों को सिंगल स्टेटस लुभाने लगा है। शादी को लेकर उनके दिमाग में कई भय बिठा दिए गए हैं। अंतहीन समझौते और भारी-भरकम जिम्मेदारियां उन्हें आगे बढने से रोक रही हैं। इसका एक दूसरा पहलू भी है। अरेंज्ड मैरिज जिन आधारों पर तय की जाती हैं, वे आधार ही गलत हैं। सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा, सुंदरता, नौकरी के अलावा पूरे खानदान का इतिहास-भूगोल इस तरह खंगाला जाता है कि यह रिश्ता कॉन्ट्रैक्ट बन जाता है। इसमें इमोशनल अटैच्मेंट के सिवा बाकी सब कुछ होता है। जब शादी तय करने के आधार ही गलत होंगे तो प्रेम व सम्मान कैसे पैदा होगा?

आजादी की मुश्किलें

फैसले लेने और अपनी शर्तो पर जीने की आजादी लडकियों को मिली है, लेकिन माता-पिता की चिंताएं भी बढी हैं। अब वे पहले की तरह दबाव डाल कर उनका घर नहीं बसा सकते। हर माता-पिता अपने बच्चों को व्यवस्थित जिंदगी देना चाहते हैं, वे अपनी बेटी को सेटल होते देखना चाहते हैं।

दिल्ली की जया परेशान हैं, क्योंकि उनकी बेटी शादी का नाम नहीं लेने देती। कहती हैं, अब तक हमने भी जोर नहीं डाला, क्योंकि वह करियर बनाने में व्यस्त थी। मगर अब तो जॉब भी मिल गई। 27 की उम्र पार करने वाली है, मगर हमारी बेटी को शादी के नाम से ही चिढ है। हमने कई बार पूछा कि उसे कोई पसंद हो तो बता दे। इसे भी हंस कर टाल देती है। कहती है कि कोई पसंद आएगा तो बता देगी। अब क्या 40 की उम्र में शादी करेगी? वह तो ऑफिस में बिजी हो जाती है, लेकिन मैं क्या करूं? मुझे आस-पडोस से लेकर रिश्तेदारों तक के सवाल झेलने पडते हैं। मां होने के नाते इतना ही कह सकती हूं कि हर काम अपने वक्त पर सही लगता है। लडकी है, उसकी सुरक्षा की चिंता भी होती है। उम्र बढ जाती है तो लोग पूछने लगते हैं कि शादी क्यों नहीं हो रही है? मेरी सास कहती हैं कि हमने बेटी को ज्यादा छूट दे दी है। इसीलिए वह सिर चढ कर बोलती है। जया की चिंता लाजिमी है। क्योंकि आजाद जिंदगी की अपनी मुश्किलें हैं और उनसे अकेले ही निपटना होता है।

समाजशास्त्री डॉ. रितु सारस्वत कहती हैं, लडकियां शादी से इसलिए भी भाग रही हैं क्योंकि आत्मनिर्भर होने के बावजूद घर के फैसले लेने या खर्च करने का अधिकार उन्हें नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में उन्हें लगता है कि वे कमा रही हैं तो अपनी पहचान के लिए पति पर निर्भर क्यों रहें। इसके अलावा वे अपने आसपास शादियों को टूटते देख रही हैं। अकेले दिल्ली के फेमिली कोर्ट में तलाक के लगभग तीन हजार मामले रोज दर्ज होते हैं। इससे भी लडकियां डर जाती हैं। उन्हें लगता है कि शादी करके अलग होने से अच्छा है कि शादी न करें। दूसरी ओर पेरेंट्स पर सामाजिक दबाव रहता है। अविवाहित बेटी कमा रही है तो समाज कहता है कि बेटी की कमाई खा रहे हैं। शादी न होने पर कहा जाता है कि लडकी में कोई ऐब होगा। इन दबावों के चलते अभिभावक सोचते हैं कि बस एक बार शादी हो जाए तो दबाव खत्म हो जाएंगे। हमारे समाज में शादी को पवित्र संस्था माना जाता है। भले ही शादी बुरी साबित हो, मगर हमारे समाज में विवाहित व्यक्ति का सम्मान होता है। माता-पिता को लगता है कि शादी करके उनकी बेटी सुरक्षित हो जाएगी। इस मामले में 38 वर्षीय सुहासिनी शर्मा के माता-पिता उदाहरण हैं। वे अपनी स्पिंस्टर (अविवाहित) बेटी के साथ कंफर्टेबल हैं। कुछ वर्ष पहले उनके छोटे बेटे की एक्सीडेंट में मौत हो गई। इसके बाद बेटी ने बेटा-बेटी दोनों का फर्ज निभाया। सुहासिनी के पिता रमेश शर्मा कहते हैं, हमें परवाह नहीं है कि लोग क्या कहते हैं। मैं हार्ट पेशेंट हूं। बहुत दौडभाग नहीं कर सकता। पिछले वर्ष पत्नी की किडनी ट्रांस्प्लांट सर्जरी होनी थी। बेटी की शादी या जीवनशैली को लेकर चिंतित होने वाले हमारे सारे रिश्तेदार एक बार हाजिरी देकर चले गए। मेरी बेटी ने ही सारी दौडभाग की। वह प्रोफेशनल है, इसके बावजूद दिन में 3-4 बार फोन पर मां को दवा का टाइम याद दिलाना उसे याद रहता है। हम भी चाहते हैं कि बेटी का घर बसे, लेकिन यह नहीं चाहते कि वह दबाव में आकर शादी करे। वह जो भी करे, अपनी मर्जी से करे..।

