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मां सुनाओ कहानी

वह घर बड़ा समृद्ध होता है, जहां कहानियां सुनाई जाती हैं। जहां रात होते ही अनुभवों की पोटली खुलती है और एक-एक कर िकस्से निकलने लगते हैं। जीवन के महत्वपूर्ण सबक ऐसे ही मिल जाते हैं बच्चों को। नाना-नानी, दादा-दादी के प्यार से भरा बचपन आज भले ही खो रहा

By Edited By: Published: Mon, 22 Jun 2015 02:48 PM (IST)Updated: Mon, 22 Jun 2015 02:48 PM (IST)
मां सुनाओ कहानी

वह घर बडा समृद्ध होता है, जहां कहानियां सुनाई जाती हैं। जहां रात होते ही अनुभवों की पोटली खुलती है और एक-एक कर िकस्से निकलने लगते हैं। जीवन के महत्वपूर्ण सबक ऐसे ही मिल जाते हैं बच्चों को। नाना-नानी, दादा-दादी के प्यार से भरा बचपन आज भले ही खो रहा हो, मगर कहानी सुनने की बच्चों की ख्वाहिश तो हर युग में बनी रहेगी। बच्चों के विकास में कहानियां क्यों ज्ारूरी हैं, बता रही हैं इंदिरा राठौर।

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क बार जंगल में खरगोश और कछुए के बीच दौड प्रतियोगिता हुई। खरगोश तेज्ा भागा, मगर काफी आगे जाकर थक कर सो गया। कछुआ धीमे-धीमे लेकिन निरंतर दौडता रहा। आख्िारकार वह जीत गया....।

....दो बिल्लियां थीं लूसी और डेज्ाी। वे एक दिन खेल-खेल में ख्ाूब उछलीं, इतनी ऊंची कि चंदामामा तक पहुंच गईं। वहां वे काफी देर खेलीं, मगर फिर उन्हें भूख लग आई और वे घर लौट गईं....।

वे भी क्या दिन थे! कहानियां छुक-छुक रेल की तरह मां-पापा या दादा-दादी के मेमरी स्टेशन से रात के ठीक आठ-साढे आठ बजे निकलनी शुरू होती थीं। रास्ते में कई-कई पडाव पार करतीं, घुमावदार रास्तों पर चकरातीं, थम कर हसीन वादियों का लुत्फ लेतीं आख्िारकार हैप्पी एंडिंग वाली मंज्िाल तक पहुंच जातीं। बच्चे सिर्फ सुनते ही नहीं, कई बार तो आगे की कहानी भी मन ही मन बुनते रहते और ख्ाुश-ख्ाुश सपनों की दुनिया में सो जाते।

वक्त ही वक्त था, कहानियां ही कहानियां। नानी-दादी की पिटारी में िकस्से तो इतने कि कभी ख्ात्म ही न होते। घर के सभी लोग बच्चों की छोटी-छोटी फरमाइशें पूरी करने को तत्पर रहते। ढेरों बाल-पत्रिकाएं होतीं। गर्मी की छुट्टियां रसीले आमों की मिठास और कहानियों के संग-साथ बीत जातीं।

मगर फिर समय बदला...। तेज्ा भागती दुनिया में नाना-नानी, दादा-दादी दृश्य से लगभग ग्ाायब होने लगे। माता-पिता भी वक्त का रोना रोने लगे। कहानियां जैसे चंदामामा के पास जाकर वापस लौटना भूल गईं। बचपन निरा अकेला हो गया, बेबस और अनमना सा।

आजकल घरों में दृश्य कुछ ऐसे होते हैं-

मां कहानी सुनाओ न...!

बेटा, सो जाओ प्लीज्ा। बहुत थक गई हूं। सुबह जल्दी उठ कर ऑफिस भी तो जाना है। पापा से सुन लो!

पापा-पापा मुझे भालू और गीदड वाली कहानी सुनाओ न!

सॉरी बेटा, आज नहीं, काम कर रहा हूं।

पापा, कितना काम करोगे? पहले मुझे स्टोरी सुना दो न!

तंग मत करो बेटा, कल प्रेज्ोंटेशन देना है। अच्छा संडे को ज्ारूर सुनाऊंगा...

पक्का-प्रॉमिज्ा?

