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इन्हें भी सिखाएं वक्त की पाबंदी

बच्चों के संतुलित शारीरिक-मानसिक विकास के लिए छोटी उम्र से ही उनकी दिनचर्या नियमित होनी चाहिए, ताकि बड़े होने पर वे व़क्त के पाबंद बनें।

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 11:30 AM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 11:30 AM (IST)
इन्हें भी सिखाएं वक्त की पाबंदी

बच्चों का क्या है? जब चाहें खेलें, जब चाहें खाएं, जितनी मर्जी उतना सोएं, इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए भला क्या रोकना-टोकना? छोटे बच्चों के संबंध में अब तक यही धारणा प्रचलित थी, लेकिन समय के साथ परवरिश के तरीके भी बदल रहे हैं। अब विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि शुरुआत से ही बच्चों को सही रुटीन की जरूरत होती है। तभी उनका स्वस्थ शारीरिक-मानसिक विकास हो पाता है।

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बहुत कुछ सीखता है शिशु

पहले जन्मदिन के बाद से ही बच्चों की दिनचर्या व्यवस्थित करने की कोशिश करनी चाहिए। हालांकि, कुछ पेरेंट्स उन्हें रुटीन के नियम-कायदों में बांधना पसंद नहीं करते। अभिभावकों को ऐसा लगता है कि इससे बच्चों पर अनुशासन का अनावश्यक बोझ पडेगा, पर ऐसा सोचना गलत है। यही वह समय है, जब हम सही रुटीन के जरिये बच्चे को अनुशासित कर सकते हैं। इस उम्र की आदतें बडे होने के बाद भी नहीं बदल पातीं। किसी भी इंसान का बॉडी क्लॉक उसके बचपन के रुटीन से ही निर्धारित होता है।

इसीलिए शुरुआत से ही हमें बच्चे में अच्छी आदतें विकसित करनी चाहिए। नियमित दिनचर्या की वजह से ही उसका शरीर और दिमाग समय के साथ तालमेल बिठाना सीखता है। जब उसके सुबह जागने, मालिश, नहाने, फीड लेने, खेलने और सोने का समय निर्धारित होता है तो धीरे-धीरे उसमें यह समझ विकसित होने लगती है कि यह मेरे खाने का समय है, अब मुझे खाना मिलेगा। इसलिए शिशु को उसी निश्चित समय पर भूख महसूस होगी, जब आप उसे रोजाना लंच या डिनर देती हैं। नींद के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। एक साल की उम्र के बाद शिशु को दिन में ज्यादा से ज्यादा जगा कर रखना चाहिए, ताकि रात को वह पूरी नींद ले सके। इस उम्र के बच्चों के लिए दिन में लगभग दो घंटे की नींद पर्याप्त होती है।

इच्छाओं पर नियंत्रण

शिशु का सही रुटीन उसे उसकी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सिखाता है। अगर वह आधी रात को उठकर खेलना चाहे तो मां उसे जबरन सुलाने की कोशिश करती है। इससे कुछ ही दिनों में उसे यह एहसास हो जाता है कि इस वक्त मुझे खेलने की इजाजत नहीं मिलेगी। इस तरह वह सही समय पर सोना सीख जाता है। रुटीन की वजह से ही बच्चे में पहली बार समय की धारणा विकसित होती है। उसे यह मालूम हो जाता है कि हर काम के लिए निश्चित समय तय होता है, उसके पहले या बाद में उसकी कोई मांग पूरी नहीं की जाएगी। यह उम्र का ऐसा दौर है, जब शिशु में शारीरिक गतिविधियों के साथ भाषा एवं सामाजिक व्यवहार का तेजी से विकास हो रहा होता है। वह रोजाना नई बातें सीखने और समझने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में वह कुछ ऐसी आदतें भी अपना लेता है, जो उसकी सेहत या सुरक्षा की दृष्टि से नुकसानदेह साबित होती हैं। इसीलिए छोटी उम्र से ही उसकी ऐसी क्रियाओं को नियंत्रित करना जरूरी होता है। अगर शिशु की दिनचर्या सही होगी तो उसके लिए अपनी इच्छाओं और व्यवहार को नियंत्रित करना आसान हो जाएगा।

एडजस्टमेंट होगा आसान

आज की जीवनशैली अति व्यस्त है। ज्यादातर परिवारों में माता-पिता दोनों जॉब करते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चे को बदलते माहौल के साथ एडजस्ट करना पडता है। उसकी सही दिनचर्या इसमें बहुत मददगार साबित होती है। अगर मां जॉब करती है तो ऑफिस जाने से पहले वह अपने शिशु को नहला-धुलाकर कर उसे नाश्ता करा देती है। फिर घर से निकलते वक्त वह उसे बाय करती है तो इससे उसके दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि अब मुझे दिन भर मम्मी के बिना रहना होगा। इसीलिए वह परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ख्ाुश रहने की कोशिश करता है। रोजमर्रा की दिनचर्या से जुडी ऐसी छोटी-छोटी बातों से वह दिन भर की गतिविधियों का क्रम समझ जाता है। उसे बहुत जल्द यह मालूम हो जाता है कि नाइट सूट पहनने और बेड टाइम स्टोरी सुनने के बाद मुझे सोना पडेगा। यह समझने के बाद वह पेरेंट्स के ऐसे सभी निर्देशों का पालन करने लगता है।