मिस्टर राइट नहीं मिला अब तक: साक्षी तंवर

छोटे पर्दे पर आदर्श बहू के ढेरों किरदार निभाए हैं मैंने। मेरी उम्र 41 वर्ष है। काम के सिलसिले में दिल्ली से मुंबई आई तो पहली समस्या घर ढूंढने की थी। कुछ समय तक एक परिचित के घर पर रही, फिर घर की तलाश शुरू हुई। जहां भी जाती, लोग पूछते कि क्या करती हो? मैं कहती कि अभिनेत्री हूं तो कुछ देर बाद जवाब मिलता कि हमारे यहां कमरा खाली नहीं है। अकेली लडकी के लिए किराये का घर ढूंढना आसान नहीं होता। सिंगल रहने का अर्थ लोग आजादी से लगाते हैं। उन्हें लगता है कि अकेली लडकी है तो बहुत ही आजाद होगी, लोगों से मिलती-जुलती होगी। मैंने हमेशा अपने लिए एक सीमा निर्धारित की। जैसे मैं लेट नाइट पार्टीज में नहीं जाती थी। होटल में ब्रेक के नाम पर होने वाली मीटिंग्स में भी नहीं जाती थी। घर और काम मिलने की समस्या हल होने के बाद भी मेरे लिए राहें आसान नहीं थीं। शूटिंग से लेट नाइट लौटती तो बिल्डिंग में वॉचमैन तक मुझे अजीब नजर से देखता था। मगर मैं इस पर ध्यान नहीं देती थी। जहां तक शादी की बात है तो मैं किस्मत को मानती हूं। किस्मत में लिखा होगा तो शादी जरूर होगी। मम्मी को मेरी चिंता हमेशा रही। वह सोचती थीं कि किसी तरह मेरा घर बस जाए। सोचती हूं क्या सिर्फ शादी करके ही लडकी सैटल होती है? उसकी पढाई-लिखाई या काम कोई मायने नहीं रखते? मैं शादी तभी करूंगी जब मुझे मेरा मिस्टर राइट मिलेगा।

पहले नाम-दाम मिले, शादी भी कर लेंगे: सोहा अली खान

शादी बडी पर्सनल चीज है। मैं मानती हूं कि यह एक बडी जिम्मेदारी है। मेरी अम्मा (शर्मिला टैगोर) तो शादी के लिए कह-कह कर थक गई हैं। वह कहती हैं, तुम यंगस्टर्स समझते हो कि तुम्हें अपने बारे में सब कुछ पता है, हमारा कुछ भी कहना फजूल है। तुम लोग करोगे वही, जो तुम्हें करना है..। मां की चिंता अपनी जगह है, मगर अभी मैं अपनी जिम्मेदारी उठाने के काबिल नहीं हूं। फिल्म 1984 में एक बच्चे की मां का रोल निभाया है मैंने, मगर शूटिंग के दौरान बच्चा मेरी गोद में ठहरता तक नहीं था। ऐसे में मैं कैसे मान लूं कि अभी शादी जैसी बडी जिम्मेदारी को उठा सकती हूं। हमारी पीढी शादी के बाद जीवन में कोई झगडा या उलझन नहीं चाहती। इसलिए मैं भी चाहती हूं कि पहले नाम-दाम कमा लूं, इसके बाद ही फेरे लूं..।

