इन्हीं मुश्किलों से निकलेगी राह
तमाम अड़चनों के बावजूद खेल की दुनिया में भारतीय महिलाओं की उपलब्धियां कम नहीं हैं। चाहें तो इस पर संतुष्टï हो सकते हैं, लेकिन अगर विश्व स्तर पर आकलन करें तो अभी हम पीछे हैं और इसका कारण बहुत हद तक हमारी व्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना है। राष्टï्रीय खेल दिवस
तमाम अडचनों के बावजूद खेल की दुनिया में भारतीय महिलाओं की उपलब्धियां कम नहीं हैं। चाहें तो इस पर संतुष्ट हो सकते हैं, लेकिन अगर विश्व स्तर पर आकलन करें तो अभी हम पीछे हैं और इसका कारण बहुत हद तक हमारी व्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना है। राष्ट्रीय खेल दिवस (29 अगस्त) पर आत्मनिरीक्षण का एक प्रयास इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ।
बात चाहे टेनिस की हो या एथलेटिक्स की, निशानेबाजी की हो या फिर बैडमिंटन या कुश्ती की ही क्यों न हो... आधी आबादी दुनिया में भारत का नाम रौशन करने में कभी किसी से पीछे नहीं रही है। साइना नेहवाल ने बैडमिंटन की दुनिया में भारत को नई ऊंचाई दी है तो ताशी और नुंग्शी मलिक ने पर्वतारोहण के क्षेत्र में झंडे गाडे। ट्रैक एंड फील्ड में पीटी उषा ने कीर्तिमान स्थापित किए तो बॉक्सिंग में मैरी कॉम ने। खेलों का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जिसमें भारत की आधी आबादी ने अपना परचम न लहराया हो। जाहिर है, अगर प्रतिभा की बात की जाए तो भारतीय स्त्रियां किसी से पीछे नहीं हैं। फिर भी, जब खेलों में उपलब्धियों की बात आती है तो कई बार हमें हताशा का मुंह देखना पडता है। वल्र्ड कप, ओलंपिक, एशियाड जैसे बडे अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में जब हम कहीं पीछे छूट जाते हैं, तब कई तरह के सवाल उठते हैं। खेलों की दुनिया में हमारा पिछडापन तब अचानक चर्चा का बडा विषय बनता है, लेकिन यह बना नहीं रह पाता। हमें सब कुछ बहुत जल्दी भूलने की आदत है और अपनी इसी आदत के अनुरूप यह दर्द भी हम थोडे दिनों बाद भूल जाते हैं।
यह दर्द फिर से तभी उभरता है जब ऐसे ही किसी अंतरराष्ट्रीय आयोजन में दुबारा हमारी उपलब्धियां हमारी अपेक्षाओं से काफी कम रह जाती हैं। यह पिछडापन केवल महिलाओं के मामले में हो, ऐसा भी नहीं है। खेल की दुनिया में आबादी के हिसाब से हमारी जो हिस्सेदारी होनी चाहिए, वह नहीं है। महिलाएं न तो किसी से कमजोर हैं और न ही कमतर, फिर भी खेलों में उनकी स्थिति कमजोर है। हकीकत तो यह है कि कर्णम मल्लेश्वरी, पीटी उषा और सानिया मिजर्ा जैसी प्रतिभाओं के होते हुए भी महिलाओं के खेलों को आज तक हमारे यहां खेलों की मुख्यधारा का हिस्सा माना ही नहीं जाता। क्यों?
