युवा प्रतिभा दामिनी की रचनात्मक दमक
विता के गढऩ या व्याकरण से बेपरवाह उसकी सीधी-सी काव्य गली है जिसमें वह हथेलियों से स्मॉग (धुएं और कोहरे से बना) को छांटा करती है। बातचीत में चमक है तो कविता में गरज।
1.
मैंने गुडिय़ों के मंडप नहीं सजाए कभी,
खुद को किसी बाजार की गुडिय़ा
बनने से बचाने को
किए हैं हाथ जख्मी,
मैं नहीं जानती, आशीस देते हाथ कैसे लगते हैं,
मैं दिखा सकती हूं, पीठ पर सरकने को बेचैन कई
हाथों पर
अपने दांतों का पैनापन,
मुझे नहीं मालूम, घुटी सिसकियां क्या होती हैं,
खूंखार गुर्राहटों को अपने हलक में पाला है मैंने,
2.जब उनमें भूख जागती है,
वो भूख अपना हर हक मांगती है
और हर भूख का निवाला
सिर्फ रोटी नहीं होती है,
वो निवाला घर होता है, खेत होता है, छप्पर होता है,
उस भूख की तृप्ति,
कुचला नहीं, उठा हुआ सर होता है,
वह दमकती रहती है, हर तरफ, हर हाल में।
चाहे कविता की बात हो या धारदार लेखों की। उसके लेखन या जीवन में छद्म नहीं है, बहुत इश्क मुहब्बत नहीं है, मान-मनुहार नहीं है, ज्यादा घुमाव-फिराव नहीं है। कविता के गढऩ या व्याकरण से बेपरवाह उसकी सीधी-सी काव्य गली है जिसमें वह हथेलियों से स्मॉग (धुएं और कोहरे से बना) को छांटा करती है। बातचीत में चमक है तो कविता में गरज। कविताएं ओले की तरह बरसती हैं जमीन पर। उसे कोई भ्रम नहीं कि उसकी कविताएं, दुनिया का चाल, चेहरा और चरित्र बदल देंगी। वह अपने लिए लिखती है, सिर्फ इतना एजेंडा है कि दुनिया को आइना दिखा देंगी। यह एहसास करा देंगी कि जमाने से जो मिला है, उसे लौटा रही है, ज्यादा तीक्ष्ण और मारक बनाकर। वह अपने नाम की ही तरह चपल और चंचल है। दामिनी नाम है और उसकी दमक का पता उसकी प्रखर कविताएं देती हैं और उन कविताओं के लिए जमाने भर से लोहा लेने के प्रमाण सोशल मीडिया में मौजूद हैं।
वह कहती है, 'मेरी कविता में समाज के कड़वे यथार्थ होते हैं, समाधानों की तलाश की छटपटाहट होती हैं। इस
समाज में जहरीली सांस लेकर मैं जो वापस लौटाती हूं, वह मीठा-मीठा कैसे हो सकता है! बलात्कार, गर्भपात,
माहवारी जैसे विषयों पर लिखते हुए मैं उनमें सुर, लय, ताल कैसे डालूं?'
दामिनी की कुछ कविताएं वायरल हो जाती हैं और वह चौतरफा हमलों से घिर जाती है। एक अलग सरोकार,
तकलीफ के साथ लिखी गई कविताओं के पक्ष में वह डटकर वाग्मिता दिखाती है और अक्सर समर्पण का
माहौल खड़ा करवा देती है। बकौल दामिनी, 'जिसके मन में अनगिनत छाले पड़े हों, वह किसी हमले से क्या डरेगा?'
उसकी एक कविता 'माहवारी' दो बरस पहले सोशल मीडिया में खूब वायरल हुई, कुछ लोगों ने कवि का नाम
हटाकर इसे शेयर किया तो कुछ लोगों ने दामिनी पर अश्लीलता का आरोप लगाया। कई भाषाओं में इस
कविता का अनुवाद भी हुआ। उस दौरान दामिनी की दमक देखने लायक थी। वह आज भी कायम है। उसने
उसके बाद इसी तरह के वर्जित विषयों पर डटकर लिखा। उसके सीने में आधी दुनिया की तकलीफें छटपटाती हैं।
नजरअंदाज भला करे तो कैसे?
वह बताती है, ''माहवारीÓ कविता लिखते हुए मैं नहीं जानती थी कि मेरे एक दिन का सच, आधी दुनिया का पू रा
सच बन जाएगा। अच्छा-बुरा जो भी लिखा, अपने जमीर की आवाज पर लिखा, इसलिए उसकी पूरी जिम्मेदारी भी
लेती हूं। मैं चूड़ी-गजरा, इश्क-विश्क लिखने के लिए नहीं बनी हूं। मेरे अंदर जो आग है उसकी रोशनी में मैं अपना चेहरा भी देखती हूं और समाज को उसका चेहरा भी दिखाना चाहती हूं।Ó
अश्लीलता का आरोप लगाने वालों पर वह और भड़कती है, 'मुझे 'नंगेÓ को वस्त्रहीन कहने का शऊर नहीं आता। मुझे लगता है कि समाज का एक बड़ा तबका महिला लेखकों से सुरीली लोरियों की ही अपेक्षा रखता है। उनसे मैं सिर्फ इतना कहूंगी कि मेरा लेखन बच्चों के लिए नहीं है, वयस्कों के लिए है।Ó सेल्फमेड, अपनी शर्तों पर जीने वाली, अब तक सिंगल दामिनी कुछ वर्षों
से दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही है और उसकी कविता की एक किताब 'ताल ठोक केÓ आ चुकी है।
गीताश्री