टिपिकल शादी में यकीन नहीं: सुष्मिता सेन

मुझे लगता है कि जिंदगी के सबसे बेहतरीन पल आखिर के लिए बचा कर रखने चाहिए। जरूरी नहीं कि समाज के स्थापित नियमों का हर कोई पालन करे। मसलन 18 वर्ष की उम्र तक पढाई करना, 25 साल की उम्र में घर बसा लेना और 27 की उम्र तक बच्चा पैदा कर लेना..। इन टिपिकल बातों में मेरा यकीन नहीं है। हर व्यक्ति का डीएनए अलग है, सोच अलग है। मैं निश्चित तौर पर शादी करूंगी और माशा अल्लाह मेरी शादी बहुत खूबसूरत होगी। फिलहाल तो मैं अपनी बेटियों रैने और अलीशा के साथ सिंगल मॉम का दौर एंजॉय कर रही हूं। उनकी अच्छी परवरिश कर रही हूं। डेटिंग के लिए मेरे पास वक्त नहीं है और मैं जल्दबाजी में भी नहीं हूं। अभी 39 वर्ष की हूं और मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं सिंगल स्टेटस में ही खुश हूं।

सिंगल होने से फर्क क्या पडता है

डॉ. शिखा शर्मा, वेलनेस एक्सपर्ट दिल्ली

शादी न करने की कसम तो नहीं खाई थी मैंने, बस यूं ही टलती गई। मेडिकल की पढाई कर रही थी। एमबीबीएस के बाद पीजी व स्पेशलाइजेशन करने तक उम्र शादी के हिसाब से ज्यादा हो ही जाती है। वैसे भी करियर मेरी प्राथमिकता था। शुरू में शादी के कुछेक प्रस्ताव मिले, लेकिन मैं अपने लाइफ पार्टनर में जो गुण चाहती थी, वैसा कोई नहीं मिला। बात चली तो मैंने साफ कहा कि करियर मेरी प्राथमिकता है। भारतीय परिवारों में लडकी को ही शादी के बाद ज्यादा एडजस्ट करना पडता है। उसे ही करियर का त्याग करना पडता है। शादी में स्त्री 90 प्रतिशत तो पुरुष महज 10 प्रतिशत त्याग करता है। खैर, अब तो इतनी व्यस्त हूं कि शादी के बारे में सोचती भी नहीं। हम भाई-बहन छोटे थे, जब मेरे पिता का देहांत हो गया था। मां और दादी-नानी ने ही हमारी परवरिश की। मैंने हमेशा अपने घर की स्त्रियों को मजबूत स्थिति में देखा। पापा नहीं थे, मां ने ही सारी जिम्मेदारियां निभाई। हमारी परवरिश, पढाई-लिखाई से लेकर घर से जुडी सारी चीजें वह अकेले मैनेज करती थीं। मां ने कभी शादी के लिए मुझ पर दबाव नहीं डाला। अकसर देखा जाता है कि ओवरएज होने के भय से लडकियां शादी कर लेती हैं और फिर उन्हें पछतावा होता है। शादी एक बेहतरीन कंपेनियनशिप है। यह खानापूर्ति नहीं, बल्कि खूबसूरत रिश्ता है, जिसे प्यार एवं सम्मान पर आधारित होना चाहिए। हडबडी में शादी करना गलत है। वैवाहिक रिश्ता तभी अच्छा होगा, जब दोनों को विकास का मौका मिलेगा और दोनों जीवन की चुनौतियों का सामना मिल कर करेंगे। शादी से मुझे एतराज नहीं है, रिश्तों के तोल-मोल से है। परंपरागत भारतीय शादियों में तो लडकी के साथ पूरे खानदान का तोल-मोल होता है।