सोच समाज की
इसके मूल में निहित कारणों का विश्लेषण करने चलें तो वजहों की एक-एक कर कई परतें खुलती चली जाती हैं। यह प्रश्न केवल प्रशिक्षण और सुविधाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि बहुत हद तक हमारी सामाजिक व्यवस्था से भी जुडा हुआ है। हम आधुनिक होने का दिखावा चाहे जितना कर लें, लेकिन सोच के स्तर पर सही मायने में आधुनिकता के आसपास भी नहीं पहुंच सके हैं। यही वजह है कि हर क्षेत्र में उपलब्धियों के झंडे गाडऩे के बावजूद हमारे समाज में स्त्री की स्थिति आज भी दोयम ही है। इसके लिए जिम्मेदार केवल समाज की सोच नहीं, बहुत हद तक हमारी व्यवस्था, इन्फ्रास्ट्रक्चर व सुविधाएं और उन्हें चलाने वाले तंत्र में बैठे जिम्मेदार लोग भी हैं। जब रात को अपने ऑफिस या मॉल या सिनेमा से लौट रही लडकी के साथ ऑटो, बस या टैक्सी में केवल इसलिए कोई हादसा हो जाता है कि वह लडकी है, तो वह घटना केवल उस लडकी ही नहीं, पूरे देश की विकास प्रक्रिया को बाधित करती है। यहां रात की बात कौन करे, अराजक तत्वों का मन इतना बढा हुआ है कि उन्हें दिन में भी कुछ करते डर नहीं लगता। ये तत्व किसी भी रूप में हो सकते हैं। कभी ऑटो या बस ड्राइवर या कंडक्टर के रूप में तो कभी किसी पडोसी या सहयात्री के रूप में, कभी टीचर या कोच के रूप में तो कभी सहपाठी या सहकर्मी के रूप में और यहां तक कि रिश्तेदार के रूप में भी। जहां स्त्रियां घर में ही सुरक्षित नहीं हैं, वहां वे घर से बाहर निकल कर कुछ करने की सोच रही हैं, यही क्या कम है!
हादसों का असर
कानून-व्यवस्था की इस स्थिति के बाद भी जो लडकियां घरों से निकलकर देश का नाम रौशन करने के लिए कुछ कर पा रही हैं, सबसे पहले तो उनके साहस की सराहना की जानी चाहिए। वर्ष 2013 में देश भर में केवल दुष्कर्म की 33 हजार से ज्य़ादा घटनाएं दर्ज की गई हैं। इस तरह की घटनाएं खेल जगत में भी दर्ज की जाती रही हैं। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे जब केरल में चार एथलीट लडकियों ने एक साथ आत्महत्या का प्रयास किया था। ये सभी वाटर स्पोट्र्स में प्रशिक्षण ले रही थीं। ऐसी क्या स्थिति आई कि अपने-अपने घरों से न केवल परिवार, बल्कि देश का नाम ऊंचा करने का सपना लेकर निकली लडकियों को आत्महत्या जैसा अतिवादी कदम उठाना पडा? लडकियों ने अपने सुसाइड नोट में मामूली गलती के लिए वरिष्ठों द्वारा प्रताडित किया जाना बताया और यह मामूली गलती क्या थी, इसकी व्याख्या समय पर छोड देना ही बेहतर।
यह कोई अकेला मामला नहीं है। ऐसी घटनाएं आए दिन सुनने में आती रहती हैं। जब रूढिवादी किसी खिलाडी के पहनावे पर सवाल उठाते हैं और कोई किसी शहर में किसी ख्ाास टूर्नामेंट के आयोजन का विरोध इसलिए करता है कि उसमें लडकियां ऐसे कपडे पहन कर हिस्सेदारी करेंगी, जिन्हें वह सही नहीं मानता, तो वास्तव में वह भी समाज को रिवर्स गियर में ले जाने की ही कोशिश करता है। यहां तक कि ओलंपिक मेडल जीतने वाली भारत की पहली महिला खिलाडी कर्णम मल्लेश्वरी जैसी शख्सीयत को भी दुव्र्यवहार का शिकार होना पडा। यह स्थिति लडकियों को न केवल खेल, बल्कि किसी भी क्षेत्र में प्रयास करने से हतोत्साहित करती है।
प्रशिक्षण की असुविधाएं
इन्फ्रास्ट्रक्चर और वैज्ञानिक प्रशिक्षण का अभाव, कई क्षेत्रों की तरह यहां भी आडे आता है। भारत को गांवों का देश कहा जाता है। यहां सभी क्षेत्रों की अधिकतर प्रतिभाएं गांवों, कस्बों और छोटे शहरों से ही आती हैं। खेलों की दुनिया पर गौर करें तो कई ऐसे खेल, जिन्हें ओलंपिक में मान्यता मिली हुई है, गांवों की जीवनशैली के हिस्से हैं। बात चाहे तैराकी की हो या वेट लिफ्टिंग, या फिर दौड या कूद की... ये सभी ग्रामीण जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। बच्चे अपनी दैनिक जरूरतों के ही नाते इतना कुछ सीख जाते हैं कि इन्हें उनकी जन्मजात प्रतिभा माना जाने लगता है। लेकिन, उनका यह सीखना अपनी जरूरतों के हिसाब से होता है, न कि अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं के अनुरूप। स्पर्धाओं