पक्का.....।

एकल परिवार हैं, व्यस्त माता-पिता हैं। धैर्य और समय दोनों एक साथ जीवन से गुम हो रहे हैं। कहानियां होती भी हैं तो दो मिनट नूडल की तरह बनती हैं, 'एक राजा था और एक रानी, दोनों मर गए ख्ात्म कहानी। अब भले ही बच्चा कहे कि मां ये तो चीटिंग है, मगर मां तो नींद के झूले में झूलने लगती है।

संवाद का ज्ारिया

बेडटाइम स्टोरीज्ा बच्चों से संवाद का सहज ज्ारिया हैं। माता-पिता और बच्चों के बीच रिश्ते की मज्ाबूत कडी हैं कहानियां। इनसे न सिर्फ बच्चों की कल्पना-शक्ति को विस्तार मिलता है, माता-पिता का अनुभव संसार भी व्यापक बनता है। उन्हें अपने दिमाग्ा के घोडे उन दिशाओं में दौडाने पडते हैं, जहां दिमाग्ा ने जाना बंद कर दिया था। कहानी सुनाने के क्रम में पेरेंट्स बच्चे को वह क्वॉलिटी टाइम दे पाते हैं, जिसे परवरिश का सबसे अहम हिस्सा माना जाता है।

दिल्ली के बिज्ानेसमैन अरुण गुप्ता कहते हैं, 'मैं शुरू से लिखने-पढऩे का शौकीन हूं। लेकिन फिर बिज्ानेस की व्यस्तता में मेरा लिखना-पढऩा छूट गया। मेरी बेटी एक-डेढ साल की हुई तो उसे रात में सुलाने की ज्िाम्मेदारी मुझे मिल गई। बस यहीं से फिक्शन में मेरी वापसी हो गई। बेटी को कहानी सुनाने के लिए मैं किसी भी तरह समय निकाल कर दिन में पढऩे लगा। इस क्रम में किताबें ख्ारीदने का सिलसिला शुरू हुआ और आज मेरे पास बाल-साहित्य का अच्छा-ख्ाासा भंडार है। मुझे याद है, कई बार मैं कहानी शुरू करता था और अपनी बेटी को उसे पूरा करने को कहता था। हम अकसर यह मज्ोदार गेम खेलते थे। आज मेरी बेटी 12 साल की है। मुझे लगता है कि उसके विकास में कहानियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह ख्ाुद भी पोएट्री लिखती है।

विकास के लिए ज्ारूरी

वैज्ञानिक भी मानते हैं कि कथाएं-कहानियां सचमुच कारगर हैं। यूएस के एक चिल्ड्रंस हॉस्पिटल मेडिकल सेंटर में हुए अध्ययन में पाया गया कि बच्चों के मस्तिष्क विकास में प्री-स्कूल टाइम का बहुत महत्व है। इसमें भी बेडटाइम स्टोरीज्ा बहुत महत्व रखती हैं। पेरेंट्स को जन्म के बाद से ही बच्चे से बातें करनी चाहिए, उन्हें कहानियां सुनानी चाहिए, ताकि बच्चे का स्वस्थ विकास हो और उसका ब्रेन अच्छे ढंग से विकसित हो। कहानियों से शब्दों व भाषा पर उनकी पकड अच्छी बनती है। उनका मस्तिष्क कल्पना करने लायक बनता है और वे तसवीर के दूसरे पहलू को भी देख पाने में सक्षम होते हैं।

यूके में पिछले वर्ष हुए एक अध्ययन में पाया गया कि वहां हर साल लगभग सवा लाख बच्चे ख्ाराब रीडिंग लेवल के कारण स्कूल छोडऩे को विवश हो रहे हैं। एक लिटरेसी टेस्ट में केवल 25 प्रतिशत ब्रिटिश लोग ही अच्छी रैंक निकाल पाए। जापान व फिनलैंड में 37 प्रतिशत और हॉलैंड में 36 प्रतिशत लोग ऐसे टेस्ट में अच्छी रैंक पाते हैं।

एक संस्कार हैं कहानियां

जन्म के बाद से ही कई धार्मिक-सामाजिक संस्कार कराए जाते हैं। कहानियां भी ज्ारूरी संस्कार हैं। समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, 'अब पंचतंत्र और अमर चित्रकथा की जगह मोबाइल और विडियो गेम्स ने ले ली है। पैदा होने के बाद से ही बच्चों के आसपास गैजेट्स रख दिए जाते हैं। कहानी सुनाने के लिए पहले पेरेंट्स को पढऩा होगा, मगर जीवन में पढऩे-लिखने की मोहलत और इच्छा लगातार कम होने लगी है। पेरेंट्स को भी लगता है कि वे बच्चों को सहूलियत दे रहे हैं, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते कि बच्चों को सूचनाओं से कहीं ज्य़ादा ज्ारूरत माता-पिता के समय की है। जिस तरह हम हर धार्मिक संस्कार कराते हैं, उसी तरह िकस्से-कहानियां और लोरियां भी एक संस्कार हैं। इनसे बच्चों में भावनात्मक संतुलन आता है। हम बच्चों को जो भी शिक्षा देना चाहते हैं, उन्हें कहानियां ख्ाुद ब ख्ाुद संप्रेषित कर देती हैं। सीधे कहेंगे तो बच्चों को लगेगा यह तो उपदेश है। पुराने समय में सारे संस्कार ही कहानियों के ज्ारिये दिए जाते थे। हम आज जो भी संघर्ष कर पा रहे हैं और जिस तरह चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उनमें कहीं न कहीं कहानियों का बडा योगदान है। आज भी मांएं बच्चों को लोरियां व कहानियां सुनाती हैं। समय की कमी तो एक बहाना है। कोई ज्ारूरी फोन आता है तो उसे उठाते हैं, टीवी देखते हैं, फिल्म देखते हैं, तो बच्चों को कुछ वक्त क्यों नहीं दे पाते? समय से ज्य़ादा यह रुचि का मामला है। मुझे कोई कहानी याद ही नहीं तो बच्चे को क्या सुनाऊंगी? इसके लिए तो पढऩा पढेगा। लंच टाइम में एकाध कहानी पढ लें, टीवी टाइम से थोडा वक्त किताबों के लिए निकालें, ताकि बच्चों को देने के लिए कुछ हो। पत्रिकाएं ख्ारीदें। कुछ देर पुस्तकों के साथ बिताएं। रुचि होगी तो वक्त भी मिलेगा।