अच्छी आदतों की सीख

सुनिश्चित दिनचर्या की वजह से ही बच्चों को सही व्यवहार सीखने का अवसर मिलता है। खिलौनों से खेलने के बाद उन्हें समेट कर सही जगह पर रखना भी उनकी दिनचर्या का जरूरी हिस्सा होता है। इससे उसमें स्व-अनुशासन और जिम्मेदारी की भावना विकसित होती है। मिसाल के तौर पर अगर छोटी उम्र से ही उसे खाने से पहले हाथ धोना और रात को सोने से पहले ब्रश करना सिखाया जाए तो ऐसी स्वस्थ आदतें ताउम्र उसके लिए उपयोगी साबित होंगी।

पिता की जिम्मेदारी

यह सही है कि बच्चे का ज्यादातर समय मां के साथ बीतता है, पर उसकी दिनचर्या को व्यवस्थित करने में पिता का सहयोग भी काफी अहमियत रखता है। इससे उन दोनों के बीच मजबूत भावनात्मक बंधन विकसित होता है। मिसाल के तौर पर शाम को ऑफिस से लौटने के बाद बच्चे के साथ खेलने और उसे कहानियां सुनाने के लिए पिता को वक्त जरूर निकालना चाहिए।

अनुशासन की मजबूत बुनियाद

निश्चित दिनचर्या का सबसे बडा फायदा यह है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के शिशु अपने आप अनुशासित हो जाता है। उसे यह मालूम होता है कि अभी मैं क्या कर रहा हूं और इसके बाद मुझे क्या करना है? इससे उसका आत्मविश्वास बढता है। जब उसे अपने रुटीन की पूरी जानकारी होती है तो वह खुद अपना हर कार्य निर्धारित समय पर करना चाहता है। उसे यह मालूम होता है कि लंच या डिनर के वक्त उसे आपके साथ डाइनिंग टेबल पर बैठना है तो उस दौरान वह चाहकर भी खेलने-कूदने की मनमानी नहीं कर सकता।

स्मरण-शक्ति को मजबूती

बच्चों पर किए गए रिसर्च से यह साबित हो चुका है कि सही दिनचर्या उनमें सीखने और याद रखने की क्षमता को मजबूत बनाती है। ऐसी स्मरण-शक्ति को प्रोसिजरल मेमोरी कहा जाता है। ऐसी स्मरण शक्ति शुरुआती दौर में ध्यान केंद्रित करने और गतिविधियों को याद रखने से संबंधित है। जब बच्चा प्रतिदिन एक ही रुटीन का पालन करता है तो बार-बार एक ही जैसी क्रियाओं को दोहरा रहा होता है। इसलिए वह अपने जरूरी कार्य नहीं भूलता। बडे होने के बाद भी यही आदत उसे व्यवस्थित बनाने में मददगार होती है।

अब सवाल यह उठता है कि बच्चे का सही रुटीन कैसा होना चाहिए? दरअसल सभी के लिए एक ही जैसा रुटीन तैयार करना संभव नहीं है क्योंकि हर बच्चे का व्यक्तित्व दूसरे से अलग होता है। इसके अलावा पेरेंट्स की दिनचर्या, परिवार के माहौल और उसकी देखभाल में अन्य सदस्यों की भागीदारी जैसी बातों से भी उसकी दिनचर्या प्रभावित होती है। इसलिए पेरेंट्स को अपनी सूझ-बूझ से बच्चे के लिए रुटीन तैयार करना चाहिए। उसके विकास के साथ पैदा होने वाली नई जरूरतों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर उसकी दिनचर्या में बदलाव भी बेहद जरूरी है।

कुछ जरूरी बातें

-अगर किसी आकस्मिक परेशानी की वजह से बच्चे का रुटीन डिस्टर्ब हो जाए तो आपकी कोशिश यही होनी चाहिए कि उसे दिए जाने वाले समय में कटौती करने के बजाय दूसरे गैर जरूरी कार्यो को कुछ समय के लिए छोड दें।

-शिशु के रुटीन में जल्दी-जल्दी बदलाव न लाएं। इससे वह भ्रमित हो जाएगा और उसके लिए यह समझ पाना मुश्किल हो जाएगा कि उसे किस समय क्या करना है?

-परिवार के अन्य सदस्यों को भी शिशु की देखभाल में शामिल करें। ऐसा करने पर वह उनके साथ सहज रहेगा और उन्हें भी उसकी दिनचर्या की पूरी जानकारी होगी। इससे आपकी अनुपस्थिति में उसे कोई परेशानी नहीं होगी।

-बोरियत से बचाने के लिए उसकी दिनचर्या में मामूली फेर-बदल किया जा सकता है, लेकिन नींद और खाने के समय में कोई बदलाव न लाएं। हां, उसकी दिनचर्या में कुछ रोचक गतिविधियों को जरूर शामिल करें।

-छोटे-छोटे नियमों से ही शिशु अपनी दिनचर्या से संबंधित संकेत ग्रहण करता है। मसलन, जब मां उसे रोजाना थपथपाते हुए लोरी सुनाती है तो वह आसानी से समझ जाता है कि अब मेरे सोने का समय हो गया है। इसलिए ऐसी क्रियाएं नियमित रूप से दोहराएं।

(चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट पूनम कामदार से बातचीत पर आधारित)

विनीता


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