में मेडल जीतने के लिए वैज्ञानिक प्रशिक्षण बहुत जरूरी है। जबकि वैज्ञानिक प्रशिक्षण और अवसरों की जानकारी के अभाव के कारण वहां की प्रतिभाओं को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय तो कौन कहे, राज्य स्तर पर उभरने का भी मौका नहीं मिल पाता। खेल की दुनिया में प्रशिक्षण सुविधाओं की स्थिति देखी जाए तो पता चलेगा कि कई जिलों में तो खेलों के लिए प्रशिक्षण की सुविधा है ही नहीं। जहां है भी, वहां एक तो कुछ गिने-चुने खेलों के लिए ही प्रशिक्षण की व्यवस्था है और दूसरे उनके लिए भी पर्याप्त आधुनिक सुविधाएं नहीं हैं।
आर्थिक सीमाएं
कई खेलों के लिए जरूरी सामग्री ही इतनी महंगी है कि उसे ख्ारीद पाना अधिकतर भारतीयों के लिए संभव नहीं है। इन्हें आम तौर पर वे महंगे शौक मानकर छोड देते हैं। संसाधनों की यह कमी हमारी शिक्षा व्यवस्था के भी आडे आती है। स्कूलों में खेलों की बात तो की जाती है, लेकिन न तो वहां इसके लिए पर्याप्त सामग्री होती है और न ही कोच। अधिकतर विद्यालयों में सारे खेल पीटी टीचर के भरोसे छोड दिए जाते हैं। बच्चे स्वयं ही खेलते हुए जो कुछ सीख सकते हैं, वही सीख कर संतोष कर लेते हैं।
जाहिर है, मामला कुल मिलाकर केवल औपचारिकताएं पूरी करने तक का ही होता है। असल में सारा जोर केवल ग्रेड्स तक ही सीमित होकर रह जाता है। ख्ाासकर सरकारी स्कूलों में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है, उसमें इससे ज्य़ादा कुछ हो भी नहीं सकता।
अपने खेलों पर ध्यान नहीं
सस्ते खेलों की बात करें तो इनमें अधिकतर मूल भारतीय खेल ही हैं। मूल भारतीय खेलों की स्थिति भी प्रतिभाओं से बहुत भिन्न नहीं है। इनमें से ज्य़ादातर खेलों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के लिए प्रभावी प्रयास ही नहीं किए गए। इससे प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों का एक बडा तबका स्पर्धाओं की दुनिया में प्रवेश से ही वंचित रह जाता है। कई अच्छे खिलाडी जिला स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते। राज्य स्तर तक पहुंचने का मौका कम ही खिलाडिय़ों को मिल पाता है। जिन्हें मिलता है, उनमें भी टीम में चयन को लेकर जो राजनीति होती है, उसे झेल पाना और भी कम लोगों के बस की बात होती है। गांवों-कस्बों से आई औसत परिवारों की विशिष्ट प्रतिभाएं कई बार राजनीति की शिकार होकर खेलों की दुनिया से ही बाहर हो जाती हैं। ख्ाासकर लडकियों के लिए इसे झेलना और भी कठिन हो जाता है।
लडकियों के लिए हमारे समाज में बंदिशें ऐसे ही कम नहीं हैं। ज्य़ादातर मध्यवर्गीय परिवारों में लडकियों का घरों से बाहर निकलना कम ही होता है। ऐसी स्थिति में खेलों की दुनिया में वे अपनी कोई पहचान बना लें, यह कल्पना भी कैसे की जा सकती है! ऊपर से जब लडकियों के शोषण की बातें विभिन्न संचार माध्यमों के जरिये बाहर आती हैं तो अभिभावकों का डर और बढ जाता है। वे अपनी बेटी की प्रतिभा, उसकी क्षमताएं और उसके सपने... सब कुछ जानते हुए भी उसे घर से दूर भेजने का साहस नहीं जुटा पाते।
पोषण का अभाव
खेलों के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा स्वास्थ्य का होता है। क्योंकि किसी खेल के लिए स्वस्थ और फिट होना बुनियादी आवश्यकता है। जो स्वस्थ ही नहीं होगा, वह किसी खेल में सफल कैसे हो पाएगा! पूरी तरह स्वस्थ होने के लिए जरूरी है कि पर्याप्त पोषण मिले। भारत ही नहीं, सभी विकासशील देशों के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के आंकडे चिंतित करने वाले हैं। इसके अनुसार कम विकसित देशों की 12 करोड स्त्रियां अंडरवेट हैं। ख्ाासकर दक्षिण एशिया में तो 60 प्रतिशत स्त्रियां अंडरवेट हैं। भारतीय लडकियों में आइरन, आयोडीन और विटमिन ए की डिफिशिएंसी आम बात है। जाहिर है, इसके मूल में केवल अभाव ही नहीं, कुछ हद तक सामाजिक कारण भी जिम्मेदार हैं। एक ऐसे समाज में जहां लडकियों के पोषण तक पर पर्याप्त ध्यान न दिया जाता हो, खेलों में उनसे किसी बडी उपलब्धि की उम्मीद कैसे की जा सकती है!