कहानी के संदेश

हर कहानी में कोई ख्ाास संदेश छिपा होता है। जीवन के लिए ज्ारूरी स्किल्स सिखाती हैं कहानियां। नैतिक मूल्य, शेयरिंग का गुण, अच्छे-बुरे की पहचान, जीवन की ऊंच-नीच में धैर्य, मनोबल और हौसला बनाए रखने की कला और फैसले लेने का गुण प्रदान करती हैं कहानियां। दिल्ली स्थित यूनीक साइकोलॉजिकल सर्विसेज्ा की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. गगनदीप कौर कहती हैं, 'आज हमारे पास बच्चे को देने के लिए सारी सुख-सुविधाएं और संसाधन हैं लेकिन पंचतंत्र जैसी बाल-कथाएं बच्चों के बुकशेल्फ से ग्ाायब होती जा रही हैं। हालांकि ऑडियो-विज्ाुअल रूप में नई चीज्ों भी आ रही हैं, लेकिन मां-पापा, नाना-नानी, दादा-दादी से कहानियां सुनने का जो मज्ाा है, वह अकेले पढऩे, सुनने या देखने में नहीं है। कहानियां शेयरिंग का माध्यम हैं। ये बच्चों के इमोशनल पैटर्न को संतुलित रखती हैं। आज के माहौल में जाने-अनजाने बच्चों को यही शिक्षा मिल रही है कि 'जो जीतता है-वही सफल है। तो क्या दुनिया में विफल लोगों के लिए कोई जगह नहीं है? हारने वाले लोग विफल हैं? समाज के इस विरोधाभास को समझने लायक बनाती हैं कहानियां। इन्हीं से बच्चों को यह शिक्षा मिलती है कि जीतने के लिए कई बार हारना पडता है और हार भी ज्िांदगी में उतनी ही ज्ारूरी है-जितनी जीत। दो तरह के विकास होते हैं-शारीरिक और मानसिक। इस दौर में बच्चों का शारीरिक विकास तो अच्छी तरह हो रहा है, लेकिन मानसिक-भावनात्मक विकास में कमी आ रही है। महंगे आइपैड, प्ले स्टेशंस, विडियो गेम्स बच्चों को देने वाले माता-पिता क्या 25-30 रुपये की पुस्तकेें नहीं ख्ारीद सकते? िकस्से-कहानियों से होने वाले विकास का एक उदाहरण है। एक एंथ्रपोलॉजिस्ट दक्षिण अफ्रीका में ट्राइबल स्टडी के लिए गए। वहां उन्होंने कुछ आदिवासी बच्चों को लाइन में खडा किया और कहा कि उन्हें एक साथ दौड कर उस पेड को छूना है, जहां फलों से भरी टोकरी रखी है। जो भी सबसे पहले पेड को छुएगा, उसे टोकरी मिल जाएगी। उन्हें बडा आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने देखा कि सभी बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकडा और सीटी बजते ही सभी एक साथ दौड पडे। सारे बच्चे पेड तक साथ-साथ पहुंचे। एंथ्रपोलॉजिस्ट ने कहा, इस तरह तो सभी बच्चों को टोकरी में रखा एक-एक फल ही मिल सकेगा। अगर कोई एक बच्चा पहले पहुंचता तो उसे पूरी टोकरी मिल जाती। इस पर बच्चों ने जो जवाब दिया, वह उन सभ्य समाजों के लिए बेहतरीन सबक है जो आदिवासियों को पिछडा समझते हैं। बच्चों ने कहा कि उन्हें बचपन से ऐसी कहानियां सुनाई गईं जो सिखाती हैं कि जब तक वे साथ हैं, तभी तक उनका अस्तित्व है और तभी तक वे जीवित हैं। साथ चलेंगे तो सबको कुछ न कुछ हासिल होगा, अकेले शायद कुछ न मिले और जंगल में वे ज्िांदा भी न बचें। यह है कहानियों के ज्ारिये दी जाने वाली शिक्षा की एक बानगी।

