राखी स्पेशल : मेहनत की मिठाई
रक्षाबंधन में जब नहीं मिले मिठाई के पैसे तो किशोर ने पढ़ाई के साथ काम में बंटाया पिता का हाथ और बदली घर की आर्थिक स्थिति...
उस समय मेरी उम्र दस वर्ष के करीब थी। मेरे बाबाजी स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे, इसलिए बार- बार नौकरी छोड़ देते थे। पिता जी कोई काम करते नहीं थे और सिर्फ इंटरमीडियट तक ही पढ़े थे। मां गृहणी थीं और वह भी हाईस्कूल तक ही पढ़ी थीं। बाबाजी के नौकरी छोड़ते ही परिवार चिंताग्रस्त हो जाता था कि अब खर्च कैसे चलेगा। हम चार बहन-भाई तथा माता-पिता और बाबाजी को मिलाकर परिवार में कुल सात सदस्य थे। मां अक्सर पिता जी से कहा करती थीं कि कुछ तो काम धंधा करो, ऐसे कैसे गुजारा होगा।
पिता जी एक दिन घर में रखी एक मूर्ति को एकटक निहारते रहे और फिर उत्साहित होकर मां से कहने लगे कि मैं मूर्ति बनाकर बिक्री करूंगा। मां इस बात से खुश हुईं कि चलो कुछ करने की तो ठानी लेकिन समस्या थी कि एक दिन में कोई मूर्तिकार तो नहीं बन सकता है। पिता जी को जैसे मूर्तिकार बनने की ललक लग चुकी थी। वे दिन-रात मूर्तियां गढ़ते। एक मूर्ति को कई-कई बार तराशते और उसमें जान फूंकने की कोशिश करते। पिता जी ने कुछ मूर्तियां बनाई और बाजार ले गए। कुछ दुकानदारों को उनका काम पसंद आया। यह पिता जी के काम का शुरुआती दौर था।
कुछ माह बाद रक्षाबंधन का त्योहार आया। जैसा कि त्योहारों में बच्चों को खुशी होती है, मुझे भी बहुत खुशी थी। वजह थी कि मुझे मोटे फोम से बनी राखी बहुत अच्छी लगती थी। रक्षाबंधन के दिन मैंने पिता जी से कहा कि आज रक्षाबंधन है और मुझे मिठाई खाकर राखी बंधवानी है, कुछ पैसे दीजिए। वे कहने लगे कि अभी तो मेरे काम की शुरुआत हुई है, जो पैसे आते हैं, मूर्तियां बनाने के सामान में खर्च हो जाते हैं। ऐसे में तुम्हें पैसे कहां से दूं? जब मैंने मां से कहा तो वह कहने लगीं कि बेटा मैं गुड़ दे देती हूं, उसे खाकर राखी बंधवा लो। अगले साल जब पैसे होंगे तब मिठाई खाकर राखी बंधवाना।
इस बात ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। मुझे लगा कि घर में सात सदस्य हैं और आज त्योहार के दिन इतने पैसे नहीं हैं कि मिठाई का भी इंतजाम हो सके। मैंने उसी वक्त तय किया कि पढ़ने के बाद का समय अब मैं खेलने-कूदने में बिताने के बजाए पिता जी का सहयोग करने में लगाऊंगा। मैं काम में पिता जी हाथ बटाने लगा। मैंने पिता जी के साथ मिलकर मूर्तियों के साथ ही मोमबत्ती, चूरन की गोली और धूपबत्ती का काम शुरू कर दिया। धीरे-धीरे काम ने रफ्तार पकड़ी। अब हम लोगों को दो वक्त का खाना तो मिल ही जाता था, साथ ही सभी की पढ़ाई भी चलने लगी। मुझे यह सब काम करते देख सहपाठी उपहास उड़ाते लेकिन मैं यह जान चुका था कि मेहनत करना कोई गुनाह नहीं है।
दीपावली पर हम गणेश-लक्ष्मी और डिजाइनर दियों का काम कर लेते थे। समय बदला और भाई की बैंक में नौकरी लग गई। अब घर के हालात तेजी से बदल रहे थे। काम के साथ ही मैं भी मेहनत से पढ़ रहा था। नतीजा बेहतर रहा और मुझे भी बैंक में नौकरी मिल गई। मेरी शादी केंद्रीय विद्यालय में कार्यरत शिक्षिका से हुई। अब हम सभी भाई अपने-अपने कार्य में लगे हैं। बहनें शादी करके अच्छे घर में जीवन गुजार रही हैं। रक्षाबंधन पर पैसे नहीं होने से ही शायद मेरे मन में पढ़ाई के साथ मेहनत करने का भाव जगा था। अब मैं हर रक्षाबंधन में गरीबों को मिठाई बांटने जरूर जाता हूं। मैं कहना चाहता हूं कि चाहे जितनी मुश्किलें आएं, कभी काम से मुंह नहीं चुराना चाहिए। अगर आप मेहनत से कोई काम करते हैं तो सफलता जरूर मिलती है।
शैलेंद्र कुमार अग्रवाल
मेरठ (उत्तर प्रदेश)