अवसरों का सवाल
ऐसे माहौल में खस्ताहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ अगर प्रोत्साहन भी नाममात्र के हों तो भला खेलों की दुनिया में प्रतिभाएं आगे कैसे आएं! कुछ क्षेत्रों में थोडे वेटेज और आरक्षण की बात छोड दी जाए तो खिलाडिय़ों के लिए प्रोत्साहन की कोई ख्ाास व्यवस्था नहीं है। खेल आज भी हमारे देश में रोजगार की कोई गारंटी नहीं देते। प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को अपनी दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिए प्रतिष्ठापूर्ण मेडल तक बेचते देखा जा चुका है। क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस और शतरंज जैसे कुछ खेलों की बात छोड दें तो ज्य़ादातर खेलों में नामचीन खिलाडिय़ों के भी बस की बात नहीं है कि वे खेल से अपनी रोजी-रोटी चला सकें। हां, क्रिकेट में कुछ पहचान बना पाने के बाद जरूर आर्थिक हैसियत भी उम्दा बनाई जा सकती है, लेकिन यह बात भी केवल पुरुष खिलाडिय़ों के लिए ही है। भारत की महिला क्रिकेट टीम के बारे में तो जानकारी तक कम लोगों को ही है।
हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल माना जाता रहा है। यह अलग बात है कि सन 2012 में एक आरटीआइ के जवाब में भारत सरकार यह कह चुकी है कि उसने कोई राष्ट्रीय खेल घोषित ही नहीं किया है। इसे राष्ट्रीय खेल मान लिए जाने की वजह यह रही है कि 1928 से 1956 के बीच भारत ने हॉकी में छह ओलंपिक गोल्ड मेडल जीते। हालांकि बाद में हम हॉकी में अपना यह गौरव बनाए नहीं रख सके। हर साल 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में हम असल में मेजर ध्यान चंद का जन्म दिन ही मनाते हैं, जो हॉकी के बेताज बादशाह कहे जाते हैं। लेकिन, आज यह खेल भी इस स्थिति में नहीं है कि अपनी प्रतिभाओं को केवल खेल के दम पर रोटी दे सके।
यह विचारणीय विषय है कि कहीं यह खेल की दुनिया में अवसरों और प्रोत्साहन के अभाव का ही परिणाम तो नहीं जो हॉकी जैसे खेल में हम अपना पुराना गौरव भी बनाए नहीं रख सके। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय युवाओं के सामने आज सबसे बडी चुनौती अवसरों की कमी को ही लेकर है और खेल भारत में बहुत लोगों को रोजगार देने में सक्षम नहीं हैं। भारत के मध्यवर्गीय युवा इसके लिए किताबी ज्ञान और डिग्रियों पर ही निर्भर हैं। शिक्षा व्यवस्था में सुधारों की तमाम सिफारिशों के बावजूद इस सच को बदला नहीं जा सका है। इसलिए युवाओं का ध्यान अपनी मौलिक प्रतिभा के विकास के बजाय सुरक्षित भविष्य के लिए करियर बनाने पर अधिक होता है और करियर बनाने के लिए उन्हें खेलों एवं अन्य क्षेत्रों के बजाय ग्रेड्स की दौड में लगना पडता है। ऐसी स्थिति में खेलों की ओर बहुत कम युवा ही ध्यान दे पाते हैं।
जरूरी हैं सुधार
जरूरत इस बात की है कि खेलों पर ध्यान दिया जाए। इसके लिए सरकार से लेकर समाज और अभिभावकों तक को अपना नजरिया बदलना होगा। महानगरों ही नहीं, छोटे कस्बों में भी प्रमुख खेलों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी। साथ ही, राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय टीमों में चयन की पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना होगा। यह सुनिश्चित करना ही होगा कि प्रतिभाशाली लोग अंतरराष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं तक पहुंच सकें। इस बात का पूरा ख्ायाल रखना होगा कि प्रशिक्षण से लेकर चयन तक के मामले में लडकियों को कहीं किसी तरह के शोषण और भेदभाव का शिकार न होना पडे। अगर यह हो सके तो निश्चित रूप से खेलों की दुनिया में भी भारत विश्व स्तर पर अपना परचम लहराएगा।