डर अकेले बच्चों का

किसी भी समाज में इससे बुरा क्या हो सकता है कि बच्चे हमेशा काल्पनिक भय से ग्रस्त रहें। आज के ज्य़ादातर बच्चे इसी भय में जी रहे हैं। जो विकास कहानियों, लोरियों और परिवार के लोगों के साथ रह कर होना चाहिए था, वह हो रहा है टीवी, कंप्यूटर, विडियो गेम्स से। बच्चे काल्पनिक दुश्मन के सामने हैं। उनका यह काल्पनिक दुश्मन कंप्यूटर-लैपटॉप की स्क्रीन के पीछे छिपा है। स्क्रीन पर ख्ाूनी खेल चल रहे हैं, तेज्ा-रफ्तार गाडिय़ां दौड रही हैं, जिन्हें रौंद कर आगे बढऩा है, तभी जीत के लिए ज्ारूरी पॉइंट्स मिलेंगे। ये खेल एक ओर बच्चों में हिंसक और आक्रामक प्रवृत्तियां पैदा कर रहे हैं, दूसरी ओर उन्हें डरपोक, अकेला और निरीह बना रहे हैं। इनसे बच्चों का अकेलापन बढ रहा है। वे घंटों अकेले बैठ कर स्क्रीन से बातें करते हैं, झल्लाते हैं, हारने पर उस पर क्रोध निकालते हैं और जीतने पर उसके साथ हंसते हैं। निर्जीव से दोस्ती और शेयरिंग उन्हें वास्तविक दुनिया से काट रही है। वे वास्तविक जीवन की चुनौतियों और उतार-चढाव का सामना करने में असमर्थ हो रहे हैं। पांच वर्षीय बच्चे के पिता मोहित कहते हैं, 'कंप्यूटर या विडियो गेम्स भी यदि ऐसे होते, जिनमें दो बच्चों की शेयरिंग होती, तो भी शायद उनका विकास इतना एकतरफा न होता। कम से कम वे अपनी जीत-हार को वास्तविक व्यक्ति के साथ तो शेयर करते।

डिजिटल गैजेट्स-मोबाइल फोन, टैब्लेट्स, कंप्यूटर्स और टीवी जैसे गिज्मो हमले से पहले तक बचपन थोडा सुरक्षित था। पेरेंट्स के पास वक्त था। अब ढेरों सुख-सुविधाएं हैं, पर वह प्यार-दुलार नहीं, जिसके हकदार बच्चे हैं और जिस स्नेह को बांटने का सबसे बडा ज्ारिया कहानियां हैं।

बदलाव को स्वीकारना होगा

हिंदी में बाल-कहानियां कम लिखी गई हैं, यह मानना है हिंद युग्म प्रकाशन दिल्ली के युवा संपादक शैलेश भारतवासी का। वह मानते हैं कि शायद ऐसा टेक्नोलॉजी के बढते दबाव के कारण हो रहा है। चूंकि साहित्य के पाठक टीवी और इंटरनेट में शिफ्ट हो गए हैं तो बच्चे भी उसी दुनिया में रम गए। मगर अंग्रेजी और यूरोपीय भाषाओं में बाल-साहित्य पर बहुत काम हो रहा है। एनिमेशन फिल्में इसका बडा उदाहरण हैं। कहानियां हैं, लेकिन उसे बच्चों तक पहुंचाने का माध्यम बदल गया है। अब ये किताबों की शक्ल में नहीं,टीवी, फिल्मों और ऑनलाइन गेम्स के माध्यम से पहुंच रही हैं। फिल्मों और टीवी शोज्ा में भी बच्चों को कहानियां दिखाई या सुनाई जाती हैं। फर्क बस यह है कि इसे सुनाने वाला अजनबी होता है। कहानी सुनाने वाले मां-पिता या दादा-दादी ग्ाायब होते जा रहे हैं। परिवार की इकाई बिखर रही है। एकल परिवारों में जो भी मूल्य बच्चों में भरे जा रहे हैं, वे इन्हीं माध्यमों से जा रहे हैं। शैलेश कहते हैं, 'मेरा बचपन गांव में बीता। हम दिन भर हमउम्र दोस्तों के साथ खेलते, नदी में नहाते, मछली पकडते और फल तोडते, प्यार करते-झगडते। जब तक मां-बाप बुलाने न आ जाते, घर न जाते। शहरी बच्चों के पास ये सुविधाएं नहीं हैं। उनके लिए बाहर की दुनिया उतनी सुरक्षित भी नहीं रही है। बदलते दौर में बेडटाइम स्टोरीज्ा को बचाने के लिए पेरेंट्स को अतिरिक्त मेहनत करनी होगी। उन्हें माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी की भूमिका निभानी होगी। नए बदलावों को सकारात्मक अर्थ में स्वीकार करना होगा। हमारे पासकोई विकल्प भी तो नहीं है। हमें खोजना होगा कि ऑडियो-विज्ाुअल दौर में बच्चों को क्या बेहतर दे सकते हैं।

