कहानी: खोमचे वाला
भेल का खोमचा लगाकर छात्र ने की लगन से पढ़ाई और बन गया डॉक्टर...
भेल की कला में निपुण भुल्ली काका का नाम मुंबई की पूरी चौपाटी जानती थी। भेल बेचकर ही उन्होंने मुंबई जैसे शहर में कई बिल्डिंगें खरीदीं। एक बार रिश्तेदार की शादी में बनारस से मुंबई जाना हुआ। चौपाटी घूमने के दौरान मैंने उन्हें भेल बनाते देखा तो आश्चर्य से देखता ही रह गया। भेल का जायका लेने के लिए एक ठोंगा खरीदा और उनके पास ही खड़ा हो गया।
ग्राहकों का हुजूम कम होते ही वे मुझसे पूछ बैठे कि कहां से आए हो? मैंने जवाब दिया कि बनारस से। उनका अगला सवाल था कि वहां क्या करते हो? मैंने कहा कि गंगा के किनारे भेल का खोमचा लगाता हूं। मेरी बीमार मां और मेरा गुजारा उसी से होता है। वे कहने लगे कि चाहो तो अच्छे पैसे पर नौकरी दे सकता हूं। मैंने कहा कि चाचा अभी पढ़ रहा हूं और यह काम भी पढ़ाई से बचे समय में करता हूं। वो भी केवल शाम को।
पढ़ाई की बात सुनकर वे बहुत खुश हुए और भेल बनाने के कुछ टिप्स भी दिए। मुझसे प्रभावित होकर उन्होंने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड भी दिया। दूसरे दिन मैं वहां से लौट आया। उन्होंने मुझसे मिलकर थोड़ी ही देर में अपने अतीत की सारी कथा सुना दी थी। उन्होंने बताया कि बेटा वही आगे बढ़ता है, जिसमें इच्छाशक्ति हो, न कोई काम छोटा होता है न बड़ा, बस हमें अपनी सोच को उत्तम बनाना चाहिए।
बनारस आकर मैं पूर्ण ऊर्जा के साथ अपने काम में जुट गया। ग्राहक बढ़ने लगे और अच्छी कमाई भी होने लगी। इस समय मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बीएससी तृतीय वर्ष का छात्र था। दस बजे से दो बजे तक कॉलेज, शाम पांच बजे से रात आठ बजे तक खोमचे की दुकान पर रहना मेरी दिनचर्या थी।
मेरी जिंदगी भी फिल्म की कहानी की तरह रही। मुझे वह दिन बखूबी याद है, जब मेरे बापू की मृत्यु हुई तो मेरी पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण का जिम्मा मां के कंधों पर आ गया। वह बीमार रहती थीं। मेरे रोकने पर भी उन्होंने दो घरों में चौका-बर्तन का काम करना शुरू कर दिया था, जिससे मेरी पढ़ाई न प्रभावित हो। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि मैं डॉक्टर बनूं और वे मुझे डॉक्टर साहब कहकर पुकारती भी थीं।
मोहल्ले में जिसकी मां बाई का काम करे उसके बेटे को क्या-क्या उपाधियां मिलती हैं, शायद मुझसे बेहतर कोई जानता हो। कोई बाई का बेटा तो कोई नौकरानी का बेटा कहकर मुझे तब तक तंग करता था, जब तक कि मैं रोने न लगता। दुख तो तब होता जब अध्यापक भी शिकायत पर मौन रहते। मां को काम छोड़ने को कहता तो डांटते हुए कहती कि जिसे जो कहना है कहे, किसी के कहने से न कोई छोटा होता है न बड़ा। मेहनत और लगन से पढ़ो, जब डॉक्टर बनना तो देखना दुनिया सलाम करेगी।
मां का दूसरों के घर काम करना मुझे अच्छा नहीं लगता था किंतु वह मेरी एक न सुनती। एक दिन कॉलेज बंद हो गया। मां को क्या पता था कि मैं दोपहर में ही आ जाऊंगा। घर की चाबी लेने वहां पहुंचा, जहां मां काम करती थी। मैंने मां की जो दशा देखी, ईश्वर न करे कि किसी बेटे को देखनी पड़े।
घर की मालकिन ने किसी बात पर मां को ढकेल दिया था, जिससे मां के दांत से खून निकल रहा था। यह देखकर मेरे मुख से मालकिन के लिए क्या निकला स्मरण नहीं, इतना ही याद है कि मां ने उठते ही मेरे गाल पर झन्नाटेदारतमाचा मारा था। मैं मां को लेकर घर आ गया।
रात को घर में चूल्हा न जला। मां ही मुझे पढ़ाने और घर चलाने की एकमात्र जरिया थीं। नौकरी छूटने का दुख किसे नहीं होता। कितनी भयानक थी वह रात, न मां सोई न मैं। मां इसलिए न सोई कि उन्हें बेटे के भविष्य की चिंता थी और मैं इसलिए न सो सका कि अब खर्च कैसे चलेगा?
शाम को मां के साथ गंगा तट गया, अस्सी घाट पर हमने एक भेल की दुकान देखी, अच्छी भीड़ थी। उसी से प्रेरणा लेकर मैंने भी यह कार्य प्रारंभ किया। पूंजी बगैर इस काम में अच्छी सफलता मिली। मैं बीएससी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। मुझे तो मां के सपने साकार करने थे। प्रथम प्रयास में पीएमटी की परीक्षा टॉप की। मेरी इस सफलता पर मां अत्यंत खुश हुईं, जैसे उन्हें वांछित वरदान मिल गया हो। अब चिंता थी कि फीस के पैसे कहां से आएंगे। इस पर मां ने कहा कि बेटा भेल की दुकान मैं चलाऊंगी। मुझे तुम्हें डॉक्टर जो बनाना है। मां ने कुछ रुपए निकालकर दिए और बोलीं कि मुझे पता था कि जब तुम डॉक्टर बनोगे तो फीस के लिए पैसों की जरूरत होगी, इ सलिए यह पूंजी मैंने बचाकर रखी थी। उस दिन मुझे लगा कि ऐसी मां सबको मिले। आज मां की कृपा से मैं डॉक्टर हूं।
उन्हीं दिनों भुल्ली काका का पत्र आया कि मैं बनारस घूमने आ रहा हूं। यह सुनकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। वे घूमने क्या, अपनी लड़की के लिए मेरा हाथ मांगने आए थे। उन्होंने मुझे गिμट में एक अस्पताल बनाकर दिया। आज भी मुझे अपना कल याद है...वही खोमचे वाला...। अब मैं लोगों को यह समझाता हूं कि लगन हो तो मंजिल स्वयं समीप आने लगती है।
डॉ. प्रेम शंकर द्विवेदी ‘भास्कर’, जौनपुर (उ.प्र.)
यह भी पढ़ें: प्रेमचंद की लघुकथा: दूध का दाम