घर से कोई बाधा नहीं
साइना नेहवाल, बैडमिंटन
मेरे रास्ते में सबसे बडी मुश्किल फाइनेंशियल थी। जहां तक घर की बात है, मुझे हमेशा प्रोत्साहन ही मिला। मैं आज अगर इस स्तर तक पहुंच सकी हूं तो इसकी वह मेरे पेरेंट्स का प्रोत्साहन और उनकी दूरदृष्टि ही है। घर की ओर से मुझे कभी कोई बाधा नहीं झेलनी पडी। अगर सामाजिक तौर पर कभी किसी ने कोई बात की भी तो उसे मेरे पेरेंट्स ने खुद ही झेल लिया। मैं जब इस हिसाब से देखती हूं तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मैंने अभी कल बैडमिंटन खेलना शुरू किया हो और आज सफलता के इस स्तर पर पहुंच गई हूं। मैं सभी पेरेंट्स से यही गुजारिश करूंगी कि वे सभी बच्चों को, चाहे वो बेटा हो या बेटी, एक ही नजरिये से देखें और विकास का समान अवसर दें। आपको फकर् का अंदाजा खुद हो जाएगा। आप यह पाएंगे कि लडकियां किसी भी क्षेत्र में किसी से पीछे नहीं हैं। लडकियों के लिए मेरी सलाह यह है कि जो कुछ भी करें, पूरे आत्मविश्वास, दृढ संकल्प और अनुशासन के साथ करें। अपने बडों का सम्मान करें। चाहे वो घर पर माता-पिता हों या फिर कोच। उनकी बात को और उनके निर्देशों को समझें और उसे सम्मान दें। उस पर अमल करें। फिर आपको सफल होने से कोई रोक ही नहीं सकता। यह याद रखें कि परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। अगर आप अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखकर इन बातों के साथ निरंतर प्रयास में जुटी रहीं तो निश्चित रूप से आप सफल होंगी।
छोडऩे पडे बचपन के सुख
तान्या सचदेव, शतरंज ग्रांडमास्टर
मुझे शुरू से लेकर आज तक हर काम में परिवार का पूरा सपोर्ट मिला, लेकिन उन दिनों दिल्ली में चेस के लिए कोई ख्ाास कल्चर नहीं था। यहां तक कि यहां तब प्रोफेशनल ट्रेनर्स भी नहीं थे। इसलिए मुझे अकसर साउथ जाना पडता था। इसे लेकर कुछ लोग बातें बनाते थे, लेकिन परिवार ने ऐसे लोगों पर ध्यान नहीं दिया। अब दिल्ली का माहौल हालांकि काफी बदल गया है, लेकिन अभी भी यहां बहुत अच्छे कोच नहीं हैं। अगर बच्चों में ख्ाुद टैलेंट हो तो जरूर वो सफलता हासिल कर लेंगे, लेकिन इसके लिए बहुत मेहनत की जरूरत होगी। मेरा संघर्ष इस तरह का रहा कि मुझे बडी मेहनत करनी पडी, क्योंकि मैं उन दिनों पढाई भी कर रही थी। मुझे रेगुलर प्रैक्टिस और चेस में काफी कुछ सीखने के लिए वह सब छोडऩा पडा जो दूसरे बच्चे बचपन में करते हैं। चेस में किसी तरह के शोषण या दबाए जाने का सवाल इसलिए नहीं पैदा होता क्योंकि यह पूरी तरह परफॉर्मेंस बेस्ड गेम है। इसमें कोच या सेलेक्टर्स के पास मैनिपुलेट करने का बहुत मौका नहीं होता। हां, सरकारी सपोर्ट चेस को बिलकुल नहीं मिल पा रहा है। जरूरत इस बात की है कि इसके लिए देश के अलग-अलग जोंस में कुछ ट्रेनिंग सेंटर्स हों। सरकार इसमें करियर बनाने के इच्छुक बच्चों को प्रशिक्षण की सुविधाएं उपलब्ध कराए। इसमें इंप्रूवमेंट की व्यवस्था बने।