बडे काम की चीज्ा हैं लोरियां-कहानियां

श्रद्धा कपूर, अभिनेत्री

मेरा मानना है कि जो बच्चे माता-पिता या दादा-दादी से िकस्से-कहानियां सुनते हैं, वे भविष्य में परीक्षाओं-प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ऐसे बच्चों का सामाजिक व भावनात्मक विकास बेहतर होता है। बच्चे गल्प िकस्सों का पूरा आनंद लेते हैं और असल ज्िांदगी की कहानियों और ऐसे िकस्सों में भेद करने में भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। फंतासी और मिथक कई बार बच्चों को लीक से हट कर सोचना सिखाते हैं। उन्हें कल्पना करने की क्षमता प्रदान करते हैं। यह एक गुणात्मक छलांग की तरह है। कोई शक नहीं कि ऐसे बच्चे बडे होकर कोई बडा आविष्कार करें। कहानी सुनने व देखने का प्रभाव एक जैसा होता है। जैसे मंत्रोच्चार एक विशेष लय अथवा पद्धति से किया जाता है तो उसमें संगीत के गुण भी आ जाते हैं। बच्चों को लोरियां गाकर सुलाने का प्रचलन पूरे विश्व में है। लोरी में एक साथ कहानी-कविता और प्रेरक प्रसंग शामिल होते हैं। इसमें संगीत के तत्व होते हैं। जब कहानी का माध्यम बदल जाता है, यानी किताब की जगह कथा का फिल्मांकन अथवा मंच प्रस्तुति की जाती है तो उसका भी वही प्रभाव होता है। नाटक में अभिनय करना अथवा नाट्य प्रस्तुति देखना- दोनों में उपचार के तत्व मौजूद हैं। अनेक अभिनेता मानते हैं कि अभिनय या प्रस्तुति के बाद वे अधिक स्वस्थ और उत्साहित अनुभव करते हैं। मेरा मानना है कि जिन बच्चों को कहानियां सुनाई जाती हैं, वे औरों की तुलना में ज्य़ादा स्वस्थ व कुशाग्र होते हैं।

कहानी बनाता भी हूं बच्चे के लिए

इमरान हाशमी, अभिनेता

मैं फिल्मों में हूं, मगर हमारे घर में हमेशा टीवी-कंप्यूटर से ज्य़ादा महत्व किताबों और िकस्सों-कहानियों को दिया जाता रहा है। बच्चे टीवी देखने की ज्िाद करते हैं। अकसर टीवी देखने को लेकर रोना-धोना मचा रहता है। हमारी कोशिश होती है कि उन्हें किताबों की दुनिया से जोडा जाए। हम नई किताबें लेकर आते हैं। चाहते हैं कि बच्चे उन्हें पढे। भविष्य में वे क्या बनना चाहेंगे, यह दूर की बात है, अभी तो उनके बचपन को सहेजना प्राथमिकता है। मैं मानता हूं कि कहानियां बच्चों के मस्तिष्क-विकास में सहायक हैं। तमाम शोधों में यह बात साबित भी हुई है। मैं तो कई बार बच्चों को उनके दादी-दादा या पापा से जुडी कहानियां भी सुनाता हूं, ताकि वे अपने घरवालों को बेहतर ढंग से जान सकेें। राजा-रानी की कहानियां मैंने बचपन में सुनी थीं। अब वे तो याद नहीं, लेकिन मैं बच्चों के लिए कहानियां गढ लेता हूं। हालांकि कभी-कभी बच्चों को कन्विंस कर पाना मुश्किल होता है। कहानियों में उन्हें जानवर, पक्षी या एलियन टाइप चीज्ों ज्य़ादा भाती हैं। मेरे बेटे अयान को उसके दादा-दादी ज्य़ादा कहानी सुनाते हैं। मेरी पत्नी भी उसे कहानी सुनाती हैं। काम से फुर्सत मिलती है तो मैं भी सुनाना पसंद करता हूं। मुझे लगता है कि कहानी सुनाने का माध्यम भले ही बदल जाए, मगर कहानियों के स्वरूप में बदलाव नहीं आएगा। कहानियां किताब से किंडल (ईबुक रीडर) में बदल सकती हंै, लेकिन कहानियां तो रहेंगी। अयान स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं। एक जगह एडमिशन प्रक्रिया के दौरान मैं चौंका, जब मुझे पता चला कि वहां आइपैड ज्ारूरी है। हमने अयान से एक साल पहले ही आइपैड का इस्तेमाल बंद करवा दिया था, क्योंकि वह हमेशा उसी में लगा रहता था। मैंने स्कूल प्रबंधन से पूछा कि क्या बच्चों को यह देना उचित है? उनका जवाब था कि आपको आज के दौर के साथ चलना ज्ारूरी है।