यह पर्सनल मैटर है, देश की समस्या नहीं

एकता कपूर, टीवी-फिल्म प्रोड्यूसर

मेरी शादी को लेकर अकसर सवाल पूछे जाते हैं। अरे यार, लोगों को इससे क्या मतलब है कि मैं शादी करूं या नहीं? वे मेरे माता-पिता हैं? रिश्तेदार हैं? लडकी 24-25 की हुई नहीं कि उसकी शादी की चिंता घर से ज्यादा बाहर के लोगों को सताने लगती है। एक लडकी ने शादी नहीं की तो यह पूरे देश की समस्या बन जाती है। शादी कोई सोशल स्टेटस नहीं है और न ही होना चाहिए। यह दो लोगों का आपसी फैसला है कि वे ताउम्र साथ जिंदगी गुजारेंगे। भले ही लव मैरिज हो या अरेंज्ड। यह पर्सनल चॉयस है कि कोई अपने हिसाब से बराबर की विचारधारा वाले व्यक्ति से शादी करना चाहता है या अरेंज्ड मैरिज करना चाहता है। कोई सही व्यक्ति मिलेगा तो निश्चित रूप से शादी भी कर लूंगी, भले ही 60 की उम्र में करूं। वैसे मुझे नहीं पता कि मैं अपने लिए खुद से ज्यादा सफल व्यक्ति की तलाश कर पाऊंगी या नहीं। जिन शादियों में लडकियां पति से ज्यादा सफल होती हैं वहां बहुत सारे समझौते शामिल होते हैं। मैं समझौता नहीं करना चाहती, इसलिए चाहती हूं कि मेरा पार्टनर मुझसे भी ज्यादा सफल हो।

शर्तो के साथ शादी मंजूर नहीं थी

कमलेश जैन, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

मेरे घर में शुरू से लडकियों की पढाई-लिखाई पर जोर दिया गया। पिता प्रोग्रेसिव विचारों के थे। घर में उनका साफ निर्देश था कि बेटी घर के काम नहीं करेगी, वह सिर्फ पढेगी। बचपन में टॉम ब्वॉय टाइप लडकी थी। लडकों की तरह रहना मुझे पसंद था। 20 की उम्र में वकालत शुरू कर दी। पटना (बिहार) के प्रतिष्ठित एडवोकेट की जूनियर थी। धीरे-धीरे मेरा नाम हो गया। पापा और सीनियर की प्रतिष्ठा और साख की बदौलत सिंगल रहने के खतरों का मुझे सामना नहीं करना पडा। आराम से फ्लैट किराये पर लेकर रही। ऐसा भी नहीं था कि शादी की कोशिशें नहीं की। 4-5 प्रस्ताव भी आए, लेकिन ज्यादातर में मेरे सामने वकालत छोडने की शर्त रखी गई, जिसे मैं किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकती थी। कभी लडका कहता कि उसके माता-पिता की सेवा करूंगी या नहीं, घर के काम कर सकूंगी कि नहीं..। ऐसी अजीबोगरीब शर्ते देख कर ही मन खराब हो जाता। इसी के चलते शादी की उम्र निकलती गई और जीवन के पचास साल पार करने के बाद अब इसकी जरूरत भी महसूस नहीं होती। मां को थोडी चिंता होती थी। दो-तीन साल पहले तक वह जीवित थीं। कई बार लोग उनसे मेरी शादी के बारे में पूछते थे, तब वह चिंता जाहिर करती थीं। लेकिन साफ तौर पर उन्होंने मुझसे कभी शादी के लिए नहीं कहा।

अब मैं इतनी व्यस्त हूं कि लगता है, शादी न करके ठीक ही किया। शादी कर लेती तो घर-परिवार की जिम्मेदारियों के लिए समय न निकाल पाती। हां, कभी-कभी भावनात्मक जरूरतें महसूस होती हैं। मगर मेरा सामाजिक दायरा बहुत बडा है। मुझे दूसरों की मदद करना अच्छा लगता है। अपनी घरेलू हेल्पर से भी पर्सनल रिश्ते मेंटेन कर सकती हूं। कई क्लाइंट्स से भी मेरे घर जैसे रिश्ते बन चुके हैं। लोगों के साथ जुडती हूं, उनके लिए काम करती हूं। पढने-लिखने, घूमने और फिल्में देखने का बहुत शौक है। फिलहाल तो यही लगता है कि जिंदगी बहुत छोटी है, करने को बहुत-कुछ है। लंबी छुट्टी मेरे प्रोफेशन में नहीं मिलती, यही एक अफसोस है। मेरे कजंस ने एकाध बार कहा कि अगर प्रोटेक्शन की जरूरत हो तो उन्हें बताऊं। हंसी आती है इन बातों पर। मैं तो खुद लोगों को प्रोटेक्शन देती हूं, मुझे कोई क्या सेफ्टी देगा? बूढी हो जाऊंगी तो ओल्ड एज होम हैं न!

इंटरव्यू : मुंबई से स्मिता श्रीवास्तव, अमित कर्ण, दिल्ली से इंदिरा राठौर

इंदिरा राठौर


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