प्रोत्साहन बहुत जरूरी
कृष्णा पूनिया, एथलीट
परिवार से मुझे हमेशा सपोर्ट मिला, मायके में भी और ससुराल में भी। इस मामले मे मैं बहुत लकी रही। प्रशिक्षण की सुविधाएं, हमारे समय में तो बहुत अच्छी नहीं थीं, पर अब बेहतर हो गई हैं। हरियाणा के हर गांव में खेल के मैदान हैं। स्कूलों में जो बच्चे किसी भी खेल में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, उन्हें स्कॉलरशिप दी जा रही है। मुझे एक संकट जरूर झेलना पडा। जब मैं खेलों में आगे बढऩे के दौर में थी उन्हीं दिनों मुझे बैक इंजरी हो गई। इसके अलावा खेलों के जिन संसाधनों की जरूरत होती है, उनके लिए पैसा बहुत जरूरी है। हमारी आर्थिक स्थिति ख्ाराब तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इतनी अच्छी भी नहीं थी कि हम आसानी से इन सब चीजों के लिए इंतजाम कर पाते। इन चीजों को लेकर बडी दिक्कतें आईं। लेकिन, चूंकि परिवार का मुझे सपोर्ट था, इसलिए मुझे कभी हिम्मत नहीं हारनी पडी। एथलेटिक्स इस मामले में बहुत अच्छा क्षेत्र है कि इसमें आपको कुछ दूसरे क्षेत्रों की तरह भेदभाव नहीं झेलना पडता। कोच काफी सहयोगी प्रकृति के होते हैं। वे लडके-लडकियों से ख्ाुद पूछते रहते हैं कि तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है। इसके अलावा आप जो कुछ करते हैं, वह सबके सामने होता है। इसलिए किसी को भेदभाव का मौका ही नहीं मिलता। मेरा मानना है कि हरियाणा और राजस्थान की तरह अगर दूसरी सरकारें भी स्कूल स्तर से ही बच्चों को खेलों के लिए प्रशिक्षण की अच्छी सुविधा और स्कॉलरशिप आदि प्रोत्साहन दे सकें तो हमारी स्थिति बहुत बेहतर होगी।
न टूटा हौसला कभी
बिगन सॉय, हॉकी खिलाडी
वर्ष 2013 में जूनियर वुमंस हॉकी वल्र्ड कप में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली भारतीय टीम में मैं गोलकीपर थी। मैं झारखंड की रहने वाली हूं। बचपन से मेरी रनिंग कैपेसिटी बेहद अच्छी थी। जब मैं वनगांव के कन्या आश्रम स्कूल में पढाई कर रही थी, तो वहां एक मैम ने मुझे हॉकी खेलने की सलाह दी। तब से मुझे हॉकी खेलने की धुन सवार हो गई। गांव की ओर से जब भी कोई हॉकी टूर्नामेंट होता, मैं उसमें भाग लेती। मैं साधारण परिवार से थी, लेकिन मैं बेहतर ट्रेनिंग लेना चाहती थी। वैसे यह सच है कि झारखंड में बढिया हॉकी खेलने वालों की कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकार की तरफ से जैसा समर्थन या प्रोत्साहन मिलना चाहिए, वह अभी तक तो नहीं मिल पाता। वहां खिलाडिय़ों को न तो कभी कोई आर्थिक मदद मिलती है और न ही किसी प्रकार की ट्रेनिंग की कोई व्यवस्था है। फिर भी मैंने कभी हिम्मत नहीं हारी।
मेरे कोच एस के मोहंती ने हमेशा मेरी हौसला आफजाई की। उन्होंने मेरा दाख्िाला झारखंड के बढिया ट्रेनिंग सेंटर में दिलाया। उनकी बदौलत ही मैं न सिर्फ स्टेट लेवल, बल्कि नेशनल लेवल पर भी खेल पाई। मेरा तो मानना है कि तंत्र की तरफ ताके बिना, अपने लक्ष्य पर नजर रखें तो कामयाबी जरूर मिलेगी।
लडकियों के प्रति जिम्मेदार हों सभी
अनीसा सईद, निशानेबाज