छोटे शहरों में अभी ज्िांदा हैं कहानियां

राजकुमार राव, अभिनेता

हम तीन भाई-बहन हैं। मैं संयुक्त परिवार में पला-बढा हूं। इसलिए कुल मिला कर हम छह भाई-बहन हैं। बचपन में दादी हमें कई कहानियां सुनाती थीं। उनमें रोमांच होता था। आगे क्या होगा, यह जानने की उत्सुकता बनी रहती थी। कई बार तो दादी एक ही कहानी को अलग-अलग तरीके से मनमोहक अंदाज्ा में सुनाती थीं। हम सभी उन कहानियों का लुत्फ उठाते थे। अब तो एकल परिवार हैं। बच्चे आइपैड या किंडल पर कहानियां पढते हैं। तकनीक बदल सकती है, मगर रुचियां कैसे बदलेंगी! बच्चे रहेंगे तो कहानियों का महत्व भी बना रहेगा। बचपन में ही लगती है कहानियों की लत। शहरों में अब भले ही बच्चों की पसंद बदल रही हो या उनमें कहानियों के प्रति पहले जैसा लगाव न दिख रहा हो, मगर छोटेे शहरों में ऐसा नहीं है। वहां आज भी दादा-दादी, नाना-नानी या मम्मी-पापा से बच्चे कहानियां सुनते हैं। यह एक आदत और संस्कार है उनके लिए।

पापा से सुनी प्यासे कौए की कहानी

विद्या बालन, अभिनेत्री

मेरे पापा बहुत अच्छे स्टोरीटेलर हैं। बचपन में हम हर रात उनसे कहानी सुनते थे। बच्चों को जो कहानी पसंद होती है, उसे वे बार-बार सुनना चाहते हैं। मैं भी कुछ कहानियां बार-बार सुनना चाहती थी। जैसे मुझे बचपन में प्यासा कौआ वाली कहानी बहुत पसंद थी। कौआ घडे में कंकड डालता जाता था और पानी ऊपर आ जाता था। जब पानी ऊपर तक आ गया तो कौए ने प्यास बुझाई। यह कविता-कहानी किसी भी परिस्थिति में हार न मानने का संदेश देती है। अब हम लोग बडे हो गए हैं तो पापा मेरी बहन के जुडवा बच्चों को ख्ाूब प्यार से कहानियां सुनाते हैं। आधुनिक तकनीक ने पुराने तौर-तरीकों में काफी बदलाव किया है। फिर भी बच्चों को कहानी सुनना हमेशा भाता है। वैसे मैं भी अब स्टोरीटेलर बन गई हूं। जब भी घर पर होती हूं, बहन के बच्चों को ख्ाूब सारी अजीबोग्ारीब कहानियां बना कर सुनाती रहती हूं। मैं बचपन की बातें भी उनसे शेयर करती हूं। मज्ोदार बात यह है कि बच्चों को लगता है कि हम हमेशा से ही बडे रहे हैं, कभी बच्चे रहे ही नहीं। ऐसे में उन्हें बचपन की कहानियां सुनाने में ख्ाूब मज्ाा आता है। बच्चे कहानी सुनते हैं तो उन्हें समझ आता है कि दुनिया सिर्फ उनके घर या स्कूल तक नहीं सिमटी है। कहानियों के माध्यम से कल्पना का संसार गढा जाता है। इसी से विचार जन्म लेते हैं। रचनात्मकता जन्म लेती है, जो व्यक्ति को सृजनशील बनाती है। कल्पनाओं में डूबना-उतरना भी कला है। इन गर्मियों में मेरी बहन ने अपने बच्चों को समर कैंप में न भेजने का फैसला किया, ताकि वे उछले-कूदें, पढें और मस्ती करें। हम भी बचपन में गर्मी की छुट्टियों में ख्ाूब खेलते-कूदते-पढते थे। हम चाहते हैं हमारे घर के बच्चे भी वैसे ही रहें।

बिना कहानी सुने बेटे को नींद नहीं आती

अमि त्रिवेदी, टीवी कलाकार

मेरा बेटा पैदा हुआ तो मैंने अपना काम बहुत कम कर लिया। मेरे बेटे अयांश को कहानियां सुनना बहुत पसंद हैं। रोज्ा एक-दो कहानी सुने बिना उसे नींद ही नहीं आती। उसे मेरी गाडी बहुत पसंद है। मुझे कहानी में 'मम्मा की गाडी का िकस्सा जोडऩा पडता है। कई बार तो एक ही कहानी वह 10-10 बार सुनता है। मैं शाम को घर जाने के बाद पूरा समय बेटे को देती हूं। वह बहुत शरारती है, कल्पनाएं करता है। अभी मैं बिग मैजिक के धारावाहिक 'टेढी-मेढी फेमिली में भी तीन शरारती बच्चों की मां बनी हूं। कहानी तो हमारे ख्ाून में है। मैंने भी बचपन में दादा-दादी व मां से ख्ाूब कहानियां सुनीं। अब भी खरगोश-कछुए, बंदर-बिल्ली वाली कहानी मुझे याद है। मुझे लगता है कि बेडटाइम स्टोरीज्ा गहरा असर डालती हैं बच्चे के मन पर। हर मां की तरह मैं भी अपने बेटे को बेहतर इंसान बनाना चाहती हूं। इंसानियत का सबक देने के लिए कहानियों से बेहतर और क्या माध्यम हो सकता है!

इसलिए ज्ारूरी हैं कहानियां

1. अच्छी कहानी बाल-मस्तिष्क में लंबे समय तक अंकित रह जाती है और उसमें छिपा संदेश उसे भविष्य में सही राह पर चलने को प्रेरित करता है।

2. एक उक्ति है-ढेरों किताबें पढें, शब्द नदी की तरह मन में बहने लगेंगे। कहानियां भाषा को समृद्ध करती हैं। इससे कम्युनिकेशन स्किल भी अच्छी होती है।

3. कहानी का नाटकीय अंत और प्रस्तुतीकरण बच्चों की कल्पना शक्ति को विस्तार देता है।

4. कहानियां बच्चों का ज्ञान-वर्धन करती हैं। लोगों, स्थितियों, घटनाओं और दुनिया के बारे में उनके विचारों को पुख्ता करती हैं।

5. ये बच्चों में नैतिक मूल्य सिखाने का बेहतरीन ज्ारिया हैं। सामाजिक व्यवहार के नियम बच्चों को कहानियों के माध्यम से आसानी से सिखाए जा

सकते हैं।

बच्चों से संवाद का माध्यम है कहानी

अनु सिंह चौधरी, कथाकार

जिस युग में माता-पिता बच्चों के सोने के बाद काम से घर लौटते हों, वहां बेडटाइम स्टोरीज्ा वीकेेंड एक्टिविटीज्ा से ज्य़ादा क्या हो सकती हैं! हमारे माता-पिता की ज्िांदगी में इतनी आपाधापी नहीं थी। पिता काम पर जाते, लेकिन शाम के पांच बजे उनका स्कूटर दरवाज्ो पर होता। मांओं के पास भी समय था। घर में और लोग भी थे, इसलिए िकस्से-कहानियों का दौर चलता रहता था। मुझे बचपन की जितनी भी कहानियां याद हैं, वे नानी और पडदादी की सुनाई हुई हैं। अब तो मेरे बच्चे दादी-नानी से भी साल में एकाध बार ही मिल पाते हैं। इसलिए कहानियां भी कम हो गई हैं और कहानियों के बहाने बच्चों से संवाद भी कम हुआ है। मेरा मानना है कि कहानियां ज्िांदगी को बेहतर ढंग से समझने की समझ देती हैं, लाइफ-स्किल्स और मूल्य सिखाती हैं। मुश्किल हालात में कैसे फैसले लें, हिम्मत कैसे बचाएं, कडी मेहनत का ज्िांदगी में क्या महत्व है, ये बातें माता-पिता ऐसे ही बताते तो भाषण लगतीं, मगर कहानियों के ज्ारिये ये उम्र भर की सीख बन जाती हैं। मुझे मौका मिला तो बच्चों की कहानियां ज्ारूर लिखूंगी। हालांकि मैं कंटेम्परेरी कहानियां लिखना चाहूंगी, जिनके संदेश यूनिवर्सल हों, जिनके किरदार आज की दुनिया से ही लिए गए हों। वैसे मैं अभी एक बाल फिल्म की स्क्रिप्ट लिख रही हूं। इस फिल्म का संदेश यही है कि बच्चों की ज्िांदगी में शरारत और ख्ाुरापात ज्ारूर होनी चाहिए। बाल कहानियां सिर्फ नीतिपरक या नैतिक शिक्षा सरीख्ाी न हों, उनमें मस्ती, शरारत सब कुछ हो। बच्चों की भाषा में उनकी ही कहानियां कहना ज्ारूरी है। हम किताबें ख्ारीद भी लें मगर कहानियों से जुडाव व लगाव तो साथ बैठ कर सुनने-सुनाने से ही पैदा होता है। मेरा निजी अनुभव है कि बच्चों को वही कहानियां ज्िांदगी भर याद रहती हैं, जिनमें उनके मां-पापा, बाबा-दादी, नाना-नानी या उनका कोई अज्ाीज्ा कहानी को पढ रहा होता है। कहानियां महज्ा पढऩे या सुनाने के लिए ही नहीं होतीं, इनके बहाने हम बच्चों से न जाने कितनी बातें कर सकते हैं। बच्चों को हर हाल में हमारा थोडा सा वक्त चाहिए और कहानियां वही कीमती वक्त हमसे चुरा कर बच्चों को देती हैं।