परिवार में तो मुझे कोई विरोध नहीं झेलना पडा। कुछ लोगों ने अब्बा को यह समझाने की कोशिश की कि लडकी को इस काम में जाने देना ठीक नहीं है, लेकिन उन्होंने किसी की सुनी नहीं। हमेशा मुझे पूरा प्रोत्साहन दिया और जितनी सुविधाएं वे मुझे दे सकते थे, वह भी दीं। हालांकि उनके लिए मुझे फाइनेंशियल सपोर्ट दे पाना बहुत मुश्किल था, फिर भी उन्होंने दीं। कॉलेज में जितनी स्पोट्र्स की गतिविधियां होती थीं, सबमें मैं हिस्सा लेती थी। मैंने राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल खेला, महाराष्ट्र में राज्य स्तर पर कबड्डी और खोखो खेला। शूटिंग में मेरी दिलचस्पी एनसीसी ज्वाइन करने के बाद हुई और बाद में लगा कि मेरे लिए यही सही है। पुणे में शूटिंग रेंज थी, वहां हम लोग प्रैक्टिस किया करते थे। शादी के बाद मैं फरीदाबाद आ गई, यहां तब शूटिंग रेंज नहीं थी। अब तुगलकाबाद में है तो वहां जाकर अभ्यास कर लेते हैं। जहां तक कोच या चयनकर्ताओं द्वारा शोषण की बात है, यह मैंने कुछ पत्र-पत्रिकाओं में ही पढा है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे बहुत अच्छे लोग मिले। माता-पिता को चाहिए कि लडके-लडकी सबको पढऩे-लिखने के साथ-साथ खेलने की भी अनुमति दें और जितनी सुविधाएं दे सकते हैं, दें। परिवार से सपोर्ट मिलेगा तभी बच्चे आगे बढ सकेंगे। साथ ही, मैं यह भी कहना चाहूंगी कि लडकियां आगे बढें, इसके लिए केवल परिवार ही नहीं, समाज का सपोर्ट भी बहुत जरूरी है। पुलिस, प्रशासन, खेलों से जुडे लोग, यहां तक कि ऑटो रिक्शा या बसों के ड्राइवर-कंडक्टर भी सबकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे कुछ करने का जज्बा रखने वाली लडकियों को सपोर्ट करें।
तीरंदाजी से है प्यार
दीपिका कुमारी, तीरंदाज
बचपन से ही मैं तीरंदाज बनना चाहती थी, क्योंकि मैं निशाना बढिय़ा लगाती थीं। हालांकि जब मैंने अपने पिता को तीरंदाज बनने का अपना निर्णय सुनाया तो वे खुश नहीं हुए। फिर भी मैंने हार नहीं मानी और बांस के बने तीर और धनुष से अभ्यास करती रही। मेरा यह जुनून देखकर मेरी कजन विद्या ने मुझे आर्चरी एकेडमी में दाख्िाला लेने की सलाह दी। मैं झारखंड के एक गांव रातूचति में रहती थी। वहां मेरे लिए कोच और एकेडमी, दोनों ढूंढना मुश्किल था। बाद में जो एकेडमी मिली, वहां भी मुझे कई दिक्कतों का सामना करना पडा। उसमें रहने के लिए न अच्छी हॉस्टल बिल्डिंग थी और न ही खाने-पीने की व्यवस्था। पैसों की दिक्कत अलग, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। काफी प्रयास के बाद मुझे जमशेदपुर की टाटा आर्चरी एकेडमी में तीरंदाजी सीखने का मौका मिला। यहीं मुझे पहली बार यूनिफॉर्म और सभी इक्विप्मेंट्स के साथ ट्रेनिंग लेने का मौका मिला। मैं तीरंदाजी से खुद को अलग करके नहीं देख पाती। मुझे इस खेल से जबर्दस्त लगाव है। इसलिए वल्र्ड कप में शामिल होने के लिए मैंने 12वीं की परीक्षा भी छोड दी। जब मेरी मेहनत और खेल के प्रति समर्पण को मेरे ऑटो चालक पिता ने देखा, तो वे भी मेरे सपोर्ट में उतर आए और अपनी ज्य़ादातर कमाई मेरी ट्रेनिंग पर ख्ार्च करने लगे। मैंने न सिर्फ वर्ष 2010 में दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता, बल्कि अब विदेश में भी कुशल भारतीय तीरंदाज के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी हूं।
इंटरव्यू : इष्ट देव, स्मिता