भावनात्मक संतुलन सिखाती हैं कहानियां

सिमि श्रीवास्तव, फाउंडर कथाशाला

बच्चों का व्यक्तित्व काफी हद तक कहानियों पर निर्भर करता है। स्कूल बच्चे को भविष्य के लिए तैयार करते हैं, मगर कहानियों से बच्चे की इमोशनल लर्निंग होती है। कहानियां अनुभवों का निचोड होती हैं, इससे बच्चे को समाज में रहने की कला सीखने को मिलती है। पहले संयुक्त परिवार थे, बच्चे बुज्ाुर्गों से उनके अनुभव सुनते थे, उन्हें ग्रहण करते थे, मगर अब एक्सपेरिमेंटल लर्निंग कम हो रही है। स्कूल जाने तक बच्चे का बुनियादी व्यक्तित्व बन चुका होता है, आगे उसमें कुछ और गुणों का इज्ााफा होता है। आज लोगों के पास समय कम है, फिर भी एक वर्ग बच्चों के लिए जागरूक है। बच्चों का मस्तिष्क सुकून महसूस करे, वे अच्छी नींद सोएं, इसके लिए कहानियां ज्ारूरी हैं। स्टोरी-टेलिंग पर काम जारी हैं। कहानियां कैसी हों, इस पर भी ध्यान देना ज्ारूरी है। सिंड्रैला, स्नो व्हाइट एंड सेवन ड्वॉफ्र्स जैसी कहानियां नकारात्मक स्थितियों के बारे में थीं। तब से समय बहुत बदल चुका है। अब लोग इस पर काम कर रहे हैं कि कहानियां सकारात्मक गुणों का विकास कराने वाली हों। यदि बच्चे को सीधे कहा जाएगा-ऐसा करो, तो शायद वह न करे, मगर कहानी वे गंभीरता से सुनते-आत्मसात करते हैं। कई बार तो स्टोरी के जिस एंगल पर बडे नहीं सोच पाते, बच्चे सोच लेते हैं। कहानी से बच्चे का अवचेतन मन अलर्ट होता है, उसकी कल्पना शुरू हो जाती है और अवचेतन में कल्पना का विस्तार होने लगता है। कहानी कैसे सुनाई जाए, यह भी महत्वपूर्ण है। पहले दादा-दादी, नाना-नानी के पास समय होता था। आज मां-बाप व्यस्त हैं। बच्चा ज्िाद करता है तो मां कहती है- मेरे पास 10 मिनट हैं, जल्दी सुनो और सो जाओ। बच्चे कहानी से कई कहानियां निकालते हैं, मगर माता-पिता के पास सुनने का समय नहीं है। जब बच्चे का सोचना बंद कर दिया जाएगा तो वह कल्पना कैसे करेगा? कहानी सुनाने को मैकेनिकल प्रक्रिया नहीं बनाना चाहिए। चाहे हफ्ते में एक बार सुनाएं, लेकिन तभी, जब थोडा समय और धैर्य हो।

कहानियों से पनपा लेखन का शौक

शरद त्रिपाठी, स्क्रिप्ट राइटर

मैं लेखक हूं, इसलिए कहानियों की अहमियत समझता हूं। हमारे देश मेें दादा-दादी, नाना-नानी हमेशा से बच्चों को बेडटाइम स्टोरीज्ा सुनाते आए हैं। कहानी सुनाने का एक ही मकसद होता था कि उनके ज्ारिये बच्चे कुछ सीखें। धीरे-धीरे पंचतंत्र की कहानियों की जगह जादू और परीकथाओं ने ले ली। अब एकल परिवारों में कहानियों का चलन ख्ात्म हो रहा है। मुझे याद है कि मेरी मां चाहे जितनी थकी हों, सोने से पहले मुझे कहानी सुनाना नहीं भूलती थीं। वह पढी-लिखी नहीं थीं, मगर हमेशा ऐसी कहानियां सुनाती थीं, जिनसे मैं कुछ सीखूं। कहानी की शिक्षा को लेकर भी वह मुझसे सवाल करती थीं। बच्चे के स्वस्थ विकास में बेडटाइम स्टोरीज का काफी महत्व है। मैं खरगोश-कछुए वाली कहानी आज तक नहीं भूला हूं। आज माता-पिता के कामकाजी होने से बच्चे मेड्स के सहारे पलते हैं और पेरेंट्स को पता भी नहीं होता है कि वे उनसे क्या सीख रहे हैं। मेरा मानना है कि सोने से पहले बच्चों के आसपास से गैजेट्स हटा देने चाहिए। सच कहूं तो मेरे अंदर राइटिंग का कीडा बचपन में सुनी कहानियों से ही आया। तभी से मैंने कल्पना करना और नैरेशन को समझना भी शुरू कर दिया। बचपन की इस आदत के कारण अब कहानियां गढऩे में मदद मिलती है।

इंटरव्यूज्ा : मुंबई से स्मिता श्रीवास्तव, अमित कर्ण, दिल्ली से इंदिरा राठौर व दीपाली पोरवाल।


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